मैं 50 हजार में खरीदी गई और बच्चा जनने के बाद लौटा दी गई

Update: 2017-09-29 09:18 GMT

किसी तरह एक दिन अपने बेटे को लेकर वहां से भाग गई। इस बार वापस मायके आई, सौतेली मां ने फिर वापस जाने के लिए दबाव बनाया, धमकाया, मगर मैं टस से मस नहीं हुई...

'हाउस वाइफ' कॉलम में पढ़िए इस बार गाजियाबाद के खोड़ा कॉलोनी की रानी की दास्तान

रानी नाम है मेरा। कहां से शुरू करूं, नहीं समझ आ रहा। कभी लगता है क्या कहूं इस जिंदगी के बारे में, लिखूं तो उपन्यास बन जाएगा। फिर कभी सोचती हूं क्या हर औरत मेरी तरह ही जिंदगी को ढो रही होगी, क्योंकि मैं जी नहीं रही, नहीं कहूंगी मैं इसे जीना।

मेरा मायका उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के बेगम पुल के पास है, बचपन वहीं बीता। बहुत छोटी सी थी तो मां मर गई थी, उसकी शक्ल भी याद नहीं है मुझे। 5—6 साल की रही होउंगी पिता ने दूसरी शादी की, शुरू में नई मां प्यार करती थीं, मगर बाद में जब दूसरे भाई—बहन हो गए तो उनका प्यार मेरे लिए कम हो गया। 10 साल की उम्र में स्कूल छुड़वा दिया। पांचवी में थी तब मैं, 3 छोटे भाई बहनों को संभालती थी। भाई—बहन स्कूल जाते तो सौतेली मां के साथ घर के कामों में जुट जाती। मां रसोई, झाड़ू—पोछा सारा काम मुझ पर छोड़ देती। 11 साल की उम्र तक पूरा घर संभालने लगी थी मैं।

पिता मामूली नौकरी करते थे तो घर का खर्च बमुश्किल निकल पाता था। नई मां को नये कपड़ों—गहनों का बहुत शौक था। इसी बात को लेकर पिता के साथ कई बार उनका झगड़ा होता। मेरी मां जोकि मर चुकी थी, उसके गहने वो अकसर पहना करतीं, पिता कहते कि उसके गहने तो उसकी बेटी के लिए छोड़ दे तो इस बात पर उनका झगड़ा हो जाता। कई बार तो नई मां उनसे बुरी तरह लड़ती कि इतना ही प्यार था अपनी पुरानी बीबी से तो उसकी औलाद और उसकी यादों के सहारे जिंदगी काट लेता, क्यों मेरी जिंदगी जहन्नुम बनाई। इतना ही प्यार था पुरानी बीबी से तो क्यों तीन—तीन बच्चे और पैदा कर लिए। पिता दब्बू रहे हमेशा उनके आगे, जिसका असर मेरी पूरी जिंदगी पर पड़ा।

इसी तनावपूर्ण माहौल में बढ़ रही थी मैं, बहनों की हालत भी मुझसे खास जुदा नहीं थी। घर के हालात तंग रहते। कहें कि बमुश्किल गुजारा चलता। मेरी छोटी दोनों बहनें स्कूल जाती थीं, मेरा भी मन करता, मां से कहती तो वो गालियों से नवाजतीं। छोटे भाई का दाखिला उन्होंने जिद करके अंग्रेजी स्कूल में करवा दिया था, जिसकी फीस पिता बमुश्किल भर पाते। मां का सपना था भाई पढ़—लिखकर बड़ा आदमी बने। उसे मां सबकुछ खास देतीं, खाने में भी अच्छी चीजें उसी को दी जाती। यूं कहें कि पिता की कमाई का 50 फीसदी हिस्सा तो उसी में खर्च हो जाता।

