कथित विकास के शोर में गंभीर रोगी अस्पतालों के बाहर गंदे और खुले में रहने को मजबूर
कुछ अपवादों को छोड़कर देश के लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में रोगियों की हालत दयनीय है। संक्रामक रोगों से ग्रस्त मरीज भी अस्पताल के बाहर खुले और गन्दे में रहने को मजबूर हैं....
डाॅ ए.के. अरुण, वरिष्ठ चिकित्सक
लोकसभा में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने जब स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा की थी तब लोगों को सुनने में यह मोदी की ‘मास्टर स्ट्रोक’ योजना लगी। आयुष्मान भारत की नाम की इस बीमा योजना को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया। लेकिन घोषणा के कुछ ही दिनों के अन्दर इस पर सवाल खड़े होने लगे।
एक तो विश्लेषकों को शुरू में समझ ही नहीं आया कि 12 हजार करोड़ से ज्यादा की इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना में राशि आबंटन की क्या व्यवस्था होगी। दूसरे इस योजना के लाभ के लिये ‘प्रीमियम’ कौन चुकाएगा? जैसे ही यह बात साफ हो गयी कि ‘मोदी हेल्थ केयर’ के नाम से प्रचारित इस बीमा योजना में केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी 30-40 प्रतिशत राशि खर्च करनी है, तब लगभग 5 राज्यों ने इस योजना से अपना हाथ खींच लिया। इनमें ओड़िसा, तेलंगाना, केरल, पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने इसे आयुष्मान भारत के नाम पर बड़ी बीमा कम्पनियों को फायदा पहुंचाने वाली योजना बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया।
जैसे तैसे भाजपा शासित राज्यों में यह योजना जब लागू कर दी गयी, तब इस योजना से जुड़ी कुछ दूसरी खबरें भी आनी शुरू हो गयीं। एक खबर उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले से आई। खबर के अनुसार जिले में कोई 2 लाख 70 हजार गरीब परिवारों को इस योजना से जोड़ा गया, लेकिन इस सूची में गरीब परिवारों के लोगों के नाम के बजाय वहाँ के नेता, अफसर, चिकित्सक एवं कारोबारियों का नाम शामिल था।
मामला जब सुर्खियों में आया तो पता चला कि इस सूची में राज्यसभा सांसद एवं बीजेपी के नेता, उनके विधायक पुत्र व परिवार के लोगों के नाम तथा व्यापारियों के नाम भी इस योजना के लाभार्थी की सूची में है। हरदोई के कई प्रमुख चिकित्सकों के भी नाम इस योजना के लाभार्थी सूची में पाए गए। हालांकि मामला जब उजागर हुआ तो हरदोई के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. एसके रावत ने जांच की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया। जाहिर है योजना के पहले चरण में ही योजना के लूट और कुछ दुरुपयोग की खबरें आनी शुरू हो गईं और योजना पर सवाल उठने लगे।
इस पृष्ठभूमि में जब हम भारत के लोगों के स्वास्थ्य की चर्चा करते हैं तो एक अलग ही दृश्य सामने आता है। देश में लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति आज भी अच्छी नहीं है। विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि कुछ अपवादों को छोड़कर देश के लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में रोगियों की हालत दयनीय है। संक्रामक रोगों से ग्रस्त मरीज भी अस्पताल के बाहर खुले और गंदे में रहने को मजबूर हैं। अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी है तो गम्भीर रोगियों को भी मेडिकल जांच के लिये महीनों/बरसों तक प्रतीक्षा सूची में इंतजार करना पड़ता है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे क्या बदलाव आ गए हैं जो लोगों के जान की मुसीबत बन गए हैं? बदली जीवनशैली में आराम और अनावश्यक खानपान, फास्ट फूड, साफ्ट/हार्ड ड्रिंक्स आदि ने इतनी पैठ बना ली है कि अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होने लगी हैं। लोगों ने आरामपरस्त जिन्दगी के नाम पर शारीरिक श्रम और समुचित विश्राम करना बन्द कर दिया है। मसलन उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तनाव, अवसाद यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों के मामले बढ़ रहे हैं।
डब्लूएचओ की उच्च रक्तचाप व अन्य जीवनशैली के रोगों के बढ़ते मामले को लेकर व्यक्त चिंता जायज है, लेकिन भारत व अन्य विकासशील देशों में यह चिन्ता करना इसलिये भी बेहद जरूरी है कि कथित विकास के नाम पर बन रहे मेगा प्रोजेक्ट, बड़े बांध, रियल स्टेट, सुपर हाइवे आदि पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और यहाँ के नागरिकों को भीषण आर्थिक संकट में फंसना पड़ रहा है।
