स्वयंसेवक की किस्सागोई में बीजेपी का भविष्य अंधकारमय तो नहीं : पुण्य प्रसून
स्वयंसेवकों का जायका कैसे बदल रहा है और शायद जायके बदलने की टिप्पणी ने ही वरिष्ठ स्वयंसेवक को अंदर से हिला दिया और वह एकाएक बोल पड़े कल तक फैजाबाद में अयोध्या थी, अब अयोध्या में फैजाबाद होगा....
वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी की एक वरिष्ठ स्वयंसेवक से बातचीत के बाद लिखी गई तल्ख टिप्पणी
कह नहीं सकता देश बीस बरस पीछे चली गयी बीजेपी। क्यों? क्योंकि समझ दिशाहीन है। झटके में चाय की चुस्कियों के बीच संघ को बरसों बरस से नाप रहे और खुद स्वयंसेवक से सियासी चालों में माहिर तो नहीं कहें, लेकिन समझदार शख्स की जुबां से जब ये बात निकली तो मैं भी चौंक गया।
दीपावली का दिन और दोपहर में ग्रीन टी। बात तो इसी से शुरू हुई कि स्वयंसेवकों को भी ग्रीन टी पंसद आती है, जबकि दिल्ली का झंडेवालान हो या नागपुर का रेशमबाग कुल्हड में चाय तो दूध के साथ उबाल कर कड़क ही मिलती है। फिर जायका कैसे बदल रहा है और शायद जायके बदलने की टिप्पणी ने ही वरिष्ठ स्वयंसेवक को अंदर से हिला दिया और वह एकाएक बोल पड़े कल तक फैजाबाद में अयोध्या थी। अब अयोध्या में फैजाबाद होगा।
पता नहीं योगी जी फैजाबाद को कितना जानते हैं। दरअसल मुगलिया सल्तनत के वक्त से ही फैजाबाद नवाबों के लिये बाजार के तौर पर स्थापित किया गया और बीते ढाई सौ बरस से फैजाबाद में अयोध्या गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक बना रहा। लेकिन नया सवाल है कि फैजाबाद के भीतर अयोध्या की मौजूदगी अपनी संस्कृति-सम्यता को समेटे रही। अब अयोध्या में जब फैजाबाद होगा तो संस्कृतियों की विविधता को कैसे संभालेगा या बैलेंस होगा।
क्यों अयोध्या अगर फैजाबाद में न होता तो फिर मौजूदा वक्त में फैजाबाद की पहचान भी क्या होती । या कहे कौन पूछता फैजाबाद को।
ठीक कह रहे हैं आप, पर इसका एक मतलब तो यह भी देश के सामाजिक-आर्थिक हालात पर दौर करने की स्थिति में सत्ता तभी आती है जब वहां कोई ऐसा मुद्दा हो जिसके आसरे सियासत साधी जा सकती है।
कह सकते हैं।
कह नहीं सकते। बल्कि यूपी में ही घूम घूम कर देख लीजिये। चलिये बनारस ही देख लीजिये। वहां रहने वाले लोगों के हालात बेहतर हों, क्या इस पर कभी किसी ने गौर किया। जबकि इस सच को हर कोई जानता है कि संकटमोचन मंदिर के बाहर फूल-माला, रुद्राक्ष तक की दुकान को मुस्लिम चलाते हैं। यही हाल अयोध्या का भी है।
पर नाम बदलने से अंतर क्या होगा। जो है वह रहेगा सिर्फ नाम ही तो बदला है।
मान्यवर, आप चाय भी पीजिये, आपने ऐसा गंभीर मुद्दा छेड़ दिया है कि कई कप चाय हम पी जायें तो भी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे।
नतीजा ना सही, लेकिन आप खुद क्या सोचते हैं ये तो आपको कहना ही चाहिये।
कह तो रहा है, क्योंकि मै संघ के विस्तार की जगह संघ को सिमटते हुये देख रहा है और मेरी चिन्ता यही है कि रहने वाले लोग ही अगर दशहत में रहेंगे तो कल कोई दूसरी सत्ता होगी तो वह हमें डरायेगी। फिर इसी तरह सियासत तो बांट कर चल पडेगी, लेकिन संघ की नींव बांटने वाली तो कभी नहीं रही।
तो क्या आप योगी जी को दोषी मानते हैं।
मैं योगी या मोदी की बात नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ हालातों को जिक्र कर आपका ध्यान उस दिशा में ले जाना चाह रहा हूं, जहां आप ये समझ पायें कि जब देश को कोई दृष्टि नहीं होगी तो उसके परिणाम ऐसे ही निकलेंगे, जैसे आज निकल रहे हैं।
