जनज्वार एक्सक्लूसिव : पत्रकार आशीष गुप्ता ने व्हाट्सएप जासूसी मामले को लेकर मुंबई पुलिस पर जाहिर किया संदेह
व्हाट्सएप जासूसी का शिकार हुए आशीष गुप्ता कहते हैं, मुझे संदेह है कि व्हाट्सएप जासूसी में मुंबई पुलिस का हाथ हो, क्योंकि भीमा कोरेगांव मामले में उसी ने गिरफ्तारियां कीं और कार्यकर्ताओं पर मुकदमे दर्ज किए, मेरे पास कोई पुख्ता सबूत नहीं हैं, पर अगर जासूसी के शिकार या पीड़ितों की सूची देखें तो यह बहुत स्पष्ट है...
जनज्वार, दिल्ली। भारत और दुनिया समेत सोशल मीडिया एप व्हाट्सएप द्वारा जासूसी करने का मामला सामने आया है। लगभग पूरी दुनिया में 1400 लोगों के ऊपर जासूसी करने का मामला सामने आया है, जिसमें से भारत में दो दर्जन लोगों की कथित तौर पर जासूसी की गई हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने कई पीड़ितों के नाम को सार्वजनिक भी किया था।
जासूसी के पीड़ित इन 90 फीसदी लोगों में वे शामिल हैं, जो किसी न किसी रूप में आदिवासी अस्मिता और उनके संगठित संघर्षों, हकों और मानवाधिकारों को लेकर सड़क से लेकर अदालतों में लड़ते-बोलते रहे हैं, मीडिया में उनके पक्ष में लिखते हैं। भारत में वाट्सअप जासूसी के शिकार लोगों में एक श्रेणी उनकी भी है, जो किसी न किसी रूप में माओवादी होने या माओवादी समर्थक होने के आरोप और भीमा कोरेगांव हिंसा में संलिप्त होने के आरोपियों के बचाव या पक्ष में खड़े होते हैं। इसमें दलित एक्टिविस्ट से लेकर पत्रकार, प्रोफेसर और वकील जैसे अलग-अलग क्षेत्रों के लोग शामिल हैं।
भारतीय बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की जासूसी व्हाट्सएप पर एक इजराइली एनएसओ समूह की कंपनी (पेगासस) कर रही थी। यह सॉफ्टवेयर एक मिस्ड कॉल से एक सेकंड में ही फोन में इंस्टाल हो जाता है और फोन में सारी जानकारियों को हासिल कर सकता था। भारत में जिन लोगों की जासूसी पेगासस से कराई गई है उनमें अधिकतर ऐसे कार्यकर्ता है जो भीमा कोरेगांव से किसी तरह जुड़े रहे हैं या मानव अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं। इनमें अधिकतर उन लोगों को भी निशाना बनाया गया जो माओवादियों के नाम पर जेल में बंद लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं या विरोध करते रहे हैं।
जनज्वार से बातचीत में पत्रकार आशीष गुप्ता ने बताया कि व्हाट्सएप वाले मामले में कुछ विशेष लोगों को निशाना बनाया गया है। इसमें अधिकतर उन लोगों को निशाना बनाया गया है, जो भीमा कोरेगांव मामले से जुड़े हुए थे। वे कहते हैं, आप अगर संतोष भारतीय, शुभ्रांशु चौधरी और एकाध को छोड़ दें तो लगभग सभी लोग या तो भीमा कोरेगांव की गिरफ्तारियों का खुला विरोध करते हैं, लिखते-बोलते हैं या फिर जेल में बंद कैदियों के मानव अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं।