भारत के टापमोस्ट 9 अमीरों की संपत्ति देश का 65 फीसदी और सत्ता कहती जय हिन्द!

Update: 2019-01-22 13:41 GMT

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मिजाज लोकतंत्र का हो या परिभाषा आजादी की गढ़ी जाये या फिर आस्था के आसरे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारे लगाये जायें, भारत कैसे सत्ता की लूट और विज्ञान के आसरे विकसित होने की तरफ ध्यान ही न दे, इसके उपाय भी लगातार खोजे जा रहे हैं।

बता रहे हैं वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी

मेहुल चोकसी ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी। उससे पहले जांच के लिये भारत लौटने से ये कहकर इंकार कर दिया था कि भारत में उनकी लिचिंग हो सकती है। विजय माल्या ने पहले भारतीय जेल को अमानवीय बताया और अब स्विस बैंक से कहा आप मेरे अकाउंट की जानकारी भारतीय जांच एजेंसी सीबीआई को कैसे दे सकते हैं, जो खुद ही दागदार है, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रही है।

भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकों से जनता के पैसे को कर्ज लेकर ना लौटाने वाले कारपोरेट व उद्योगपतियों की कतार करीब 900 तक पहुंच चुकी है और आंकड़ा बारह हजार करोड़ रुपये पार कर चुका है। इसी दौर में देश पर बढ़ता कर्ज 80 लाख करोड़ का हो चुका है।

ऑक्सफेम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत के टापमोस्ट सिर्फ नौ लोगों की आमदनी-कमाई या संपत्ति का कुल आंकड़ा देश के 65 करोड़ लोगों की आय संपत्ति या आमदनी के बराबर है। दुनिया में भारत को लेकर तमाम चकाचौंध बिखराने के बावजूद दुनियाभर से भारत के बाजार में डालर झोंकने वाले बढ़ क्यों नहीं रहे हैं, ये सवाल अब भी अनसुलझा सा बना दिया गया है।

2017 में 40 बिलियन डालर का निवेश हुआ तो 2018 में 43 बिलियन डालर का निवेश भारत में हुआ, जबकि ब्राजील सरीखे देश में 59 बिलियन डालर का विदेशी निवेश 2018 में हो गया, जहां की सत्ता ने दुनिया घूमने पर सबसे कम खर्च किया। चीन में 142 बिलियन डालर का निवेश 2018 में हो गया, तो भारत की दौड़ किस देश से हो सकती है, ये सोचने समझने से पहले इस हकीकत को भी जान लें कि यूपी में निवेश को लेकर जब योगी-मोदी ने वाइब्रेंट गुजरात की तर्ज पर सम्मेलन किया तो निवेश का भरोसा देने वाले एक विदेशी कारपोरेट ने पिछले दिनों अध्ययन कर पाया कि कृषि अर्थव्यवस्था पर टिके यूपी में किसानों को अब अपनी फसल बचाने के लिये गाय के लिये बाड़ बनाने से जूझना पड़ रहा है।

बाड़ लगाने क लिये किसानों के पास पैसे नहीं हैं, और राज्य सरकार गायों की बढ़ती तादाद के लिये गौ चारण की जमीन तक की व्यवस्था तो दूर, कोई व्यवस्था तक करने में सक्षम नहीं है। दिल्ली की एक संस्था से मदद लेकर भारत के मेडिकल क्षेत्र में निवेश की योजना बनाने वाली विदेशी कंपनी ने पाया कि भारत में प्राइवेट अस्पताल खोलना सबसे फायदे का धंधा है और सरकारी अस्पताल में न्यूनतम जरूरतें तो दूर 70 फीसदी बीमार और ज्यादा बीमारी लेकर अस्पताल से लौटते हैं।

यानी अस्पताल साफ—सुधरे रहें, सिर्फ ये काबिलियत ही प्राइवेट अस्पताल को लायक होने का तमगा दे देती है। फिर भारत का अनूठा सच शिक्षा से भी जुड़ा है, जहां स्कूल जाने वाले 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे जोड़-घटाव तक नहीं कर सकते। अंग्रेजी तो दूर की गोटी है, हिन्दी भी पढ़ नहीं पाते। यानी सामने वाला जो बोल रहा है उसे सुनकर जो सही गलत समझ में आये उसे ही सच मान कर देश की आधी आबादी जिन्दगी जी रही है।