तो क्या मौजूदा वक्त अतीत के फैसलों का परिणाम है।
अतीत मत कहिये... अतीत से लगता है जैसे हम इतिहास के पन्नों को खंगाल रहे हैं।जरा समझने की कोशिश कीजिए। आडवाणी की रथयात्रा से क्या निकला।
मुझे तो लगता है रथयात्रा ने बीजेपी को राजनीतिक तौर पर स्थापित कर दिया और उसके बाद संघ के स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन गये। वाजपेयी ने राजनीति को इस तरह मथा कि अमरजेंसी के बाद जो जनता पार्टी आधे दर्जन राजनीतिक दलों से निकले नेताओं को न जोड़ सकी, वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी दो दर्जन से ज्यादा दलों को साथ लेकर काग्रेस का विकल्प बनने लगी।
हां, कुछ गलत नहीं कहा आपने। सही कह रहे है लेकिन इसी लकीर को हमारी दृष्टि से भी समझें कि रथयात्रा संघ की नहीं राजनीति की जरूरत थी। संघ तो धर्म के नाम पर समाज को बांटना ही नहीं चाहता था। फिर समाज बंटा। वोट बंटे और हुआ क्या। 1992 के बाद चुनाव में बीजेपी को कहा कहा सत्ता मिल गई। 1996 में सत्ता मिली भी तो सिर्फ 13 दिन के लिये और 1998 में भी लड़खड़ा रही थी। वो तो करगिल ने राहत दी, पर ध्यान दीजिये रथयात्रा बीजेपी को पीछे ले गई। वाजपेयी जब सत्ता के बाहर थे और बीजेपी को सत्ता में लाने के लिये कार्य कर रहे थे तब उनके बोल और सत्ता चलाते समय उनके बोल अलग अलग क्यों हो गये। आपने ये कभी सोचा।
हां, वाजपेयी सत्ता बरकरार रखना चाहते थे तो संघ के एजेंडे को उन्होंने सत्ता के लिये त्याग दिया।
वाह ... तब तो नरेन्द्र मोदी के पास तो पांच बरस के लिये बहुमत के साथ सत्ता है। फिर उन्होंने संघ के उन्हीं एजेंडों पर आंख क्यों मूंद ली, जिन मुद्दों को आप संघ का एजेंडा कह रहे हैं।
ये सवाल तो है, लेकिन मोदी के दौर में सत्ता समीकरण उन्हें दूसरी वजहों से इजाजत नहीं देते हैं कि वह संघ के एजेंडे को लागू कराने में लग जाये।
तब तो हर काल में आप सत्ता की वजहों को ही परखेंगे और फिर एजेंडा क्या मायना रखता है। वैसे ये आपके लिये एजेंडा होगा, पर हमारे लिये जनमानस से जुड़ा मुद्दा होता है और वोटर भी जनमानस ही होता है।
फिर संघ और सत्ता में अंतर क्या है। दोनों ही जनमानस को ध्यान में रखते हैं।
देखिये आप स्थिति को उलझाइये मत। अपने मत पर स्पष्ट रहिये, क्योंकि बात ये हो रही है कि पूर्व की परिस्थितियों ने ही मौजूदा वक्त को परिणाम के कटघरे में ला खडा कर दिया है और इसे कौन कैसे संभालेगा ये सबसे बडा सवाल बनता जा रहा है।
बातचीत के बीच में ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कालेज के प्रिंसिपल आ गये तो उन्हें भी विषय दिलचस्प लगने लगा और झटके में ये कहते हुये बीच में कूद पडे कि कुछ बात डीयू और जेएनयू की भी करनी चाहिये।
क्यों? झटके में हम दोनों ही बोल पड़े?
विश्लेषण आप लोग कीजिये, लेकिन मेरी बातों पर गौर कीजिये। जेएनयू और डीयू दोनों में मौजूदा सत्ता ने अपनी विचारधारा के लिहाज से वाइस चांसलर नियुक्त किया। जेएनयू के वाइस चांसलर ने तो जेएनयू का ट्रासंफारमेशन बीजेपी के अनुकुल कर दिया। पर डीयू के वाइस चांसलर ने कुछ भी नहीं किया और डीयू का आलम तो ये है कि बीते तीन बरस से सबकुछ जस का तस यानी स्टैंडसिट्ल है। यहां तक की कोई नियुक्ति नहीं। केन्द्र से आया रुपया भी लौटा देते हैं। यानी एक तरफ जो चाहते थे कि वाइस चांसलर त्यागी जी सत्तानुकुल कुछ निर्णय लें, वह भी उन्होंने नहीं लिया।
वजह?
