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राष्ट्रीय

कोरोनाकाल में दाने-दाने को मोहताज प्रवासी मज़दूर, रेलवे के मजदूर के पास रेल से गाँव लौटने तक के पैसे नहीं

Janjwar Desk
1 Jun 2021 1:26 PM GMT
कोरोनाकाल में दाने-दाने को मोहताज प्रवासी मज़दूर, रेलवे के मजदूर के पास रेल से गाँव लौटने तक के पैसे नहीं
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कोरोनाकाल में दाने-2 को मोहताज हो रहे हैं प्रवासी मज़दूर, रेलवे वर्कशॉप के मजदूर के पास रेल से गाँव लौटने तक के पैसे नही. (फ़ोटो में राजस्थान में फँसे हुये जगन्नाथ अपने दो साथी कामगारों के साथ)

कभी कोई खाना बांटने आ जाता है तो कभी-कभी एक वक्त के खाना का जुगाड़ हो जाता है। तारकेश्वर बताते हैं कि अब वो परिवार के साथ घर लौट जाना चाहते हैं। उनका कहना है कि घर लौट कर खेतों में काम कर कम से कम अपने परिवार को दो वक्त की रोटी तो दे पाएंगे।

सौरभ कुमार की रिपोर्ट

जनज्वार। कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के बाद कोरोना संक्रमण की रफ़्तार कुछ थमती तो दिख रही है, लेकिन इसका प्रभाव सभी राज्यों में अलग-अलग है। देश के लगभग सभी राज्यों में राज्य सरकारों द्वारा लॉकडाउन लगाया गया है और समय-समय पर लॉकडाउन की अवधि बढ़ाई जा रही है। इसी बीच ब्लैक फंगस, व्हाइट फंगस, येलो फंगस के मामले भी बढ़ रहे हैं। इस सब के बीच देश के मेहनतकश मजदूर पिसते नजर आ रहे हैं।

पिछले साल 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन लगने के बाद हजारों- लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर अलग-अलग जगहों से पैदल अपने घरों की ओर निकल पड़े। हजारों किलोमीटर पैदल चल कर ये अपने घरों को पहुँचे। मजदूरों के पलायन की भयावह तस्वीर हम सब ने देखी। कितने ही मजदूरों ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया। देशव्यापी लॉकडाउन समाप्त होते ही आर्थिक तंगी से गुजर रहे इन प्रवासियों के परिवार व पेट की जरूरतों ने इन्हे फिर से काम पर लौटने को मजबूर कर दिया। कोविड-19 की दूसरी लहर आने के बाद अपने घरों से काम पर लौटे ये प्रवासी मजदूर कोरोना की दूसरी लहर के चलते अलग-अलग राज्यों में लॉकडाउन लगने और कल-कारखानें बंद होने से फिर से बेरोजगार हो गए हैं। इन मजदूरों की आजीविका पर संकट आ गया है।

मुजफ्फरपुर के तारकेश्वर लॉकडाउन के चलते हो गये बेरोजगार-

एक कहानी है बिहार के मुजफ्फरपुर से निकल कर परिवार के साथ ओडिशा काम करने गए तारकेश्वर की। तारकेश्वर अपने छोटे भाई के साथ उड़ीसा के भुवनेश्वर में स्थित मंचेश्वर रेल वर्कशॉप जहां रेल के डब्बे बनाये जाते हैं में अलग-अलग निर्माण कार्यों में मजदूरी का काम करता था। तारकेश्वर फोन पर बात करते हुए बताते हैं कि एक दिन अचानक पुलिस ने उस वर्कशॉप का काम बंद करवा दिया। जिसके बाद करीब 20 दिनों से तारकेश्वर और उसका भाई घर पर बेरोजगार बैठा है। तारकेश्वर ने आगे बात करते हुए बताया कि उसे प्रतिदिन 280 रूपये के हिसाब से प्रति सप्ताह मजदूरी मिलती थी। इस तरह देखें तो तारकेश्वर की महीने की कुल कमाई 7280 रुपए थी। लेकिन यह कमाई भी किसी महीने कम काम मिलने के कारण कम हो जाती थी। इस छोटी सी तनख्वाह में तारकेश्वर उड़ीसा में साथ रह रहे पांच सदस्यों वाले परिवार का पेट भरता है। वह बिहार के मुजफ्फरपुर में रह रहे मां-बाप और एक बहन के भरण पोषण के लिए भी हर महीने तीन से चार हजार रुपए भेजता है। साथ ही साथ बड़ी हो रही बहन की शादी की जिम्मेदारी भी है। इन सब खर्चों के बीच बचत का कोई सवाल ही नहीं उठता।