इन्हीं हालातों में जीते—जीते 15 साल की हो गई थी मैं। बहनें स्कूल जा रही थीं, भाई मां के लाड़ में बिगड़ रहा था, उसकी डिमांडें बढ़ रही थीं। स्कूल में रईसजादों के बच्चों के साथ बैठकर वो भी वैसी ही फरमाइशें करता था। छोटा होने के बाद भी हम तीनों बहनों पर हाथ उठाता, मां कहती तुम्हारा भाई ही तो है, मर तो नहींं गईं तुम लोग। एक बार तो उसने पलटा उठाकर छोटी बहन के माथे पर इतनी तेज मारा कि खून का फव्वारा साथ में छूटा, आंख जाते—जाते बची बेचारी की।

अब पिता को मेरी शादी की फिक्र सताने लगी थी। ऐसे में मां के एक जानने वाले ने एक रिश्ता बताया। मां ने उसकी इतनी तारीफ की और इस तरह बखान किया कि जैसे मैं वहां जाकर रानियों की तरह राज करूंगी। पिता ने कुछ शंका जताई तो मां लड़ पड़ी उनसे कि तुम्हें तो बेटी की फिक्र ही नहीं है। ये बला टले तो दो और हैं, उनकी भी शादी करनी है। फिर लड़के वाले शादी में हमारी मदद भी करने को तैयार हैं, दान—दहेज भी नहीं लेंगे। लड़के की दुकान है आदि, आदि।

बिना लड़के को देखे मेरी शादी पक्की कर दी गई, पिता ने भी नहीं देखा, मां जरूर अपने रिश्तेदार के साथ जाकर घर देख आई। पिता ने भी मेरा होने वाला ससुराल देखने की इच्छा जताई तो सौतेली मां ने पिता को ताना मारा कि मैं मां नहीं हूं उसकी इसलिए तुम्हें शक है कि अच्छे से रिश्ता नहीं तय करूंगी। फिर पिता ने कलेश के डर से कुछ नहीं कहा। और इस तरह 2 महीने के बाद मेरी शादी ग़ाज़ियाबाद में कर दी गई। सामान के नाम पर सौतेली मां ने मुझे मेरी मां की अंतिम निशानियों में से तक कुछ नहीं दिया।

शादी के दिन दूल्हे को देखकर मेरे पिता के पैरों तले की जमीन खिसक गई, क्योंकि वो लगभग उन्हीं की उम्र का था और मैं मात्र 15 साल की। लेकिन अभी तो मेरे और इम्तहान बाकी थे। ससुराल जाकर पता चला कि वो पहले से शादीशुदा था। पहली शादी से उसकी 3 लड़कियां हैं और लड़का पैदा करने के लिए उन्होंने दूसरी शादी की है। पहली बीबी से उनकी मेरे ही बराबर बेटी थी।

मायके में जो सहा, उसकी इंतहा थी ससुराल में। घर में सास—ससुर, पति की पहली बीबी उसकी तीन लड़कियां थीं। हां, घर जरूर खाता—पीता था। अब सबके लिए मैं मुफ्त की नौकरानी थी, जो एक आवाज में सबके आगे हाजिर हो जाए। पति की पहली पत्नी और बेटियां तो मुझे फूटी आंख नहीं देखना चाहती थीं, कहती थीं 'डायन है तू' सास भी हमेशा ऐ लौंडिया करके बात करती। पति ने दिन में किसी के सामने मुझसे कभी बात नहीं की, हां रात को मेरे जिस्म को नोचने वो जरूर आ जाता, फिर उसमें मेरी सहमति की जरूरत तो उसे थी ही नहीं, क्योंकि पति जो था मेरा। बाद में ससुराल में ही मुझे पता चला कि मेरी सौतेली मां ने मेरा सौदा तय किया था, इसीलिए वो पिता को मेरे रिश्ते के बीच में नहीं आने दे रही थींं।

शादी के 5 महीने बाद मैं पेट से थी। गर्भवती होने के बाद सास का रुख मेरे प्रति जरूर कुछ बदल गया था। हां, धमकाती जरूर थीं कि अगर छोरा पैदा नहीं किया तो उसी वक्त इस घर से निकल जाना। छोरा पैदा करने के लिए ही तेरी सौतेली मां को हमने 50 हजार रुपए दिए हैं।

