अब जबकि दुर्गापूजा और मोहर्रम दोनों बीत चुके हैं तो कहा जा सकता है कि तृणमूल सरकार द्वारा दंगों—फसादों के नाम पर सनसनी फैलाना एक राजनीतिक शिगूफा से ज्यादा नहीं था...
दार्जिलिंग से मुन्ना लाल प्रसाद की रिपोर्ट
पश्चिम बंगाल में दुर्गोत्सव के बाद मूर्ति विसर्जन एवं मुहर्रम आखिरकार बिना किसी विघ्न बाधा के शांतिपूर्वक संपन्न हो ही गया। हिंदू—मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोगों ने मिल-जुलकर आपसी भाईचारे के साथ अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप शांतिपूर्वक अपने त्योहार मनाये। साथ ही तमाम राजनीतिक पार्टियों को संदेश दिया कि आप लोग धर्म को लेकर चाहे जितनी राजनीति करें, हमें आपस में बांटने का काम करें, लड़ाने का प्रयास करें, हम न तो बंटेंगे न लड़ेंगे, बल्कि आपस में मिल-जुलकर हर त्योहार को हंसते-हंसते खुशीपूर्वक मनायेंगे।
जनता ने संदेश दिया अपने फायदे के लिए धर्म के नाम वोट के लिए हमारे अंदर दरार न पैदा करें। हमें अपना धर्म प्रिय है तो भाईचारा भी। हम एक दूसरे के सुख-दुख में हमेषा से साथ रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
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इस बार दुर्गा पूजा और मुहर्रम एक ही समय होने के कारण पश्चिम बंगाल में सरकार ने मूर्ति विसर्जन के समय को लेकर छेड़छाड़ करने का काम किया था। सरकारी आदेशानुसार दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर 30 सितंबर को शाम छह बजे से एक अक्टूबर तक रोक लगा दी गई थी। पूजा कमिटी वालों ने इसे अपनी आस्था पर आघात मानते हुए इस आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी।
कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस मुद्दे पर ममता सरकार को फटकार लगाते हुए राज्य के महाधिवक्ता से बड़े ही तीखे व चुभते सवाल पूछे। खंडपीठ ने पूछा कि किस वजह से प्रतिबंध विसर्जन पर लगाया गया है? क्या तथ्य है कि विसर्जन व मुहर्रम साथ होने से कानून व्यवस्था बिगड़ेगी? खंडपीठ ने कहा कि राज्य प्रशासन ने दुर्बलता को ढकने के लिए विसर्जन पर रोक लगाई है। प्रतिबंध की ठोस वजह बताये।
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दशहरा और मुहर्रम एक दिन होता तो क्या होता? सौहार्द खतरे में होने की आशंका जता क्या साम्प्रदायिक विभेद पैदा नहीं किया जा रहा है? आप आशंका व धारणा को आधार बना सकते हैं, परंतु इसको किसी पर थोप नहीं सकते। आशंका के आधार पर मौलिक अधिकार नहीं छीन सकते। इस तरह इन तीखे सवालों में ही बहुत ऐसी बातें समाहित है जो आज की राजनीति की दिशा निर्धारित करती है।
जन समस्याओं से विमुख आज की राजनीति ऐसे गलियारों में भटक रही है जहां केवल अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकी जा रही है। किसी भी विशेष समुदाय को वोट बैंक में बदलने के लिए उसके प्रति निरर्थक हमदर्दी जताना, यह दिखाना कि हम तुम्हारे लिए हर तरह से खड़े हैं, आज आम बात हो गयी है। इसी राजनीति की कड़ी है अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति।
हालांकि ऐसी राजनीति से किसी भी समुदाय को लाभ नहीं मिलता। इससे रोजी-रोटी की समस्याएं नहीं हल होती। नहीं कोई किसी विशेष धर्म को लाभ ही मिलता है। धार्मिक उन्माद जरूर पैदा होता है। इस तरह की राजनीति करने में कोई भी दल पीछे नहीं है। लेकिन पश्चिम बंगाल में सबसे आगे है तृणमूल कांग्रेस।
तृणमूल सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक तरफ तो कहती हैं कि राज्य में धार्मिक सौहार्द का माहौल है, यहां सभी लोग मिल-जुलकर रहते हैं, वहीं दूसरी ओर निराधार किसी विशेष समुदाय का हमदर्द बनने के लिए कुछ ऐसा मुद्दा उठा देती हैं जो विवाद का मुद्दा बन जाता है।
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इस बार भी मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबंध का मुद्दा कुछ ऐसा ही था। केवल पश्चिम बंगाल में ही नहीं, पूरे देश में दशहरा और मुहर्रम का समय एक है, लेकिन किसी राज्य ने ऐसा प्रतिबंध लगाने का काम नहीं किया। क्या कारण है कि जब पश्चिम बंगाल में सौहार्दपूर्ण वातावरण में सब लोग रहते हैं तो इस तरह का प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता महसूस हुई? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सिर्फ किसी समुदाय पक्ष का हमदर्द बनने का प्रयास हो?
हालांकि यह भली-भांति पता था कि यह मामला कोर्ट में जायेगा और कोर्ट में सरकार को फटकार लगेगी, क्योंकि पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। फिर भी यह जानते हुए ऐसा करने का मतलब क्या हो सकता है? बार-बार यहां की मुख्यमंत्री यह घोषणा करती हैं कि राज्य में किसी को धार्मिक उन्माद फैलाने नहीं दी जायेगा, जबकि स्वयं ऐसा कदम उठाती हैं जिससे सामाजिक सदभावना को ठेस पहुंचती है या दूसरों को धर्म के नाम पर राजनीति करने का अवसर मिलता है।
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अब जबकि सब शांतिपूर्वक संपन्न हो गया तब तो यह प्रमाणित हो गया कि राज्य सरकार की आशंका निर्मूल थी। यह सिर्फ हौवा खड़ा करने का प्रयास था।