निरंकुशता के पैमाने पर भारत सबसे आगे, 80 साल के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आतंकी बता डाला जेल में

अमर्त्य सेन कहते हैं, "भारत में निरंकुश शासन का विरोध कठिन होता जा रहा है, पर समस्या यह है कि पूरी दुनिया में निरंकुशता और तानाशाही एक वैश्विक महामारी की तह फैलती जा रही है। इसी वैश्विक निरंकुशता के बीच भारत की सरकारी निरंकुशता कहीं दब जाती है....

Update: 2020-10-28 14:03 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

हमारे देश में तो चाय जैसे साधारण पेय को भी प्रधानमंत्री जी ने जनता से छीन लिया है और उसपर अपने एकाधिकार कर लिया है। चाय पर चर्चा तो शुरू होकर बंद भी हो गई, इसके बाद से शायद ही कोई आन्दोलनकारी अपने आन्दोलन को चाय से जोड़ने का काम करेगा। पर, पूर्वी एशिया के तीन देशों – हांगकांग, थाईलैंड और ताइवान - में इन दिनों युवा आन्दोलनकारी दूध वाली चाय का आन्दोलनों में सांकेतिक इस्तेमाल कर रहे हैं। इन तीनों देशों के आन्दोलनकारी एक-दूसरे के अनुभवों से सबक ले रहे हैं, और लगातार एक दूसरे से जुड़े हैं और एक आन्दोलनों का एक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग शुरू किया है, जिसका नाम है "मिल्क टी अलायन्स"।

हांगकांग, ताइवान और थाईलैंड में प्रदर्शन और विरोध के कारण अलग हैं, तीनों देशों की भाषाएँ अलग हैं, मांगें अलग हैं और यहाँ तक कि आन्दोलनों की पृष्ठभूमि भी अलग है – फिर भी इन देशों में चल रहे आन्दोलनों के व्यापक कारण एक ही हैं, प्रजातंत्र को बचाना। इन दिनों हांगकांग की तर्ज पर थाईलैंड में आन्दोलन चल रहे हैं, सभी प्रदर्शनकारी काले कपडे पहनते हैं, मोटी टोपी लगाते हैं और प्रदर्शन के स्थान की सूचना निर्धारित समय के ठीक पहले सोशल मीडिया पर घोषित की जाती है, जिससे पुलिस को स्थान की पहले से कोई सूचना ना हो। भीड़ यह सुनिश्चित करती है कि सबसे आगे खड़े प्रदर्शनकारियों के पास कोविड 19 से बचाव के लिए हरेक सुरक्षा उपकरण हो। हांगकांग में लम्बे समय से आन्दोलन किये जा रहे हैं, अधिकतर प्रदर्शनकारी नेता पकड़कर जेल में डाले जा चुके हैं, फिर भी आन्दोलन चल रहा है।

इन तीनों देशों के प्रदर्शनकारी ऑनलाइन लगातार एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, एक-दूसरे को सलाह देते हैं, दूसरे देशों में जाकर सडकों पर प्रदर्शनकारियों का साथ देते हैं, मुकदमे के दौरान न्यायालयों में भी मदद पहुंचाते हैं। तीनों देशों में निरंकुश शासन है और आन्दोलनकारियों के दमन के लिए कुख्यात हैं, इसलिए आन्दोलनकारी युवाओं को आन्दोलन के नए रास्ते तलाशने पड़ते हैं और इसी काम में मिल्क टी अलायन्स सबसे अधिक मदद करता है। चाय तीनों देशों में लोकप्रिय है, पर आश्चर्य यह है कि हरेक देश में अलग तरीके से बनाई जाती है। हांगकांग में गर्म चाय लोकप्रिय है, जबकि थाईलैंड और ताइवान में ठंडी चाय पी जाती है।

सबसे आश्चर्य यह है कि तीनों देशों में किये जा रहे आन्दोलन पूरी तरह से अहिंसक हैं। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया के अधिकतर आन्दोलन अहिंसक रहे हैं और अहिंसक आन्दोलनों के बुनियादी तथ्य महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग ने लगभग एक सदी पहले विकसित कर लिए थे। अब तो दुनियाभर में सविनय अवज्ञा और असहयोग जैसे शब्द भी प्रचलित हो चुके हैं। आज की युवा पीढी अहिंसक आन्दोलनों में भी नयापन ला रही है। आन्दोलनों का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी एक नयी परंपरा है। अमेरिका में रंगभेद विरोधी आन्दोलनों को पूरे यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड, कनाडा जैसे देशों से भरपूर समर्थन मिल रहा है। कनाडा जैसे देशों की सरकारें भी इन आन्दोलनों के समर्थन में बयान दे रही हैं। अब तो हांगकांग, थाईलैंड और ताइवान के आन्दोलनों के समर्थन में भी बहुत सारी सरकारें और दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ता खड़े हैं।