बिहार सरकार द्वारा जारी राशनकार्ड से उड़ीसा में नही मिला राशन

लॉकडाउन में तारकेश्वर अपने परिवार का पेट भर सकने की स्थति में नही है। पिछले लॉकडाउन में भी तारकेश्वर और उनका परिवार भुवनेश्वर में ही था। लेकिन उस वक्त काम दिलाने वाला कांट्रेक्टर दो महीने काम बंद रहने की स्थिति में कुल खाने-पीने के खर्च में आधा खर्च दे दिया करता था। लेकिन इस बार उस कांट्रेक्टर ने ये कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि उसके द्वारा लिए गए काम का बिल पास नहीं हुआ है। तारकेश्वर को इस बीच मजदूरों के बीच काम करने वाली किसी हेल्प लाइन का नंबर मिल गया। जिससे संपर्क करने पर उसे खाने-पीने के लिए करीब 2500 रुपए की मदद मिल गई और करीब दस दिनों से वह उसी पैसे से अपने पांच सदस्यों वाले परिवार का पेट भर रहा है, जिसमे उसका एक छोटा बच्चा भी शामिल है। तारकेश्वर ने बताया कि उसके पास बिहार सरकार द्वारा जारी डिजिटल राशन कार्ड भी है। जब वह राशन दुकान पर राशन लेने गया तो डीलर ने यह कहते हुए भगा दिया कि वह बिहार में जाकर अपना राशन ले। उसने बताया कि उड़ीसा सरकार की तरफ से भी इन प्रवासी मजदूरों की सुध लेने अभी तक कोई नही आया है। कभी कोई खाना बांटने आ जाता है तो कभी-कभी एक वक्त के खाना का जुगाड़ हो जाता है। तारकेश्वर बताते हैं कि अब वो परिवार के साथ घर लौट जाना चाहते हैं। उनका कहना है कि घर लौट कर खेतों में काम कर कम से कम अपने परिवार को दो वक्त की रोटी तो दे पाएंगे। साथ ही किसी भी तरह की मुश्किल घड़ी में उसके घर के सभी लोग और गांव वाले उसके साथ तो होगें। लेकिन तारकेश्वर के पास अपने परिवार के साथ घर लौटने के लिए पैसे नहीं हैं। वे रेल का टिकट लेकर परिवार के साथ घर पहुंचने की स्थति में नही हैं।

रेलवे वर्कशॉप में मजदूरी करने वाले तारकेश्वर के पास रेल का किराया देने के पैसे नही-

यह भी अजीब विडंबना है कि रेल फैक्ट्री में काम करने वाले श्रमिक के पास खुद रेल में सफर करने के पैसे नहीं है। तारकेश्वर ने बताया कि उन्होंने मजदूरों के बीच काम करने वाले एक संस्था "माइग्रेंट वर्कर सॉलिडेरिटी नेटवर्क" नामक संस्था से संपर्क कर टिकट की व्यवस्था करने का अनुरोध किया है। तारकेश्वर जैसे कितने ही मजदूर इन हालातों से गुज़र रहे हैंl

भारतीय रेलवे मे काम करने वाले मजदूरों को भी नहीं मिलती है न्यूनतम मजदूरी-

"न्यूज क्लिक" में 26 जनवरी 2019 में प्रकाशित एक रिर्पोट के अनुसार देश भर में करीब 1 लाख कामगार भारतीय रेलवे में कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहें हैं, जिसमें से करीब 77% को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती है। यह डाटा "न्यूज क्लिक" ने भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक की एक रिपोर्ट के आधार पर बताया है।

