भारत 3 साल में करता है उतने भूजल का प्रयोग, जितना खर्चने में अमेरिका को लग जाते हैं 100 साल
भारत में जितने भूजल का उपयोग किया जाता है, उतना भूजल अमेरिका और चीन नहीं कर पाते संयुक्त तौर पर भी...
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 260 घन किलोमीटर भूजल का उपयोग किया जाता है, यानी हम तीन वर्ष में ही इतने भूजल का उपयोग कर डालते हैं जितना अमेरिका में पूरी शताब्दी में किया गया था। भूजल के उपयोग के सन्दर्भ में दुनिया में भारत पहले स्थान पर, अमेरिका दूसरे स्थान पर और चीन तीसरे स्थान पर है। आंकड़ों की दृष्टि से भारत में जितने भूजल का उपयोग किया जाता है, उतना भूजल अमेरिका और चीन संयुक्त तौर पर भी नहीं कर पाते।
नदियाँ सिकुड़ रही हैं, उनमें पानी का बहाव कम हो रहा है और दूसरी तरफ भूजल लगातार नीचे जा रहा है। पर, क्या इनमें आपस में कोई सम्बन्ध है? दरअसल नदियाँ किसी भी स्त्रोत से उत्पन्न होती हों, उन्हें आगे ले जाने में भूजल का बड़ा योगदान रहता है। हिमालय के हिमखंडों से निकालने वाली नदियाँ भी केवल ग्लेशियर के पानी से नहीं बढ़तीं, बल्कि इनमें चट्टानों से रिसकर भूजल लगातार मिलता रहता है। समतल मैदान पर भी बहने वाली नदियों का सम्बन्ध भूजल से लगातार बना रहता है। जब भूजल की गहराई बढ़ने लगती है तब इसका असर नदियों के बहाव पर भी पड़ता है और वे सूखने लगती हैं।
साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार अमेरिका में पिछले सौ साल में भूजल का इतना दोहन किया गया कि इसका प्रभाव वहां की नदियों पर पड़ा और अधिकतर नदियों में पानी के बहाव में 50 प्रतिशत तक की कमी आ गयी है और कुछ नदियाँ तो पूरी तरह से सूख चुकी हैं।
अमेरिका की प्रसिद्ध नदी, कोलोराडो, के पानी के बहाव में तो पिछले 15 वर्षों के दौरान ही 20 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है। अनुमान है कि पिछली शताब्दी के दौरान अमेरिका में लगभग 800 घन किलोमीटर भूजल का दोहन किया गया है। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के वैज्ञानिकों ने किया है। ऐसे अध्ययन समय समय पर किये जाते रहे हैं और सभी का निष्कर्ष भी एक जैसा है, पर यह इस तरह का सबसे बड़ा अध्ययन है।
भले ही इस अध्ययन को अमेरिका में किया गया हो, पर इसके परिणाम पूरी दुनिया में लागू होते हैं। हरेक जगह भूजल और नदियों और झीलों का आपस में सम्बन्ध है और एक का प्रभाव दूसरे पर भी पड़ता है। हमारे देश में यह समस्या अमेरिका से भी विकराल है। हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 260 घन किलोमीटर भूजल का उपयोग किया जाता है, यानी हम तीन वर्ष में ही इतने भूजल का उपयोग कर डालते हैं जितना अमेरिका में पूरी शताब्दी में किया गया था।
भूजल के उपयोग के सन्दर्भ में दुनिया में भारत पहले स्थान पर, अमेरिका दूसरे स्थान पर और चीन तीसरे स्थान पर है। आंकड़ों की दृष्टि से भारत में जितने भूजल का उपयोग किया जाता है, उतना भूजल अमेरिका और चीन संयुक्त तौर पर भी नहीं कर पाते।
हमारे देश में लगभग 50 प्रतिशत इलाके ऐसे हैं जहां कृषि आज भी वर्षा पर निर्भर करती है, पर शेष इलाकों में जितनी सिंचाई की जाती है उसमें से 70 प्रतिशत से अधिक भूजल पर निर्भर है। कृषि कार्यों में ही भूजल का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है, इस कारण भूजल का निर्यात भी होता है। बासमती चावल जैसी अनेक फसलों का भारत से भरपूर निर्यात किया जाता है और इन फसलों में सिंचाई भूजल से होती है।