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे समूह के सालाना अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आ रही है कि वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की प्रक्रिया से हुआ विकास पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत नतीजे के बावजूद सत्ता में बैठे लोग और सरकार इसी रास्ते पर चलते रहने की जिद में है। वैकल्पिक सर्वे समूह की ओर से जाने माने अर्थशास्त्री प्रो. कमल नयन काबरा कहते हैं, ‘भारत में उदारीकरण की विफलता की कहानी तो अब यहाँ के पूंजीपति भी कहने लगे हैं। निश्चित ही यह सब कारक आम लोगों की बीमारी को ही बढ़ा रहा है।’
आइये सत्तर साल पहले की स्वास्थ्य की स्थिति पर नजर डालें। सन् 1943 में अंग्रेजों ने भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की वास्तविक स्थिति जानने के लिये स्वास्थ्य सर्वेक्षण और विकास समिति (भोर समिति) का गठन किया था। भोर समिति ने सन् 1945 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी और स्वास्थ्य सेवा के विकास के लिए एक श्रेणीबद्ध प्रणाली के गठन का सुझाव दिया। इस सुझाव के अनुसार प्रत्येक 20,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना की बात थी।
समिति ने स्पष्ट कहा था कि स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकांश लाभ ग्रामीण क्षेत्रों को मिलना चाहिये। विडम्बना देखिए कि आजादी के बाद सन् 1950 में जो भारतीय स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर उभरी उसमें 81 प्रतिशत सुविधाएं शहरों में स्थापित की गयी। आज भी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की स्थिति कोई अच्छी नहीं है। सन् 1960 के अन्त तक जब देश में बढ़ती विषमता की वजह से जन आन्दोलन उभरने लगे तब सरकार को मानना पड़ा कि सरकारी सुविधाएं गांव तक नहीं पहुंच रही हैं।
स्वास्थ्य के बारे में सरकार ने भी माना कि डॉक्टरों से गांव में जाकर सेवा देने की उम्मीद लगभग नामुकिन है। फिर सरकार ने सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा को विकसित करने का मन बनाया। इसी नजरिये से डॉ. जेबी श्रीवास्तव की अध्यक्षता में एक और समिति बनी। इस समिति ने सुझाव दिया कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा के लिये बड़ी संख्या में स्वास्थ्य कार्यकत्र्ता तैयार किये जाएं। इसके लिये भारत ने विदेशी बैंकों से कर्ज लेना शुरू किया।
धीरे धीरे भारत अंतरराष्ट्रीय बैंकों के कर्ज जाल में फंसता चला गया। 1991 से तो भारत सरकार ने खुले रूप से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की आर्थिक नीतियों को ही लागू करना आरम्भ कर दिया। इसका देश के आम लोगों के जीवन पर गहरा असर भी दिखा। स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी खर्च में कटौती तथा स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के परिणाम स्वरूप बीमारी से जूझते आम लोगों की तादाद बढ़ने लगी। दवा कम्पनियों ने भी दवाओं पर कीमतों का नियंत्रण समाप्त करने का दबाव बनाया और दवाएं महंगी होने लगी। दवाओं के महंगा होने का सबसे दुखद पहलू था जीवन रक्षक दवाओं का बेहद महंगा हो जाना।
इस बीच धीरे धीरे जीवन रक्षक दवाएं बनाने वाली देशी कम्पनियाँ दम तोड़ने लगीं। नई नीतियों की आड़ में गैट (जेनरल एग्रीमेंट आफ ट्रेड एन्ड टैरिफ) के पेटेन्ट प्रावधानों का दखल शुरू हो गया और नतीजा हुआ क देश का पेटेन्ट कानून 1971 को बदल दिया गया। दवाइयाँ बेहद मंहगी हो गईं। उदाहरण के लिये टीबी की दवा आइसोनियाजिड, कुष्ट रोग की दवा डेप्सोन और क्लोफजमीन, मलेरिया की दवा सल्फाडौक्सीन और पाइरीमेतमीन इतनी महंगी हो गयी कि लोग इसे खरीद नहीं पा रहे थे।
स्वास्थ्य पर बाजार का स्पष्ट प्रभाव दिखने लगा था। सन् 1993 में विश्व बैंक ने एक निर्देशिका प्रकाशित की। शीर्षक या- ‘इन्वेस्टिंग इन हेल्थ।’ इसमें साफ निर्देश था कि कर्जदार देश फंड-बैंक के इसारे पर स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी मामलों में बजट कटौती करें।
