उत्तराखंड में दोहरा रवैया : आम लोगों की बेदखली, परियोजनाओं के लिए 5,000 एकड़ से अधिक वन भूमि का डायवर्जन

शासन प्रशासन के खिलाफ आंदोलन करते पूछड़ी के ग्रामीण (फाइल फोटो)
सामाजिक कार्यकर्ता तरुण जोशी की टिप्पणी
देहरादून। उत्तराखंड में एक ओर सरकार अतिक्रमण के नाम पर आम नागरिकों को बेदखल करने की कार्रवाई कर रही है, वहीं दूसरी ओर बीते दस वर्षों में 5,000 एकड़ से अधिक वन भूमि को विभिन्न सरकारी और निजी परियोजनाओं के लिए डायवर्ट किया जा चुका है। इस विरोधाभासी नीति को लेकर अब सरकार की मंशा और नीयत पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
सरकारी पोर्टलों और सार्वजनिक रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 2016 से 2025 के बीच लगभग 1,950 से 2,200 हेक्टेयर (करीब 5,000 एकड़) वन भूमि को सड़क, बिजली लाइन, चारधाम परियोजना, पेयजल योजनाओं, उद्योगों और सैन्य ढांचे के लिए स्वीकृति दी गई है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा चारधाम सड़क परियोजना और अन्य सड़क निर्माण कार्यों का बताया जा रहा है।
इस वन भूमि डायवर्जन का सर्वाधिक असर उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और टिहरी जिलों में देखा गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि इतने बड़े पैमाने पर हुए वन कटान और भूमि परिवर्तन से पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन, जल संकट और पर्यावरणीय असंतुलन तेजी से बढ़ा है।
आम लोगों पर सख्ती, परियोजनाओं को खुली छूट
जहां एक ओर बड़ी परियोजनाओं को तेजी से पर्यावरण और वन स्वीकृतियां मिल रही हैं, वहीं दूसरी ओर आम लोगों के साथ सख्त और अमानवीय रवैया अपनाया जा रहा है। हल्द्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में रेलवे भूमि से अतिक्रमण हटाने के नाम पर सैकड़ों परिवारों को उजाड़ने की कार्रवाई ने पूरे प्रदेश में तीखी बहस छेड़ दी थी। सुप्रीम कोर्ट से फिलहाल अंतरिम राहत जरूर मिली है, लेकिन यह राहत स्थायी नहीं है।
इसी प्रकार चारधाम सड़क परियोजना, ऋषिकेश–कर्णप्रयाग रेल लाइन, बाईपास और एलिवेटेड रोड जैसी परियोजनाओं के चलते कई इलाकों में सैकड़ों घर तोड़े गए। प्रभावित परिवारों का आरोप है कि उन्हें पूरा मुआवजा और स्थायी पुनर्वास आज तक नहीं मिला।
वनाधिकार कानून की अनदेखी
प्रदेश में कई ऐसे वन गांव और राजस्व गांव हैं, जहां लोग बीते 50 से 70 वर्षों से निवास कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद आज तक उन्हें वनाधिकार कानून 2006 के तहत भूमि अधिकार नहीं दिए गए। उल्टे, कई स्थानों पर उन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर जबरन बेदखल करने की कार्रवाई की गई।
रामनगर का पुछड़ी मामला: कानून के खुले उल्लंघन का आरोप
ताजा मामला रामनगर के पुछड़ी क्षेत्र का है, जहां ग्रामीणों के घरों पर बुलडोजर चलाकर उन्हें ध्वस्त कर दिया गया। जबकि ग्राम पूछड़ी में पिछले वर्ष ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति का विधिवत गठन हो चुका है। कानूनन जब तक वनाधिकार निर्धारण की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक किसी भी ग्रामीण को उसके भूमि और आवास से बेदखल नहीं किया जा सकता।
इसके बावजूद 07 दिसंबर 2025 को सुबह 5 बजे वन विभाग और जिला प्रशासन द्वारा बलपूर्वक बेदखली की कार्रवाई शुरू कर दी गई।
क्षेत्र के 39 लोगों को उच्च न्यायालय से स्थगन आदेश प्राप्त होने के बावजूद उनकी भूमि पर भी कार्रवाई की गई, जो कि न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में आता है।
यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि वर्ष 1966 में पूछड़ी को आरक्षित वन घोषित करने से संबंधित बंदोबस्त अधिकारी की रिपोर्ट स्वयं वन विभाग के पास उपलब्ध नहीं है, जिसे विभाग ने राज्य सूचना आयोग में स्वीकार भी किया है। इसका अर्थ यह है कि वन विभाग के पास यहां किसी प्रकार का वैधानिक अधिकार ही नहीं है।
गांव को जीरो ज़ोन घोषित, गिरफ्तारी और मारपीट के आरोप
कार्रवाई के दौरान ग्राम को जीरो ज़ोन घोषित कर मीडिया और आम नागरिकों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। 29 से अधिक ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को शांति भंग के आरोप में नोटिस जारी कर गिरफ्तारियां की गईं, कई लोगों को हिरासत में लिया गया है।
ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति की अध्यक्ष श्रीमती धना तिवारी और सदस्य श्रीमती सीमा तिवारी को स्टे आदेश दिखाने के बावजूद कथित तौर पर मारपीट कर हिरासत में लिया गया। अन्य कई ग्रामीणों के साथ भी मारपीट के आरोप हैं और उन्हें मेडिकल परीक्षण से भी रोका जा रहा है।
यह सब ऐसे समय हो रहा है जब उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि वनाधिकार कानून, 2006 के तहत सुनवाई पूरी होने से पहले कोई भी बेदखली नहीं की जाए।
दोहरा मापदंड और सामाजिक न्याय का सवाल
सामाजिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार की नीति साफ तौर पर दोहरे मापदंड को दर्शाती है। उनका सवाल है—
जब हजारों हेक्टेयर वन भूमि बड़ी परियोजनाओं को दी जा सकती है, तो वर्षों से बसे लोग अवैध कैसे हो गए?
ग्राम सभाओं की सहमति कई मामलों में केवल औपचारिकता क्यों बनकर रह गई?
बड़े उद्योगों और परियोजनाओं के लिए पर्यावरण कानून लचीले, जबकि आम नागरिकों के लिए सख्त क्यों हैं?
विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला केवल वन और पर्यावरण का नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और संवैधानिक अधिकारों से सीधा जुड़ा हुआ है। एक ओर विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं और दूसरी ओर उन्हीं जंगलों में दशकों से रह रहे लोग बेघर किए जा रहे हैं।
सवाल यह है—
क्या उत्तराखंड में कानून सिर्फ आम लोगों पर ही लागू होता है, और बड़े प्रोजेक्ट कानून से बाहर हैं।
(तरुण जोशी वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, उत्तराखंड के अध्यक्ष हैं।)










