तापमान वृद्धि ऐसे ही रही जारी तो दो दशकों में अधिकतर सागर तटीय क्षेत्र जायेंगे डूब और कई महानगर बन जायेंगे इतिहास

Update: 2019-08-08 12:25 GMT

20 सालों में अगर बढ़ गया 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान तो भारत के मैदानी इलाकों पर पड़ेगा बहुत बुरा असर (तस्वीर : सांकेतिक)

तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए दुनिया के पास केवल 12 वर्ष हैं, और यदि अब भी इससे निपटने के लिए कदम नहीं उठाये गए, तब हमें इसके बाद भी जिन्दा रहने की आशा छोड़ देनी चाहिए...

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

यूरोपियन यूनियन के कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विसेज के अनुसार इस वर्ष जुलाई का महीना मानव इतिहास में सबसे गर्म था। तापमान के आंकड़ों को 1880 से लगातार रखा जा रहा है। इसके पहले जून का महीना भी मानव इतिहास का सबसे गर्म जून था। कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विसेज ने ये आंकड़े उपग्रहों से प्राप्त किये हैं। इसके पहले सबसे गर्म जुलाई वर्ष 2016 की थी और इस वर्ष तापमान इससे भी 0.04 डिग्री सेल्सियस अधिक था।

पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में इस वर्ष की जुलाई 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म थी। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वर्ष 2016 में एल नीनो का असर था, जिसके अंतर्गत पृथ्वी का तापमान स्वतः बढ़ता है, पर इस वर्ष ऐसा कुछ नहीं था। इसीलिए इस वर्ष की गर्मी को वैज्ञानिक केवल जलवायु परिवर्तन का असर मान रहे हैं।

स बार की गर्मी का असर पूरी दुनिया में देखा गया। अलास्का और साइबेरिया के जंगलों में भयानक आग लगी, ग्रीनलैंड और उत्तरी ध्रुव के अरबों टन बर्फ पिघल गई, अधिकतर यूरोपीय देशों में रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी पडी। फ्रांस में तो तापमान 42 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर गया।

पिछले वर्ष अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन में प्रस्तुत एक शोध पत्र के अनुसार लगभग 1,25,000 वर्ष पहले भी तापमान अभी की तुलना में केवल 1 से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक था, पर उस समय सागर तल 6 से 9 मीटर अधिक था। इन वैज्ञानिकों के अनुसार यदि तापमान वृद्धि की यही रफ़्तार आगे भी कायम रही, तब अगले दो दशकों के भीतर ही दुनिया के अधिकतर सागर तटीय क्षेत्र डूब जायेंगे और अनेक महानगरों के नाम केवल इतिहास के पन्नों पर रह जायेंगे। उस काल में लगभग पूरे दक्षिणी ध्रुव की बर्फ पिघल गयी थी, जबकि इस बार पिछले 25 वर्षों के दौरान 3 ख़रब टन बर्फ पिघल चुकी है।

इंग्लैंड के मेट्रोलॉजिकल ऑफिस के वैज्ञानिकों के अनुसार इस वर्ष यानी 2019 में तापमान वृद्धि के सभी रिकॉर्ड के टूटने का अनुमान है। वर्ष 2018 तक तापमान पूर्व औद्योगिक काल, 1850-1900 की तुलना में 1.1 डिग्री बढ़ चुका है और इस साल इसके और बढ़ने की संभावना है। अब तक सबसे अधिक तापमान वृद्धि वर्ष 2016 में दर्ज किया गया था, जब 1.15 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ गया था। इस वर्ष प्रशांत क्षेत्र में एल नीनो भी प्रभावी रहेगा, इससे तापमान वृद्धि की दर अधिक रहेगी।

वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर एडम स्कैफे के अनुसार 2019 के अंत तक के पूर्वानुमानों के आधार पर यह बताना कठिन नहीं है कि अब तक के 20 सबसे गर्म वर्षों में से 19 वर्ष 2000 के बाद के हैं। वर्ष 2019 के अंत तक 5 सबसे गर्म वर्ष 2015 के बाद के होंगे। इंग्लैंड के मेट्रोलॉजिकल ऑफिस के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 के अंत में जो पूर्वानुमान वर्ष 2018 के तापमान के लिए लगाया था, वह बिल्कुल सटीक निकला था।

क अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 के दौरान जलवायु परिवर्तन के 10 सबसे बड़े आपदाकारी प्रभावों के कारण कुल 50 अरब पौंड का नुकसान हुआ। तापमान वृद्धि के कारण अत्यधिक गर्मी, सामान्य से कई गुना अधिक बारिश, खेती में कम उत्पादकता, जल की कमी और सूखा की समस्याएं बढ़ रही हैं – इससे आर्थिक नुकसान के साथ साथ जान-माल की भारी हानि होती है।

मेरिका और दक्षिणी अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में फ्लोरेंस और माइकल चक्रवातों के कारण लगभग 18.5 अरब पौंड का नुकसान हुआ। अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया समेत अन्य क्षेत्रों में जंगलों की आग से 5.2 पौंड से अधिक का नुकसान हुआ। जापान में बाढ़ और तूफ़ान के कारण 4.3 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा। अन्य महत्वपूर्ण आपदाएं थीं, यूरोप में सूखा और भीषण गर्मी, केरल में बाढ़ और चीन तथा फ़िलीपींस में तूफ़ान का प्रकोप।

पोलैंड में आयोजित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज की 24वीं बैठक (सीओपी 24) में बोलते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने पूरी दुनिया से आये प्रतिनिधियों को चेतावनी देते हुए कहा, अब भी तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कोई समझौता नहीं कर पाना और फिर इससे निपटने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य नहीं करना केवल आत्मघाती ही नहीं है, बल्कि यह अनैतिक भी है। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए दुनिया के पास केवल 12 वर्ष हैं, और यदि अब भी इससे निपटने के लिए कदम नहीं उठाये गए, तब हमें इसके बाद भी जिन्दा रहने की आशा छोड़ देनी चाहिए।

लवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझाने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त है। तापमान वृद्धि से जितनी अतिरिक्त ऊष्मा होती है, उसमें से 90 प्रतिशत को सागर और महासागर अवशोषित करते हैं और शेष ऊष्मा का प्रभाव वायुमंडल, जमीन और हिमशैलों और हिमखंडों पर पड़ता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड की वैज्ञानिक लौरे जान्ना के अनुसार इस तापमान वृद्धि के असर से पिछले 150 वर्षों के दौरान महासागरों में इतनी ऊष्मा और ऊर्जा अवशोषित हो गयी है, जितनी ऊष्मा इसमें हिरोशिमा में छोड़े गए परमाणु बम को पिछले 150 वर्षों के दौरान हरेक सेकंड छोड़े जाने पर अवशोषित होती। पिछले 20 वर्षों के दौरान तो यह दर बढ़कर 3 से 6 बम प्रति सेकंड तक पहुँच चुकी है।

लवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि अब कोई कल्पना नहीं है, यह सामने है और इसके प्रभाव भी स्पष्ट हैं। लगभग हरेक दिन नए शोधों से इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम सामने आ रहे हैं। अब तो अनेक वैज्ञानिक अपने शोधपत्रों में जब भी वर्ष 2050 या आगे की चर्चा करते हैं तब उसके साथ यह भी जोड़ते हैं, “अगर उस समय तक मानव जाति विलुप्त नहीं हुई”। उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक इसके परिणाम सामने आ रहे हैं, फिर भी इसे लेकर देशों द्वारा पहल में गंभीरता अब तक नजर नहीं आ रही है।

क्टूबर 2018 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने 1.5 डिग्री सेल्सियस की वकालत करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसमें बताया गया था कि तापमान वृद्धि इस समय की हकीकत है और वर्ष 2018 तक 1.1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ चुका है, और इसके गंभीर परिणाम पूरी दुनिया में देखे जा रहे है। सेंटर ऑफ़ एपिडेमियोलॉजी ऑफ़ डीजीसेज के अनुसार वर्ष 2018 के दौरान तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में 5000 से अधिक लोग मारे गए और लगभग 3 करोड़ लोगों को चिकित्सा सेवाओं की मदद की जरूरत पड़ी।

दि पेरिस समझौते का लक्ष्य 2 डिग्री से घटाकर 1।5 डिग्री सेल्सियस कर दिया जाए तब वर्ष 2100 तक अपेक्षाकृत सागर तल में कम बढ़ोत्तरी होगी, प्रजातियों के विलुप्तीकरण में कमी आयेगी और गर्मी, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में कमी आयेगी।

पिछले 30 वर्षों से वैज्ञानिकों की लगातार चेतावनी के बाद भी पूरा विश्व तापमान वृद्धि को हलके में ले रहा है, और हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि आईपीसीसी के अनुसार सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तब अगले दशक के अंत तक ही तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा।

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