सवाल वजह का नहीं। आप लोग जिन बातों को कह रहे हैं कि कैसे धीरे धीरे हालात और खराब हो रहे हैं, मैं उसे माइक्रो लेवल पर बताना चाह रहा हूं कि डीयू इतना बड़ा है और उसमें विचारों का समावेश शिक्षकों के स्तर पर इतना व्यापक है कि सत्ता के करीबियों के अंतरविरोध ही किसी भी निर्णय पर आपस में ज्यादा तीखे स्तर पर टकराते हैं। यानी आपकी बहस उसी दिशा में जा रही है कि सत्ता के अंतर्विरोध कोई काम होने नहीं देते और होते हैं तो वह सत्ता के शीर्ष का निर्णय होता है। उसी निर्णय के अक्स तले सत्ता बरकरार रहती है या फिर चली जाती है और उसी मुताबिक उससे जुडे सामाजिक राजनीतिक संगठनों का विश्लेषण होता है।
नहीं मेरा ये कहना नहीं है। मैं बताना चाह रहा हूं कि वाजपेयी ने अपने सत्ता काल में बीजेपी को कांग्रेस की तर्ज पर एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर गढ़ा। जहां कांग्रेस की जगह बीजेपी लेने को तैयार हो रही थी। किसी भी राजनीतिक दल को तब बीजेपी के साथ आने में परहेज नहीं था। ये समझे की हर नेता वाजपेयी के साथ खडा नजर आता था। याद कीजिये ये हालात देश को दो पार्टी की दिशा में ले जा रहे थे। यानी एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ बीजेपी।
पर अड़ंगा तो संघ ने ही डाला।
देखिये कुछ हालातों को समझें। संघ का मतलब सिर्फ सरसंघचालक नहीं होता। जैसे बीजेपी का मतलब सिर्फ बीजेपी का अध्यक्ष नहीं होता। पर धीरे धीरे नेतृत्व को ही पार्टी या संगठन मान लिया गया तो उसके परिणाम तो सामने आयेंगे ही। मान लीजिये वाजपेयी के दौर में संघ नेतृत्व की तरफ से कोई गलती हुई, तो क्या उसे बाद में संघ ने सुधारा नहीं। पिछले दिने सरसंघचालक मोहन भागवत ने तो गुरु गोलवरकर तक की थ्योरी को उस वक्त की जरुरत बता दिया।
तो आप ये कह रहे हैं कि मोहन भागवत ने संघ के कंधे पर पडे पुराने बस्ते को उतार दिया, जिससे बिना बैग एंड बैगेज वह किसी भी रास्ते बिना जवाब दिये जा सकता है।
आप ऐसा भी सोच सकते हैं, लेकिन जो बात डीयू-जेएनयू के संदर्भ से निकली उसे भी समझें। जेएनयू हमेशा से वाम धारा के साथ रहा, लेकिन उसके साथ रिसर्च विंग भी था। और अब राइट सोच है लेकिन रिसर्च गायब है। तो आजादी के नारों से जेएनयू को गढना या ढहना शुर हो गया। यानी थिकिंग प्रोसेस गायब है।
यही हालात तो राजनीति में भी है।
हां , अब आप पटरी पर लौटे। दरअसल नया संकट क्या है। थ्योरी बहुत सारी है लेकिन कोई रिसर्च नही है। जैसे वाजपेयी के दौर में कांग्रेस एक विचार के तौर पर स्थापित था तो उसे वाजपेयी ने खारिज नहीं किया, बल्कि उसके समानांतर बीजेपी की सत्ता को उसी से निकले एलीमेंट को जोड़ कर दिखा दिया। लेकिन अब योगी जो कर रहे हैं या मोदी जो कर रहे हैं उसका कोई ओर-छोर आप पकड नहीं पायेंगे।
यानी दोनों पूर्ण बहुमत के साथ ताकतवर तरीके से मौजूद हैं। दोनों चाहें तो क्या नहीं कर सकते, लेकिन वाजपेयी के दौर में जो फ्रिज एलीमेंट अलग थलग पड गये थे अब के दौर में वहीं फ्रिज एलीमेंट प्रभावी हो चले हैं। यानी बीजेपी 2019 के बाद कितनी पीछे जायेगी ये उसके अंतर्विरोध ही तय करेंगे। अब बीजेपी की पहचान फिर वही 1990 वाली हो चली है।
दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी इस हालत को समझा है तो कांग्रेस की सोच लेफ्ट होते हुये वाजपेयी के बीजेपी वाले हालात से मेल खाने लगी है। ऐसे में कांग्रेस को पटरी पर आने के लिये अब ज्यादा मशक्कत करनी नहीं पडेगी, लेकिन बीजेपी को और अगर आगे जाना है तो उसके भीतर से कौन सा नया नेतृत्व निकलेगा अब सबका ध्यान इसी पर रहेगा।
तो क्या इसके लिये मौजूदा सत्ता ही जिम्मेदार है।
देखिये सत्ता बड़ा ही वृहत शब्द है। आपको मानना होगा कि इसके लिये जिम्मेदार नेतृत्व ही होता है और नेतृत्व नरेन्द्र मोदी के हाथ में है। जो बीजेपी को कैसे नये तरीके से गढ रहे हैं या गढना चाह रहे हैं, ये समझने के लिये उनके निर्णयों या उनके पुराने करीबियों के जरिए समझा जा सकता है।
ये करीबी क्या गुजरात के हैं।
गुजरात तो नहीं कहूंगा लेकिन गुजरात के वक्त से हैं ये कहा जा सकता है। खास तौर से तब का वक्त जब गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी अमेरिका के ब्लैक लिस्ट में थे । पर एक शख्स उन्हें जापान ले जाता है और वही शख्स मोदी के निशाने पर आ जाता है।
तो पहले ग्रीन टी और बनवाता हूं, फिर बताउंगा...