खैर, मैंने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। मगर मुझे क्या पता इसके बाद मेरे दुर्दिनों की और भी इंतहा होने वाली है। बेटे को तो उन्होंने अपनाया, मगर उसके छह महीने का होने के बाद मेरे प्रति सबके व्यवहार में और भी कटुता बढ़ती जा रही थी। अब वो लोग सिर्फ मेरे बेटे को अपने पास रखना चाहते थे, क्योंकि वो उनका खून था, खानदान का वारिस था।

मुझसे मेरा बेटा 6 महीने के बाद अलग कर दिया गया। मैं दिनभर नौकरानियों की तरह घर के कामों में खटी रहती। पति ने भी मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी थी। सास ने बेटा उठाकर मेरी सौत की गोदी में डाल दिया था, वही उसका ख्याल रखती थी। मुझे बेटे को अपने पास लेने भी नहीं दिया जाता।

एक दिन जब मैंने काफी विरोध किया तो सबने मिलकर मुझे बहुत मारा और घर से निकाल दिया। कहां जाती मैं। मायके जाना नहीं चाहती थी, क्योंकि वही मेरी इस हालत के जिम्मेदार थे। हां, पिता की याद कभी—कभार जरूर आती थी। फरीदाबाद में ही मौसी रहती थीं, किसी तरह उनके पास पहुंची, उन्होंने कुछ दिन अपने पास रखा। फिर यही समझाया कि तेरे दिन तो उसी घर में कटने हैं, रानी बनकर या फिर नौकरानी बनकर।

वो अपने साथ मुझे वापस ससुराल लेकर गईं। सास और पति ने इस शर्त पर दोबारा वहां रहने की अनुमति दी कि मैं बेटे से कोई लगाव—मतलब नहीं रखूंगी, मगर मुझे ये मंजूर नहीं था।

किसी तरह एक दिन अपने बेटे को लेकर वहां से भाग गई। इस बार वापस मायके आई, सौतेली मां ने फिर वापस जाने के लिए दबाव बनाया, धमकाया, मगर मैं टस से मस नहीं हुई। बहुत समझौते कर चुकी थी जिंदगी में। ससुराल वाले लगातार आए, पुलिस की धमकी भी दी मगर मैंने फैसला कर लिया था कि मैं अपने बेटे को किसी भी कीमत पर वापस नहीं दूंगी।

2 महीने मायके में रहने के बाद मैंने अकेले रहने का फैसला कर लिया, अपने बेटे के साथ। बिना किसी को बताए मैं फरीदाबाद के ही झुग्गी—झोपड़ी इलाके में जानने वाली एक दीदी के पास आ गई। कुछ दिन उनके साथ रही, फिर उन्होंने कुछ घरों में मुझे काम दिलवाया। अब मैं इतना कमा लेती थी कि बेटे और अपना पेट भर सकूं।

आज मैं नोएडा की एक फैक्टरी में धागा काटने का काम करती हूं, महीने का ओवरटाइम मिलाकर 8—10 हजार की कमाई हो जाती है। बेटा छठी क्लास में पढ़ता है, खुश हैं हम दोनों मां बेटे अपनी जिंदगी में। मगर कभी—कभी वो अपने बाप के बारे में जरूर पूछता है, सोचती हूं उसे यह तब बताउंगी जब वो समझने लायक हो जाएगा। हां, समाज की गंदी निगाहों को रोज जरूर झेलती हूं, जो एक अकेली औरत को सर्वसुलभ समझ लेते हैं। मेरी जिंदगी में आई वो दीदी मेरी मसीहा हैं, वही आज भी मेरा संबल बनकर खड़ी हो जाती हैं समाज के आगे यह कहकर कि मैं उनकी छोटी बहन हूं।

आज मैं चाहती हूं मेरा बेटा पढ़—लिखकर कुछ बने न बने, औरतों की इज्जत करना तो सीखे ही, ताकि उसकी जिंदगी में आने वाली औरत को वो न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा है और झेल रही हूं। अभी मैं 27 साल हूं, मगर जिंदगी के थपेड़ों को सहते हुए लगता है कि जैसे अब जिंदगी में कुछ नहीं बचा है।  (फोटो प्रतीकात्मक)

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