अनाजों के अतिरिक्त, खाद्य पदार्थों से सम्बंधित उत्पाद, मांस और डेरी उत्पादों का भी निर्यात किया जाता है और सबमें पानी की जरूरत पड़ती है। इसका सीधा सा मतलब है कि परोक्ष तौर पर भूजल का निर्यात किया जा रहा है और इस सन्दर्भ में हम दुनिया में अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर हैं।
कुल मिलाकर भूजल हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक है, पर सरकारें इसकी लगातार उपेक्षा करती रहीं हैं। आज हालत यह है कि देश के कुल जिलों में से 60 प्रतिशत से अधिक में भूजल की समस्या विकराल है।
भारत को यदि भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेंहू और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। एक किलोग्राम चावल पैदा करने में 3000 से 5000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि एक किलोग्राम गेहूं उपजाने में 900 से 1200 लीटर पानी खर्च होता है।
यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित आबादी हमारे देश में है और हम तेजी से पानी की कमी की तरफ भी बढ़ रहे है। नदियाँ सूख रही हैं और देश के अधिकतर हिस्से का भूजल वर्ष 2030 तक इतना नीचे पहुँच जाएगा, जहाँ से इसे निकालना कठिन होगा। देश के अधिकतर हिस्सों में बारिश भी पहले के मुकाबले कम होने लगी है।
यह निष्कर्ष कोलंबिया यूनिवर्सिटी के द अर्थ इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन से निकाला है, और इनका शोधपत्र साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के जुलाई अंक में प्रकाशित किया गया है। इस दल ने भारत में उपजाई जाने वाली 6 प्रमुख अनाज के फसलों, धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार और रागी का अध्ययन किया।
हरित क्रांति के पहले तक गेहूँ और चावल के अतिरिक्त बाजरा, ज्वार, मक्का और रागी जैसी फसलों की खेती भी भरपूर की जाती थी। इन्हें मोटा अनाज कहते थे और एक बड़ी आबादी, विशेषकर गरीब आबादी, का नियमित आहार थे। 1960 की हरित क्रांति के बाद कृषि में सारा जोर धान और गेहूँ पर दिया जाने लगा, शेष अनाज उपेक्षित रह गए।
हरित क्रांति के बहुत फायदे थे पर इसका बुरा असर जल संसाधनों के अत्यधिक दोहन और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन पर भी पड़ा। साथ ही भूमि और जल संसाधन रासायनिक ऊर्वरक और कीटनाशकों से प्रदूषित होते गए। अब फिर से मक्का, बाजरा और रागी का बाज़ार पनपने लगा है, पर अब ये विशेष व्यंजन बनाने के काम आते हैं और अमीरों की प्लेट में ही सजते हैं।
डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूँ पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है, जहाँ तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है। धान के बदले ज्वार, बाजरा या रागी की पैदावार की जाए तो सिंचाई के पानी में लगभग 33 प्रतिशत की कमी लाई जा सकती है।
पूरे देश में पानी की जितनी खपत है, उसमें 70 प्रतिशत से अधिक सिंचाई के काम आता है, यह हालत तब है जबकि देश के बड़े भाग में आज भी सिंचाई की सुविधा नहीं है। दूसरी तरफ वर्ष 2050 तक देश में पानी की भयानक कमी होने की पूरी संभावना है। सिंचाई की सुविधा केवल पानी के उपयोग तक ही सीमित नहीं है, बाँध, नहरें और बहुचर्चित नदियों को जोड़ने की परियोजना सभी पर्यावरण के लिए बहुत घातक हैं।