दुनिया के अधिकतर देशों की तरह हमारे देश का लोकतंत्र भी निरंकुश शासन में बदल चुका है। हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि निरंकुशता में भी हम सबसे अंत तक पहुँच चुके हैं, जहां सरकार ने मीडिया, चुनावी तंत्र, न्यायालयों, सुरक्षा बलों, पुलिस और जांच एजेंसियों को पूरी तरह अपने नियंत्रण में कर लिए है। बेलारूस जैसे घोषित तानाशाही, हांगकांग जैसे चीन के नियंत्रण या फिर थाईलैंड जैसे राजशाही में भी आन्दोलनों और सरकार की नीतियों के विरोधियों का दमन इस तरह नहीं किया जाता जैसे भारत में किया जा रहा है। हमारे देश की सरकार तो एक पूरे राज्य को एक साल से अधिक समय तक बंधक रखती है और इन्टरनेट को दुनिया में सबसे अधिक प्रतिबंधित करती है।

दुनिया की तानाशाही और राजशाही में भी आज तक इतने राजद्रोही या फिर आतंकवादी नहीं घोषित किये जाते जितने हमारे देश में महज एक वर्ष में घोषित कर दिए जाते हैं। लगभग सभी मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में पड़े हैं और ऐसे सभी संगठन या तो बंद कर दिए गए या देश से बाहर भेज दिए गए। जनता के साथ तो देश की सरकार ऐसा सलूक कर ही रही है, राजनैतिक विपक्षियों पर भी लगातार प्रहार करती है। इसके बाद भी विडम्बना यह है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज भी हमें दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और यहाँ के निरंकुश शासन की अन्तराष्ट्रीय स्तर पर शायद ही कोई बात होती है।

हाल में ही नोबल पुरस्कार प्राप्त और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ अमर्त्य सेन को जर्मन बुक ट्रेड ने वर्ष 2020 का शांति पुरस्कार प्रदान किया है। इस पुरस्कार को ग्रहण करते समय अपने भाषण में डॉ अमर्त्य सेन ने भारत के निरंकुश शासन और आन्दोलनों पर विस्तार से बताया। डॉ अमर्त्य सेन के अनुसार, "भारत में हालांकि सरकार आन्दोलनकारियों को अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार कर उन्हें आतंकवादी बता रही है, फिर भी आन्दोलनकारी महात्मा गाँधी द्वारा बताये गए अहिंसक आन्दोलन ही कर रहे हैं। विशेष तौर पर युवा छात्र नेता जो देश में नए सिरे से धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद कर रहे हैं, वे पूरी तरह अहिंसा के दायरे में रहकर अपना आन्दोलन कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के छात्र नेता, उम्र खालिद, को संभावित आतंकवादी बताकर पुलिस ने पकड़ा और जेल में डाल दिया। इसके बाद भी अपने वक्तव्यों में उमरखालिद कभी हिंसा की बात नहीं करते। खालिद के अनुसार यदि पुलिस लाठियों से पीटे तो हाथों में तिरंगा थाम लो और यदि वे बंदूकों का उपयोग करें तो हाथ में संविधान को उठा लो।"

डॉ अमर्त्य सेन आगे कहते हैं, "भारत में निरंकुश शासन का विरोध कठिन होता जा रहा है पर समस्या यह है कि पूरी दुनिया में निरंकुशता और तानाशाही एक वैश्विक महामारी की तह फैलती जा रही है। इसी वैश्विक निरंकुशता के बीच भारत की सरकारी निरंकुशता कहीं दब जाती है। हरेक देश में निरंकुशता के बहाने अलग हैं – फिलीपींस में इसे मादक पदार्थों की तस्करी रोकने का नाम दिया गया है, हंगरी की सरकार इसे शरणार्थियों को रोकने का तरीका कहती है, पोलैंड में इसे समलैंगिकता पर प्रहार का नाम दिया गया है और ब्राज़ील में इसका कारण भ्रष्ट व्यवहार को नियंत्रित करना है। जाहिर है हरेक देश हरेक देश में सरकारी निरंकुशता के पैमाने और इनके विरुद्ध आवाज उठाने के तरीके भी अलग होंगे।"

डॉ अमर्त्य सेन के अनुसार, "वर्ष 1963 में डॉ मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने जेल से भेजे गए एक पत्र में लिखा था – दुनिया के किसी भी कोने में यदि अन्याय किया जा रहा है तो यह सार्वभौमिक न्याय व्यवस्था पर आघात है। उन्होंने यह भी आग्रह किया था कि आन्दोलन कैसा भी हो, किसी भी मांग के लिए किया जा रहा हो पर ध्यान रखना चाहिए कि अहिंसक हो। ऐसा ही आज के भारत में युवा छात्र नेता कर रहे हैं।"

दुनिया में जिस अहिंसक आन्दोलनों का प्रचलन बढ़ा है, उससे इसमें जनता का रुझान बढ़ा है, और समाज के हरेक वर्ग का प्रतिनिधित्व देखा जा रहा है। पर, भारत के आन्दोलनों की कहानी अलग है। डॉ. अमर्त्य सेन ने विभिन्न देशों में निरंकुशता के सरकारी बहानों का वर्णन किया है, पर हमारे देश में तो ऐसा कोई बहाना भी नहीं है, फिर भी विरोध में उठी आवाज राजद्रोह करार दी जाती है, 80 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी आतंकवादी बताकर जेल में बंद कर दिया जाता है। शायद इसीलिए हम निरंकुशता के पैमाने पर भी अन्य देशों से बहुत आगे है। गांधी जी ने तो अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को भगा दिया था, क्या हम उसी अहिंसा के बल पर निरंकुश शासकों को सत्ता से हटा पायेंगे?

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