फ्रांसीसी बढ़ती महंगाई और रोजगार के लिए उतरे सड़कों पर, भारतीय उलझे मंदिर-मस्जिद में

Update: 2018-12-09 10:40 GMT

येलो वेस्ट आंदोलन के तहत रोजगार, कड़े श्रम कानूनों, बढ़ी तेल की कीमतों के खिलाफ सिर्फ फ्रांस ही नहीं नीदरलैंड और बेल्जियम भी उतरे सड़कों पर....

अभिषेक आजाद की रिपोर्ट

जनज्वार। 17 नवंबर 2018 दिन शनिवार को तेल की बढ़ी कीमतों के खिलाफ पेरिस से शुरू होने वाला 'येलो वेस्ट आंदोलन' धीरे-धीरे वैश्विक रूप लेता जा रहा है। यह आंदोलन फ्रांस, बेल्जियम और नीदरलैंड जैसे यूरोपीय देशों के बाद ईराक के बासरा शहर तक पहुंच चुका है।

05 दिसम्बर को इराक के बासरा शहर में लोगों ने पीले जैकेट पहनकर अधिक रोजगार और बेहतर सुविधाओं के लिए प्रदर्शन किया। इस आंदोलन का क्षेत्र (स्कोप) और विस्तार (एरिया) लगातार बढ़ता जा रहा है।

'येलो वेस्ट' आंदोलन तीन सप्ताह पहले ईंधन कर में बढ़ोतरी और यातायात के प्रदूषक कारकों पर कर में प्रस्तावित वृद्धि के खिलाफ शुरू हुआ था, लेकिन इसके बाद इस आंदोलन का राष्ट्रपति इमानुअल मैक्रो सरकार की नीतियों के विरोध के रूप में विस्तार हो गया। प्रदर्शनकारी अधिक वेतन, कर में कमी, बेहतर पेंशन और यहां तक की राष्ट्रपति के स्तीफे की भी मांग कर रहे हैं।

अगर हम फ्रांस, बेल्जियम या नीदरलैंड की भारत से तुलना करें तो वहां के हालात हम से कई गुना बेहतर है। भारतीय नागरिकों की तुलना में वो लोग महंगे दामों पर भी तेल खरीदने की क्षमता रखते है, किन्तु वे तेल के बढ़े दामों के विरोध में सड़को पर उतरे।

भारत में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत में भारी गिरावट के बावजूद भी कभी कोई कमी नहीं आयी। तेल के दाम लगातार बढ़ते रहे हैं। सरकार और तेल कंपनियों की मिलीभगत की वजह से तेल को भारी कीमतों पर बेचा गया। सरकार ने भारी टैक्स लगाकर राजस्व उगाही की और निजी तेल कंपनियों ने मोटा मुनाफा कमाया।

इन दोनों के बीच में जनता पिसती रही। उसकी मेहनत की कमाई पर डाका डलता रहा। हिंदुस्तान पेट्रोलियम का वित्तीय वर्ष 2017-18 का मुनाफा 2014-15 की तुलना में मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से दोगुना बढ़ गया है। इंडियन आयल कारपोरेशन का मुनाफा 2015 की तुलना में चार गुना बढ़ गया है।

वर्ष 2017-18 के लिए इसका शुद्ध मुनाफा सर्वाधिक 21,346 करोड़ रूपये रहा। जिस तरह से पिछले कुछ सालो में तेल कंपनियों ने मुनाफा कमाया है, आम जनता के लिए तेल की कीमत बद से बत्तर होती जा रही है। 400 रूपये में मिलने वाला गैस सिलेंडर 800 रूपये में मिल रहा है। इन सबके बावजूद भी हमारे भारत में महंगाई के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं हुआ।

GST के अंतर्गत ऐसी वस्तुओं और उत्पादों पर भी टैक्स लगाया गया जिन्हें हमेशा टैक्स से बाहर रखकर संरक्षण दिया गया। कर की दर को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ाया गया। कृषि उपकरणों पर सब्सिडी देने की बजाय टैक्स लगाया गया।

इस टैक्स ने छोटे, कुटीर और लघु उद्योगों को भारी नुकसान पहुंचाया। छोटे उद्योग-धंधे तबाह हो गए और लाखों लोगो ने अपनी आजीविका गंवाई। नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को अपूरणीय क्षति हुई। विकास की गति प्रभावित हुई।