वैशाली के जगन्नाथ भी राजस्थान में दाने- दाने को हो गये हैं मोहताज-

इसी तरह बिहार के वैशाली जिले के पातेपुर गांव से काम के तलाश में राजस्थान गये जगन्नाथ भी अपने अन्य दो साथियों बलराम और किशन के साथ फंसे हुए हैं। जगन्नाथ ने भी फ़ोन पर बात करते हुए बताया कि 24 मार्च 2020 को देश भर में लगाये गये लॉकडाउन से दो दिन पहले ही‌ वह घर पहुंच गए थे। लेकिन परिवार का भरण-पोषण करने और पेट की आग ने लॉकडाउन खत्म होते ही काम की तलाश में फिर से राजस्थान के सलामगढ़ जाने को मजबूर कर दिया। जगन्नाथ सलामगढ़ में अपने बाकी के साथियों के साथ रंग-रोगन का काम करते थे। दूसरी वेव के कारण अचानक पूरे राजस्थान में लॉकडाउन लगाये जाने से जगन्नाथ और उनके दो साथी बलराम और किशन के सामने भूखमरी की स्थिति पैदा हो गई। जगन्नाथ ने फोन पर बात करते हुए बताया कि मजदूरी में मिलने वाले पैसों को घर भेज दिया था। अब खुद के खाने के लाले पड़े हुए हैं। घर की स्थिति भी ठीक नही है। घर से भी पैसे नही मँगवा सकते। पांच सद्स्यों वाले परिवार में जगन्नाथ एक मात्र कमाने वाले हैं।

किसी भी तरह घर लौटना चाहते हैं जगन्नाथ-

जगन्नाथ और उनके साथी के पास जब सलमगढ़ में भूखों मरने की नौबत आ गई तो बांसवाड़ा में रह रहे एक अन्य साथी ने अपने पास कुछ दिन रहने को बुला लिया। जगन्नाथ बताते हैं कि लॉकडाउन में यातायात की हर सुविधा बंद होने के कारण वहां पहुंचना मुश्किल था। इस कारण रात के दो बजे ब्रेड पहुंचाने वाली वैन से चुपके से किसी तरह बांसवाड़ा पहुंचे। लेकिन वहां भी वही परिस्थिति है। अब वहां भी जीवन यापन में आफत हो रही है। अब जगन्नाथ और उनके साथी किसी भी तरह घर लौट जाना चाहते हैं। वे अब भी किसी मदद की बाट जोह रहें हैं।

देश के अलग-अलग राज्यों में ऐसे कितने ही मजदूर आज जीवन और मौत के बीच जंग लड़ रहे। जो किसी एक ऐसे मददगार की बाट जोह रहे हैं जो उन्हें दूर देश से घर पहुंचा दे।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का नहीं दिख रहा कोई असर-

प्रवासी मजदूरों के संकट पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुऐ 24 मई को केन्द्र सरकार, सभी राज्यों की सरकार व केन्द्र शासित प्रदेशों को सभी प्रवासी मजदूरों को सूखा राशन या दो वक्त का खाना बिना कोई शर्त उपलब्ध कराने या सामूहिक रसोई की व्यवस्था करने का निर्देश दिया है। प्रवासी मजदूरों पर एक याचिका पर सुनवाई करते हुऐ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई थी। इस समय प्रवासी मजदूरों को तुरंत मदद की आवश्कयता है लेकिन सरकारें पंजीकरण की लंबी प्रक्रिया में उलझ गयी हैं। जिसके तहत जरूरतमंदों तक लाभ पहुँचने में काफी समय लगेगा।

सवाल उठता है कि क्या सरकार मजदूरों को लेकर गंभीर है? रिर्पोट लिखे जाने तक तारकेश्वर अपने परिवार के साथ और जगन्नाथ अपने साथियों के साथ किसी मदद की उम्मीद में बैठे हुए है और बिडम्बना की बात यह है कि अब तक उन्हें सरकार की तरफ से कोई मदद नही मिली है।

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