गम्भीरता से विचार करें तो ‘आयुष्मान भारत’ या ‘स्वास्थ्य बीमा योजना’ या ‘मोदी हेल्थ केयर’ की पृष्ठभूमि में यह कहानी आपको सहज दिख जाएगी। अब रोगों की वर्तमान स्थिति पर थोड़ी चर्चा कर लें। भारत में कैंसर, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस की बीमारियाँ, तनाव, अमिन्द्रा, चर्मरोगों व मौसमी महामारियों में बेइंतहा वृद्धि हुई है। बढ़ते रोगों के दौर में जहाँ मुकम्मल इलाज की जरूरत थी, वहाँ दवाओं को महंगा कर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा को निजी कम्पनियों के हाथों में सौंप दिया गया।
सन् 2000 के आसपास निजी अस्पतालों की बाढ़ सी आ गयी। कारपोरेट अस्पतालों की संख्या बढ़ी और धीरे धीरे आम मध्यम वर्ग अपने उपचार के लिये निजी व कारपोरेट अस्पतालों की ओर रुख करने लगा। प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था एक तो मजबूत भी नहीं हो पाई थी ऊपर से ध्वस्त होने लगी और दूसरी ओर बड़े सरकारी अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थाओं में इलाज एवं निदान के लिये एक-दो वर्ष की वेटिंग मिलने लगी। भीड़ का आलम यह कि अस्पतालों में अफरा तफरी और अव्यवस्था का आलम आम हो गया। निजीकरण की वजह से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे सुपर स्पेशिलिटी अस्पतालों में भी इलाज महंगा कर दिया गया। लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवा की बजाय निजी अस्पतालों की ओर रुख करने लगे। महंगे इलाज की वजह से ‘स्वास्थ्य बीमा’ लोगों के लिये तत्काल जरूरी लगने लगा और देखते देखते कई बड़े कारपोरेट कम्पनियों स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में कूद पड़ीं और स्वास्थ्य बीमा का क्षेत्र मुनाफे का एक बड़ा अखाड़ा सिद्ध हो गया।
कहने को निजीकरण व वैश्वीकरण के लिये कांग्रेस की सरकारें जिम्मेवार हैं लेकिन बाद में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकारों ने तो और भी जोर शोर से निजीकरण एवं बाजारीकरण बढ़ाया। कहने को भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने स्वदेशी जागरण मंच के नाम पर स्वदेशी के नारे तो लगाए लेकिन बाजारीकरण एवं निजीकरण को बेशर्मी से आगे बढ़ाया। नतीजा स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र निजी मुनाफे के लिये सबसे बेहतरीन प्रोडक्ट के रूप में बढ़ने लगा। अब जब बीमारियाँ ला इलाज हैं, दवाएं महंगी हैं और और आम लोग इतनी महंगी दवाएं और इलाज नहीं ले सकते तो उन्हें स्वास्थ्य बीमा की मीठी चटनी के बहाने तसल्ली दी जा रही है।
भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर नज़र डालें तो सूरत ए हाल और चिन्ताजनक है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी खस्ता है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है।
विदेशों में हैल्थ की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सैक्टर मिलकर फंड देते हैं, जबकि जापान में हैल्थकेयर के लिये कम्पनियों और सरकार के बीच समझौता है। आस्ट्रिया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिये 'ई-कार्ड' मिला हुआ है। हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है। अभी यहाँ महज 28.80 करोड़ लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी और 18.1 प्रतिशत 14.1 ग्रामीण लोगों के पास हैल्थ इंश्योरेंस है।
इसमें शक नहीं है कि देश में महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगों की एक बड़ी संख्या है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के एक शोध में यह बात सामने आई है कि हर साल देश में कोई 8 करोड लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं। यहाँ की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को ईलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते हैं। एम्स का यही अध्ययन बताता है कि बीमारी की वजह से 53.3 प्रतिशत नौकरी वाले लोगों मे से आधे से ज्यादा को नौकरी छोड़नी पड़ जाती है।
भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है, जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबो और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)।
सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गयी है, जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागज़ी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है।
एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है। नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है।
यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा।
चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है, जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।
आजादी के बाद पहली बार देखा जा रहा है कि निजीकरण व बाजारीकरण के मजबूत घेरेबन्दी के बावजूद एक एकदम नयी पार्टी (आम आदमी पार्टी) ने स्वास्थ्य सेवा को आम लोगों के लिये शत प्रतिशत मुफ्त कर दिया है। आम आदमी पार्टी के इस ‘मोहल्ला क्लिनिक’ ने तो जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के 70 वर्ष पूराने सपने को मानो पंख दे दिया हो, जिसमें प्रारम्भिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की कल्पना थी।
आज दिल्ली में यहां की दो करोड़ की आबादी में लगभग 50 प्रतिशत यानी एक करोड़ लोग ‘मोहल्ला क्लिनिक’ का लाभ ले चुके हैं। जन स्वास्थ्य सेवा का यह दिल्ली मॉडल आज पूरी दुनिया के लिये कौतूहल का विषय बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र संघ और युनिसेफ सहित दर्जनों देशों के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने दिल्ली में ‘आम आदमी मोहल्ला क्लिनिक’ के कार्यप्रणाली को देखा, समझा और सराह है।
इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस (7अप्रैल) का थीम है- ‘यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज-एवरीवन एवरीवेयर’ अर्थात सबके लिये सब जगह एक जैसा स्वास्थ्य। नारा अच्छा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृढ़ इच्छा भी होंगी, लेकिन दुनियाभर की सरकारों का कुछ पता नहीं कि सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की उन्हें वास्तव में कितनी चिन्ता है? अपने देश में कोई तीन दशक पहले हमारी सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मिलकर घोषणा की थी, ‘सन् 2000 तक सबके किये स्वास्थ्य’
सन् 2000 बीत गया, न तो सबको स्वास्थ्य मिला और न ही कोई पूछने वाला है कि जब हजारों करोड़ रुपये खर्च कर इस नारे को रट रहे थे तो फिर सबके स्वास्थ्य की बात कहाँ छूट गयी? सरकारी संकल्पों की यह स्थिति कोई नई नहीं है और न ही इन संकल्पों के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट। बहरहाल अब रोगों की वैश्विक चुनौती ने पूरी दुनिया को आशंकित कर दिया है तो संकल्प को पुनः दुहारने की मजबूरी लाजिमी है।
यदि हम अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की वास्तव में चिंता करते हैं तो हमें जनपक्षीय स्वास्थ्य नीति और जन सुलभ सहज स्वास्थ्य सुविधाएँ स्थापित करने की पहल का स्वागत करना चाहिये। मोहल्ला क्लिनिक एवं सर्व सुलभ स्वास्थ्य के लिये प्रतिबद्ध दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन स्पष्ट कहते हैं कि केन्द्र सरकार के इशारे पर दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल वैंजल मोहल्ला क्लिनिक के रास्ते के रोड़ा बने हुए हैं, जबकि आप सरकार ने दिल्ली में एक हजार मोहल्ला क्लिनिक की योजना बनाई हुई है।
दिल्ली वाले खुशकिस्मत हैं कि उनके अस्पतालों में आम आदमी पार्टी की सरकार ने विलिंग काउन्टर भी खत्म कर दिये हैं। गन्दी राजनीति से ऊपर उठकर सरकारें यदि चाहें तो आम आदमी की सेहत सुधार सकती है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाएं तो सुलभ हो ही सकती हैं। बढ़ती बीमारियों और महंगे स्वास्थ्य सेवाओं से निजात पाने में स्वास्थ्य बीमा से ज्यादा सुलभ एवं निःशुल्क अथवा सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ लोगों के लिये मददगार हो सकती हैं और ‘सबके लिये उम्दा स्वास्थ्य-सब जगह’ का विश्व स्वास्थ्य संगठन का सपना भी पूरा हो सकता है। यह सम्भव है।
संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर जनता के लिये यदि सरकारें सच्चे दिल से सोचेंगी तो जनता भी उन्हें सर पर बिठाएगी। सरकार राजनीति से उपर उठिये और मानवता के लिये कुछ कीजिये, इसीलिये जनता आपको चुनती है।
(डॉ. ए.के. अरुण जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं जाने माने होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।)