नौशाद अहमद ने बताई कासगंज दंगों की असलियत

Update: 2018-01-28 13:26 GMT

पुलिस बिल्कुल सामने से फायरिंग कर रही थी। इसी फायरिंग में एक गोली नौशाद के दाएं पैर में जाँघों को पार करते हुए निकल गई। नौशाद इस वक़्त जेएनएमसी, अलीगढ़ में भर्ती हैं...

मोहम्मद आरिफ राजीव यादव की रिपोर्ट

26 जनवरी को यूपी के कासगंज में हुए साम्प्रदायिक दंगे के शिकार नौशाद अहमद से मैंने मुलाकात की। नौशाद की उम्र लगभग 32 साल है। नौशाद मजदूरी करने वाले गरीब परिवार से आते हैं। आमतौर पर जिस दिन काम मिल जाता है 200- 400 रुपये तक कमा लेते हैं। कई बार काम नहीं मिलने पर दिन ऐसे ही बेकार जाता है।

नौशाद के तीन बेटियां हैं जिनमें से एक पढने जाती है और दो अभी छोटी हैं। नौशाद अहमद 26 जनवरी के दिन अपने घर से बाज़ार की दुकान जहां वे काम करते हैं गए थे। नौशाद बताते हैं कि सुबह तकरीबन 9 बजे एक बड़ा जुलूस भगवा झंडे के साथ जय श्रीराम के नारे लगते हुए शहर में घूम रहा था। उनका कहना है- ”इस तरह का जुलूस हमने पहले कभी 26 जनवरी को नहीं देखा था।”

नौशाद जब दुकान पर पहुंचे तो दुकान बंद थी, इसलिए वे वापस अपने घर की तरफ लौटने लगे। वे अपने घर की तरफ लौट ही रहे थे उन्‍हें रास्ते में पुलिस दिखाई दी। वे अपने घर की तरफ बढ़ रहे थे लेकिन तभी पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी।

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नौशाद के मुताबिक़ पुलिस बिल्कुल सामने से फायरिंग कर रही थी। इसी फायरिंग में एक गोली उनके दाएं पैर में जाँघों को पार करते हुए निकल गई। नौशाद इस वक़्त जेएनएमसी, अलीगढ़ में भर्ती हैं।

नौशाद के भाई दिलशाद बताते हैं कि हमीद चौक के पास मुसलमानों ने ध्वजारोहण का प्रोग्राम रखा था, लेकिन सुबह तकरीबन 9 बजे के आसपास भगवा झंडे के साथ 70-75 बाइक पर लोग आए और भगवा झंडे लहराने लगे और साथ में पाकिस्तान मुर्दाबाद, वन्दे मातरम, गाने के लिए जबरदस्ती करने लगे।

इस पर वहां मौजूद लोगों ने थाने पर इसकी सूचना दी, लेकिन उन लोगों ने मुसलमानों को गालियां देनी शुरू कर दीं और मारपीट पर उतारू हो गए। जब वे लोग मारपीट करने लगे तो लोगों ने उन्हें खदेड़ लिया। इस पर वे लोग अपनी गाड़ियां छोड़ कर भागने लगे। थोड़ी देर में वहां पुलिस भी आ गई।

इसके लगभग एक घंटे बाद उन लोगों ने वापस और अधिक संख्या में इकट्ठा होकर वापस के घरों के पास नारेबाजी और हमला शुरू कर दिया। इसके बाद कुछ लोगों ने मुसलमानों के घरों में भी घुसने की कोशिश की और पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

इसके बाद जब स्थिति बिगड़ने लगी तो पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी और इतना होने के बाद भी धारा 144 या अलर्ट जारी नहीं किया। नौशाद कहते हैं कि इसमें एटा के सांसद राजवीर सिंह उर्फ़ राजू ने पुलिस को न सिर्फ इस्तेमाल किया बल्कि उन्हीं के संरक्षण में सांप्रदायिक हिंसा भी शुरू हुई।

नौशाद के मुताबिक कासगंज में 1990 के बाद से कभी कोई साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हुई। इस बार घटना का कोई तात्कालिक कारण नहीं था, बल्कि जान-बूझ कर हिंसा फैलाई गई। इसमें पुलिस प्रशासन की भूमिका संदिग्ध है।

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आज की घटनाएं इन आरोपों की पुष्टि करती हैं कि पुलिस ने समय रहते कार्यवाही नहीं की, इसके उलट उन्हीं लोगों का साथ दिया जो हिंसा के आरोपी हैं। उनका कहना है कि सच अब निष्पक्ष जांच से ही सामने आएगा, लेकिन इतना तो तय है कि पुलिस प्रशासन ने जान-बूझ कर सांप्रदायिक तत्वों को खुलेआम हिंसा करने की ढील दी।

जब कासगंज दंगा हुआ तब मोहम्मद अकरम अपनी कार से अलीगढ़ जा रहे थे, क्योंकि उनकी पत्नी की डिलीवरी होने वाली थी और उन्हें दर्द से गुजर रही पत्नी को लेकर अस्पताल पहुंचना था। जैसे ही वह कासगंज के नंदरी गेट तक पहुंचे, सैकड़ों साम्प्रदायिक तत्वों ने उसे घेर लिया, और उनकी कार पर पत्थरों से हमला किया गया। इस दौरान अकरम को न सिर्फ गोली मारी गई बल्कि एक आंख भी फोड़ दी गई। फिलहाल गंभीर रूप से घायल अकरम को दिल्ली इलाज के लिए रेफर कर दिया गया है।

(मोहम्मद आरिफ यूपी में सक्रिय संगठन रिहाई मंच के नेता हैं।)