हमारी अर्थव्यस्था अभी भी इन दोनों त्रासदियों से उबर नहीं पायी है। व्यापारी वर्ग दबी आवाज़ में सरकार के खिलाफ बोल तो रहा है, किन्तु खुलकर सामने नहीं आ रहा। अंबानी—अडानी को छोड़कर छोटे व्यापारी वर्ग की पिछले चार सालों की बचत लगभग शून्य है।

मैक्रॉन को भी मोदी की तरह अमीरों का नेता माना जाता है। फ़्रांस में सरकार के विरोध में प्रदर्शन कर रहे 'येलो वेस्ट' प्रदर्शनकारियों का मुख्य नारा है कि 'मैक्रो इस्तीफा दो'। लोगों का गुस्सा अपने उस नेता के लिए है जिसे वे सिर्फ अमीरों का नेता मानते हैं। जनता सड़कों पर है और राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का कुछ अता-पता नहीं है। प्रदर्शनकारी अधिक वेतन, कर में कमी, बेहतर पेंशन और यहां तक की राष्ट्रपति से इस्तीफे की भी मांग कर रहे हैं।

भारत में, देश के सभी ट्रेड यूनियनों ने 8 व 9 जनवरी को दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल का आह्वान किया है। कामकाजी तबके में सरकार द्वारा नियमित तौर पर सेवा शर्तों में किए गए अलाभकारी परिवर्तनों से खासी नाराज़गी है। वे न्यूनतम वेतन, पेंशन आदि सेवाशर्तों को लेकर प्रदर्शन करेंगे।

भाजपा की पिछली सरकार ने देश में कर्मचारियों की पेंशन को खत्म किया था और मोदी सरकार ने भर्ती को ही बंद कर दिया, जबकि हर साल दो करोड़ नई भर्ती करने का वादा किया था। लेकिन, उनके सामने फ्रांस जैसा समर्थन इकठ्ठा करना एक बड़ी चुनौती होगी।

पिछले चार सालों में 50,000 किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला। किसानों ने रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक ‘मुक्ति संघर्ष मार्च’ करके मौजूदा भाजपा सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा और एकजुटता दोनों प्रदर्शित कर दिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकि है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि युवाओं के पास रोजगार नहीं है और बेरोजगार युवा रोजगार की मांग करने के बजाए मंदिर मस्जिद बनाने कि मांग कर रहे हैं। चुनावी वादे पूरे नहीं हुए, युवाओं को रोजगार नहीं मिला, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला। अर्थव्यवस्था विकास के बजाए विनाश के पथ पर अग्रसर है।

जनता में सरकार के खिलाफ आक्रोश है। ऐसी परिस्थिति में जब युवाओं को अपने बेहतर भविष्य और रोजगार की मांग को लेकर सड़को पर होना चाहिए, वे मंदिर मस्जिद का सगूफा उछालकर सरकार बनाने वाले नेताओं की पालकी ढो रहे हैं।

भारत के युवाओं की राजनीतिक चेतना का स्तर इराक के 'बासरा' शहरवासियों से भी कम है। उन्होंने पीली जैकेट पहनकर नौकरियों और बेहतर सुविधाओं के लिए प्रदर्शन किया, किन्तु भारत का युवा अपने भविष्य और क्षमताओं को मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर खपा रहा है।

यह वक्त सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ पीले जैकेट पहनकर सड़क पर उतरने और इस विश्वव्यापी जनांदोलन को समर्थन देने का है। इस जनांदोलन से सीख लेते हुए हम भी देश के विभिन्न शहरों में सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ और रोजगार, पेंशन, न्यूनतम वेतन आदि की मांग को लेकर सड़कों पर प्रदर्शन करना चाहिए।

सरकार के खिलाफ अलग-अलग समय पर आंदोलन हुए है-चाहे किसान आंदोलन हो या ट्रेड यूनियन की हड़ताल-किन्तु इन आंदोलनों का प्रभाव सीमित रहा है। अगर सभी लोग, मेहनतकश किसान और नौजवान एक साथ अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे तो सरकार को अपनी जनविरोधी नीतियां वापस लेने और जनता के पक्ष में नीतियां बनाने के लिए मजबूर किया जा सकता है।

(अभिषेक आज़ाद दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में शोधछात्र और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं।)

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