विशेष : इतने बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विलुप्तीकरण इंसान के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बड़ा खतरा
यदि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए तब दुनिया के सर्वाधिक जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में इस शताब्दी के अंत तक आधी से भी अधिक प्रजातियाँ हो जायेंगी विलुप्त...
विश्व पर्यावरण दिवस 2020 पर महेंद्र पाण्डेय की खास टिप्पणी
जनज्वार। प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान दौर में पृथ्वी अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले लगभग 44 करोड़ वर्ष पहले, 36 करोड़, 25 करोड़, 20 करोड़ और 6.5 करोड़ वर्ष पहले ऐसा दौर आ चुका है। पर, उस समय सब कुछ प्राकृतिक था और लाखों वर्षों के दौरान हुआ था।
इन सबकी तुलना में वर्तमान दौर में सबकुछ एक शताब्दी के दौरान ही हो गया है। वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं बल्कि सामान्य प्रजातियाँ भी खतरे में हैं। इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है।
आज हालत यह है कि लगभग सभी प्रजातियों के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान ही कम हो गए। अगले 20 वर्षों के दौरान पृथ्वी से लगभग 500 जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो जायेंगी, जबकि पिछली पूरी शताब्दी के दौरान इतनी प्रजातियाँ विलुप्त हुई थीं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सब मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण हो रहा है, अपने सामान्य दौर में इतनी प्रजातियों को विलुप्त होने में लाखों वर्ष बीत जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार वर्तमान में लगभग दस लाख प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभाव से दुनिया की जैव विविधता दो-तिहाई ही रह जायेगी और एक-तिहाई विविधता विलुप्त हो चुकी होगी। यह अपने तरह का सबसे बृहत् और विस्तृत अध्ययन है, और इसमें कई ऐसे पैमाने को शामिल किया गया है, जिसे इस तरह के अध्ययन में अबतक अनदेखा किया जाता रहा है।
इसमें पिछले कुछ वर्षों में विलुप्तीकरण की दर, प्रजातियों के नए स्थान पर प्रसार की दर, जलवायु परिवर्तन के विभिन्न अनुमानों और अनेक वनस्पतियों और जन्तुओं पर अध्ययन को शामिल किया गया है। इस अध्ययन को कुछ महीनों पहले प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज के अंक में प्रकाशित किया गया था और इसे यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोलॉजी एंड ईवोल्युशनरी बायोलॉजी विभाग के क्रिस्चियन रोमन पलासिओस और जॉन जे वेंस ने किया था।
इस अध्ययन के लिए दुनिया के 581 स्थानों पर वनस्पतियों और जंतुओं की कुल 538 प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। ये सभी ऐसी प्रजातियाँ थीं, जिनका अध्ययन वैज्ञानिकों ने दस वर्ष या इससे भी पहले किया था। इसमें से 44 प्रतिशत प्रजातियाँ वर्तमान में ही एक या अनेक स्थानों पर विलुप्त हो चुकी हैं। इन सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के आकलन के लिए 19 पैमाने का सहारा लिया गया।
इस दृष्टि से यह जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रजातियों पर प्रभाव से सम्बंधित सबसे विस्तृत और सटीक आकलन है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो अगले 50 वर्षों में पृथ्वी से वनस्पतियों और जंतुओं की एक-तिहाई जैव-विविधता हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी।
इस अध्ययन में किसी स्थान के औसत वार्षिक तापमान में वृद्धि और गर्मियों के सर्वाधिक तापमान को भी शामिल किया गया था। वैज्ञानिकों के अनुसार औसत वार्षिक तापमान की तुलना में गर्मियों का सर्वाधिक तापमान प्रजातियों के विलुप्तीकरण के सन्दर्भ में अधिक प्रभावी है।
वैज्ञानिकों के अनुसार यदि गर्मी का सर्वाधिक तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तब विलुप्तीकरण की दर 50 प्रतिशत बढ़ती है, और यदि यह तापमान सामान्य से 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तो स्थानीय विलुप्तीकरण की दर 95 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। अध्ययन का निष्कर्ष यह है कि यदि दुनिया जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पेरिस समझौते का पालन भी करें और इस शताब्दी के अंत तक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़ने दे तब भी वर्ष 2070 तक 20 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी होंगीं, पर पेरिस समझौते से दुनिया अभी कोसों दूर है।
प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर दुनियाभर में एक जैसी नहीं है, समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विलुप्तीकरण 2 से 4 गुना अधिक तेजी से हो रहा है।
वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ़ क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए तब दुनिया के सर्वाधिक जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में इस शताब्दी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो जायेंगी।
यदि पेरिस समझौते का पालन कर भी लिए जाता है, तब भी 25 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों पर विलुप्तीकरण का खतरा है। इस शोधपत्र के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ़ ईस्ट एंग्लिया और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड के वैज्ञानिकों ने विश्व के सर्वाधिक जैव-विविधता वाले 35 क्षेत्रों में 80000 से अधिक वनस्पतियों और जंतुओं का विस्तृत अध्ययन किया है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1970 के बाद से अब तक रीढ़धारी जंतुओं की संख्या में 60 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आ गयी है। इसमें स्तनपायी, पक्षी, मछलियाँ और सरीसृप शामिल हैं। इस रिपोर्ट को विश्व के 53 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। माइक बैरेट के अनुसार सभी जंतु/जानवर एक-दूसरे पर आश्रित हैं, इसीलिए सभी प्रजातियाँ एक दूसरे के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जीवन-रेखा का काम करती हैं।
यह सब मनुष्य के अस्तित्व को भी प्रभावित कर रहे हैं क्यों कि हमारी जीवन-रेखा नष्ट होने के कगार पर है। साफ़ पानी में पनपने वाले जीव सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं और इनमें से रीढ़धारी जंतुओं की संख्या में 83 प्रतिशत तक गिरावट आ गई है। संख्या में सबसे अधिक कमी दक्षिणी और केन्द्रीय अमेरिका में दर्ज की गयी है।
पृथ्वी पर जीवन के विकास के बाद से स्तनपायी जानवरों की 83 प्रतिशत प्रजातियाँ और वनस्पतियों की लगभग आधी प्रजातियाँ हमेशा के लिए विलुप्त हो चुकी हैं। अभी जो जैव विविधता है, उसका दोहन यदि पूरी तरीके से रोक भी दिया जाए तब भी जैव-विविधता को सामान्य होने में लगभग 70 लाख वर्षों का समय लगेगा।
जैव-विविधता का मनुष्य किस तरह और गति से दोहन कर रहा है, इसका आकलन भी इस रिपोर्ट में उपलब्ध है। चार वर्ष पहले इतने ही वैज्ञानिकों ने सम्मिलित तौर पर जब रिपोर्ट तैयार की थी तब रीढ़धारी प्रजातियों की संख्या में 52 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी थी, पर चार साल के भीतर ही नई रिपोर्ट बनाने तक यह कमी 60 प्रतिशत तक पहुँच गयी।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर की सूची में कुल 93577 प्रजातियाँ हैं, इनमें से 26197 पर विलुप्तीकरण का खतरा है और 872 विलुप्त हो चुकी हैं। अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है।