आॅल इण्डिया रेडियो दिल्ली में भाषाई सेवाएं हुईं बंद, पसरा है मातमी सन्नाटा

Update: 2017-06-24 08:29 GMT

ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में एक युग का अंत होने जा रहा है। विविधता की संस्कृति की पहचान रहे इस रेडियो संस्थान में तमाम भाषाई लोग कुछ दिनों बाद बेरोजगार होने जा रहे हैं, जिसमें न्यूज रीडर से लेकर चपरासी तक शामिल हैं...

ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली से एक रिपोर्ट

आॅल इण्डिया रेडियो दिल्ली के भाषाई विभाग में सन्नाटा पसरा हुआ है और लगता है जैसे कोई मर गया है।

अभी कुछ दिन पहले तक यहां से 13भाषाओं में रोजाना कई मर्तबा समाचार प्रसारित होते थे। लोग स्टूडियों के अंदर जाते थे और बाहर आते थे, आपस में टकराते थे। अब रह गए हैं सिर्फ चार बुलेटिन। ये भी जल्द कर दिए जाएंगे खामोश।

20-20 साल से साथ काम करने वाले साथी अपने अपने फोन नंबर साझा कर रहे है। ‘अभी कुछ दिन तक इसे भी चालू रखूंगा’ फोन दिखाते हुए वादा कर रहे हैं। किसी को कुछ नहीं पता दोबारा कब मुलाकात होगी। किसी का बुलेटिन गुवाहाटी से प्रसारित होने लगा है, किसी का ट्रायल रन जम्मु से शुरू हो गया है।

चपरासी से लेकर कैंटीन वाले भईया की आखें नम है। भाषाओं का जाना रेडियों में उनकी अपनी जरूरत के खत्म होने का भी तो समाचार है। आज नहीं तो कल उन्हें भी जाना होगा। अवसाद ने सबको एक कर दिया है। कोई उपर और कोई नीचे नहीं रह गया है। हर कोई एक दूसरे को रोके रखना चाहता है। ढेर सारी बातें करना चाहता है। अभी अभी इंचार्ज सर को याद आया है कि चाय वाली शांति के पति की तबियत खराब थी। ‘कैसे है वो?’, कह कर खाली ग्लास उसे थमाया है। न जाने जाते वक्त ही क्यों हमेशा याद आती है कहने वाली जरूरी बात?

लोगों ने वाट्सऐप ग्रुप बना लिए हैं। जोक साझा कर रहे है। हंसने और हसांने की कोशिश कर रहे हैं। मिस करने का और फिर मिलने के वादे कर रहे हैं लेकिन जानते सब हैं कि ये बात बिलकुल वैसी ही है जैसी कि मरने वाले को आखरी बार कहना कि डाॅकटर कह रहे हैं कि सब ठीक हो जाएगा। सब को पता है कि वे एक इतिहास के आखरी साक्षी हैं जिनकी गवाही को अदालत ने सुनने से इंकार कर दिया है।

वे साक्षी हैं इस बात के कि पहले भारत एक था। कौमी एकता को तोड़ दिया गया है और लोगों को पुराने वक्त की तरह अपने-अपने राज्यों में वापस ढकेल दिया गया है। नया भारत खण्डित भारत है। खण्ड खण्ड भारत है। अखण्ड भारत एक झूठी बिसात है जहां कुर्बान होना ही प्यादों की औकात है।

अब कोई नहीं जान पाएगा कि जम्मु में क्या चल रहा है और गुजरात के क्या हाल हैं। अब कैसे पता चलेगा कि किस भाषा में शर्मा को खर्मा कहते हैं लेकिन लिखते शर्मा ही है।

एक साल पहले रोडियों में नौकरी लगते ही सुबोध की शादी हो गई थी अब वह फिर बेरोजगार बना दिया गया है। देश में भाषाओं को कोई मोल नहीं है। भाषा का कवि वह ज़लील आदमी है जिसे रोटी दिखाकर राजकवि बना दिया गया है। उसके अपने बच्चे उस पर हंसते है, उसके कमरे में दाखिल होते ही उठ कर चल देते है। रेडियों के बाहर अरुणाचली को कोई नहीं पहचानता। भाषा के आने को कोई काम ही नहीं मानता।

कहते हैं अंग्रेज जो थे वे भाषा के कातिल थे। अंग्रेजी के अलावा किसी और भाषा को वे भाषा ही नहीं मानते थे। आजादी की लड़ाई में एक सवाल भाषा का भी था। वैसे ही जैसे आज है। दिल्ली से तमाम भाषाओं को फिर से हाशिए पर ढकेल दिया गया है। केन्द्र को खोखला कर दिया है। उन्हे मन की बात कहनी आती है लेकिन किसी के दिल की आवाज को सुनना नहीं जानते। लेकिन क्या वे इनता भी नहीं जानते कि जो लोग सुन नहीं सकते वे धीरे धीरे गूंगे भी हो जाते है।

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