इस जिन्दगी को चलाने वाले नेताओं की कतार सिर्फ बोलती है, क्योंकि बोल कर वोट पाने का लाइसेंस उन्हीं के पास हो और लोकतंत्र का तकाजा यही कहता है कि जो खूब शानदार बोल सकता है वही देश की सत्ता को संभाल सकता है। सारे सवाल उस दायरे में आकर सिमट जाते हैं, जहां 2014 में 10 जनपथ तक जीरो जीरो लगाते हुये करोड़ों के घोटाले-घपले का आरोप नेहरू गांधी परिवार पर नरेन्द्र मोदी लगाकर सत्ता पाते हैं और 2019 में नरेन्द्र मोदी को 'चौकीदार चोर है' कि उपमा देकर राहुल गांधी अब परिपक्व नजर आने लगते हैं, क्योंकि उनकी अगुवाई में कांग्रेस कई राज्यों में लौट आती है।

सवाल कई हैं। मसलन, क्या भारत को बनाना रिपब्लिक बनाकर सत्ता पाना ही लोकतंत्र हो चुका है। क्या भारतीय ही भारत को लूट कर गणतंत्र होने का तमगा सीने से लगाये हुये हैं। क्या भारतीय राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता का मोल भाव सत्ता बनाने या बिगाड़ने में जा सिमटा है। क्या संविधान को भी सत्ता का और बनाकर सत्ताधारी देश से खेलने में हिचक नहीं रहा है।

क्या देश में खुली लूट कर देश छोड़कर भागना बेहद आसान है, क्योंकि सत्ता पाने की तिकड़म (चुनाव के तौर तरीके) ही एक ऐसी पूंजी पर जा टिकी है, जो ईमानदारी से बटोरी नहीं जा सकती और बेइमानी किये बगैर लौटायी नहीं जा सकती। क्या दुनिया में भारत इसलिये आकर्षण का केन्द्र है, क्योंकि भारतीय बाजार से कमाई सबसे ज्यादा है या फिर जिस तरह दो जून की रोटी तले आस्था के समंदर में देश के 80 करोड़ लोग गोते लगाते हैं, उसमें दुनिया की कोई भी फिलॉसफी फेल होने के बाद भारत आकर आंनद ले सकती है।

या फिर भारत धीरे धीरे खुद को उस पुरातन अवस्था में ले जा रहा है, जहां विकसित या विकासशील होने-कहलाने का मार्ग नहीं जाता, बल्कि अतीत के गौरवमयी हालातों को धर्म की चादर में लपेट कर सत्ता सुला देना चाहती है। मिजाज लेकतंत्र का हो या परिभाषा आजादी की गढ़ी जाये या फिर आस्था के आसरे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारे लगाये जायें, भारत कैसे सत्ता की लूट और विज्ञान के आसरे विकसित होने की तरफ ध्यान ही न दे, इसके उपाय भी लगातार खोजे जा रहे हैं।

शिक्षा-प्रोफेशनल्स-रोजगार को लेकर दुनिया में फैले विदेशियों की तादाद में भारत का नंबर चीन-जापान के बाद आता है। चीनी और जापानी देश लौटते हैं, नागरिकता छोड़ते नहीं। अपने देश के लिये काम करते हैं, पर दुनिया में फैले भारतीयों की तादाद लगातार बढ़ रही है और ये तादाद न लौटने के लिये बढ़ रही है।

क्या लोकतंत्र के नाम पर भारत खुद को ही नये तरीके से गढ रहा है, जहां गांव से रास्ता छोटे शहर। छोटे शहर से बड़े शहर। बड़े शहर से महानगर और महानगर से देश छोड़कर जाने का रास्ता ही भारत की पहचान हो चुकी है। जो राजनीति सत्ता देश को चलाने के लिये बैचेन रहती है, वह भी अब विदेशी जमीन पर अपने होने का राग गा रही है, क्योंकि देश के भीतर का सिस्टम या तो पूंजी पर जा टिका है या पूंजीपतियों पर जो सत्ता को भी गढ़ते हैं और सत्ता के जरिये खुद को भी। फिर सियासत डगमगाने लगे तो देश की नागरिकता छोड़ भारतीय व्यवस्था पर ही सवाल उठाने से नहीं चूकते और सत्ता कहती है जय हिन्द!

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