मोदी को अधिकारियों-मंत्रियों से रिकॉर्डिंग का खतरा तो नहीं?

Update: 2018-06-27 13:47 GMT

राजनीतिक अविश्वास से घिरते माहौल में खतरा तो इस बात का है कि मोदी के अन्तरंग और विश्वस्त कथनों को कोई ‘अपना’ ही रिकॉर्ड न कर फायदा उठा ले, और हौवा प्रचारित किया जा रहा हो प्रधानमंत्री सुरक्षा का, ताकि हर आम ही नहीं, ख़ास से खास भी अपनी तलाशी होने पर चूं करने लायक न रह जाए...

वीएन राय, पूर्व आईपीएस और सुरक्षा विशेषज्ञ

एमएचए यानी केन्द्रीय गृह मंत्रालय के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा को लेकर तमाम राज्यों को भेजे गए ताजातरीन निर्देशों को मीडिया में बाकायदा प्रचारित किया जा रहा है।

पहली नजर में चौंकाने वाला लगता है कि अब मोदी के मंत्री और अफसर भी एसपीजी के सुरक्षा फ़िल्टर से गुजरकर ही उनसे मिल सकेंगे। अन्यथा आजमाये ढर्रे पर चल रही प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत सुरक्षा कवायद में नया क्या हुआ है, विशेषज्ञों को यह देखना होगा।

यहाँ एमएचए का मतलब केंद्र सरकार की मुख्य इंटेलिजेंस एजेंसी आईबी यानी इंटेलिजेंस ब्यूरो से हुआ। माना जा सकता है कि आईबी ने अपने इस बेहद संवेदनशील एवं बाध्यकारी परामर्श को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के संज्ञान में भी जरूर लाया होगा।

शायद, इसकी तात्कालिकता को देखते हुए, एमएचए को भी भेजने से पहले। उनके लिए ऐसा करना ही स्वाभाविक होगा क्योंकि डोभाल स्वयं आईबी प्रमुख रह चुके हैं और फिलहाल मोदी के गिने-चुने विश्वासपात्रों में एक हैं।

हालाँकि, प्रधानमंत्री सुरक्षा के नजरिये से ऐसे निर्देश बेहद गोपनीय रखे जाने चाहिए थे, और सरकार के चाहे जिस स्तर पर भी इन्हें प्रचारित करने का निर्णय लिया गया हो उसके पास मोदी की सुरक्षा से इस हद तक प्रत्यक्ष समझौता करने की सुनियोजित वजह होनी चाहिए।

उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा के मुद्दे को सत्ता राजनीति के घेरे में न घसीट लिया गया हो। यानी, राजनीतिक अविश्वास से घिरते माहौल में खतरा तो इस बात का है कि मोदी के अन्तरंग और विश्वस्त कथनों को कोई ‘अपना’ ही रिकॉर्ड न कर फायदा उठा ले, और हौवा प्रचारित किया जा रहा हो प्रधानमंत्री सुरक्षा का, ताकि हर आम ही नहीं, ख़ास से खास भी अपनी तलाशी होने पर चूं करने लायक न रह जाए।

हाल में, नक्सल-दलित आतंकी गठजोड़ के माध्यम से मोदी को राजीव गाँधी का अंजाम देने वाली चिट्ठी बरामद करने के महाराष्ट्र पुलिस के दावों पर बेशक सवाल खड़े किये गए हैं।

गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री होते, उनकी सांप्रदायिक राजनीति को विश्वसनीयता देने के लिए, सुरक्षा के नाम पर फर्जी पुलिस मुठभेड़ों के आरोपों का अध्याय भी अभी तक बंद नहीं हुआ हो। यही नहीं, ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो मौजूदा ‘मोदी खतरे में’ प्रसंग को उसी श्रंखला की ही कड़ी मानना चाहेंगे।

दूसरी तरफ, स्वतंत्र भारत में महात्मा गाँधी, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और बेंत सिंह की हत्याओं के रूप में पर्याप्त उदाहरण हमारे सामने हैं कि खतरा किसी अहानिकर और अनपेक्षित लगते रूप में भी प्रकट हो सकता है। निःसंदेह, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा कोई भी व्यक्ति हर समय शारीरिक हमले के निशाने पर रहेगा ही, और एसपीजी (विशेष सुरक्षा दल) का काम ही है कि संभावित खतरों से प्रधानमंत्री को दूर रखे।

मंत्रियों और अफसरों से मोदी को सीधे खतरा न भी हो लेकिन उन्हें अनजाने में खतरे का माध्यम बनाया जाना नामुमकिन भी नहीं। हालाँकि, इस विषय के अधिक विस्तार में जाना उचित नहीं होगा लेकिन यह कहा जा सकता है कि सुरक्षाकर्मी को राजनीतिक और सुरक्षा जरूरतों को संतुलित करने रहना पड़ सकता है। बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी शुरुआत में सुरक्षा के प्रति पूरे बेपरवाह रहे थे जबकि नरसिंह राव जैसा सुरक्षा मानकों को मानने वाला कॉपी कैट प्रधानमंत्री शायद ही मिले।

तो भी, मोदी को शारीरिक हानि पहुँचाने को लेकर सरकारी इंटेलिजेंस और सुरक्षा एजेंसी परस्पर क्या जानकारी बाँट रही हैं और तदनुसार उनकी सुरक्षा के लिए क्या प्रोटोकॉल तय कर रही हैं, इसे सार्वजनिक करना पेशेवर नजरिये से आत्मघाती ही कहा जाएगा। यदि सचमुच खतरा है तो भविष्य में मोदी के रोड शो न करने की सूरत में भी राजनीतिक सफाई देने के लिए इतना कहना काफी होता कि ऐसा एसपीजी की सलाह पर हो रहा है। एसपीजी एक्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर, एसपीजी की सलाह सभी के लिए बाध्यकारी होगी।

क्या यहाँ कोई और पेंच है? मोदी खतरे में किनसे हैं? दरअसल, हर फासिस्ट तानाशाह के जीवन में एक दिन आता है जब उसकी छाया भी उसे भयभीत करने लगे तो आश्चर्य नहीं। इसी छब्बीस जून को मोदी ने 43 वर्ष पूर्व लगी इमरजेंसी को देश के लिए ‘काला दिन’ बताया था और अरुण जेटली ने इंदिरा की तुलना जर्मनी के फासिस्ट तानाशाह हिटलर से की थी।

लेकिन देश पर इमरजेंसी थोपने वाली इंदिरा गांधी को जब 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद अपने सुरक्षा घेरे से सिख कर्मियों को हटाये जाने का पता चला तो उन्होंने एक बहुधर्मी लोकतंत्र की भावना के अनुरूप उन्हें वापस बुला लिया। यह और बात है कि सुरक्षा के समुचित पूर्वोपाय न किये जाने से सुरक्षाकर्मियों के ही हाथों उनकी हत्या हो गयी।

नरेंद्र मोदी, बहुमत से चुने प्रधानमंत्री जरूर हैं, लेकिन उनकी कार्यशैली भारत की धार्मिक एवं जातिगत विविधता से कोसों दूर का सम्बन्ध रखने वालों के ही प्रतिनिधित्व की रही है। अब सुरक्षा के नाम पर वे अपनी पार्टी में पहले से सीमित लोकतंत्र को और संकुचित करने की ओर बढ़ रहे लगते हैं।

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