पिछले कुछ समय से शिक्षा को परीक्षा से आजाद करने के प्रयोग भी हो रहे हैं। ठीक भी है और हर प्रयोग की तरह इसका स्वागत किया जाना चाहिए बजाय इसके कि परीक्षा और भारी भरकम बनायी जाए...
प्रेमपाल शर्मा
स्कूल भेजने के पीछे शहरी कामकाजी मध्यवर्ग की सोच यह है कि बच्चों को स्कूल भेजने से कम से कम कुछ घंटे तो उनकी खटर-पटर, हुड़दंग से मोहलत मिलेगी। उन्हें दिनभर संभाले भी कौन? और यह भी कि स्कूल में कुछ तो सीखेंगे। इसी सोच का विस्तार है जब यही मध्यवर्ग बच्चे के दो साल पूरे होने से पहले प्ले स्कूल में डालता है, फिर नर्सरी, फिर के.जी.। यानी विधिवत स्कूल शुरू होने से पहले ही और दो-तीन तरह के स्कूलों की कवायद।
पिछले कुछ समय से शिक्षा को परीक्षा से आजाद करने के प्रयोग भी हो रहे हैं। ठीक भी है और हर प्रयोग की तरह इसका स्वागत किया जाना चाहिए बजाय इसके कि परीक्षा और भारी भरकम बनायी जाए। लेकिन जब शिक्षा को परीक्षा से मुक्ति दिलाई जा रही है तो एक प्रयोग स्कूल के बंधन से मुक्ति का भी सोचा जा सकता है। परीक्षा से मुक्ति के पीछे भी दर्शन तो बच्चे की समझ को स्वाभाविक रूप से पल्लवित, पोषित करना है और यह यदि स्कूलों की चारदीवारों से बाहर हो, और पूरा समाज भी पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में शामिल हो तो क्या बुरा है?
क्या कोटा या इसके कोचिंग क्लासों की सफलता इसी घर स्कूल की व्यवस्था का बाजारीकृत रूप नहीं? धड़ल्ले से चल रहे हैं और इनमें लाखों पढ़ रहे हैं। बाजारू सफलता के सबसे अच्छे परिणाम भी दे रहे हैं। यहां कोचिंग या ट्यूशन को बढ़ावा देने की वकालत करना नहीं है बल्कि उस विकल्प की तलाश है जिसे समाज मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के जंगल से गुजरते हुए खुद ही चुन चुका है।
शायद ही शहरों में किसी का बच्चा हो जो ट्यूशन या कोचिंग के लिये नहीं जाता हो। यानि वही ‘घर स्कूल’ से मिलता-जुलता विकल्प। कोटा की सफलता का सबसे महत्वूपर्ण तथ्य भी इसकी पुष्टि करता है। कोटा में आई.आई.टी., मेडिकल की तैयारी करने वाले बच्चों को स्कूल जाने की अनिवार्यता नहीं है। वे केवल बोर्ड की परीक्षाओं या प्रेक्टिकल परीक्षा जैसे अवसर पर ही स्कूल का मुंह देखते हैं। स्कूल जितना कम जाना सफलता उतनी ही ज्यादा।
‘नो नॉलिज, विदाउट कॉलेज’ जैसे जुमले हमने बचपन में सुने थे, लेकिन उन्हीं दिनों हमने सैंकड़ों ऐसी विभूतियों के बारे में भी सुना था जिनकी शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई। रवीन्द्र नाथ ठाकुर, संपूर्णानंद, रामचंद्र शुक्ल से लेकर विदेशी डार्विन और दूसरे अनेक वैज्ञानिकों, कलाकार तक। माना कि इनमें से कई के पास घर पर शिक्षक बुलाने की संपन्नता, सुविधाएं थीं, लेकिन एक विकल्प तो था कि जब चाहे तब पांचवीं, सातवीं या आठवीं में दाखिला ले सकते हैं। उस दाखिले के लिए भी स्कूल या शिक्षक कुछ न कुछ परीक्षा तो लेते ही थे।
दाखिलों की अंधी दौड़ में तो इसे और प्रोत्साहन देने की जरूरत है विशेषकर जब एक तरफ सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का पढ़ने-पढ़ाने के प्रति रवैया ही ठंडा हो रहा हो और निजी स्कूल दाखिले के नाम पर मनमानी कर रहे हों। क्या हकीकत यह नहीं है कि निजी चमकीले अंग्रेजी स्कूलों में कोई भी पैसे और प्रभुत्व वाला निदेशक, प्राचार्य या शिक्षक बन सकता है?
घर स्कूल में एक खतरा यह हो सकता है जैसे ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित स्कूलों से पहले मदरसे, गुरुकुल अपने-अपने ढंग से शिक्षा देते थे जो कई बार अवैज्ञानिकता और कूप मंडूकता को और बढ़ा देती थी यह खतरा फिर आ सकता है। लेकिन इसकी संभावना 21वीं सदी में उतनी नहीं है। यहां उन अभिभावकों पर भरोसा किया जा सकता है जिनकी शिक्षा औपचारिक राष्ट्रीय स्कूलों में हुई है; जिन्हें पाठ्यक्रम की थोड़ी बहुत समझ है।
ऊपर से उन्हें अनिवार्य रूप से उन्हीं किताबों, पाठ्यक्रमों को पढ़ने, पढ़ाने की अनुमति दी जायेगी जो एन.सी.ई.आर.टी. या राज्यों की सरकार ने बनाये हैं। विशेषकर तब जब छठी या नवीं क्लास में अनिवार्य रूप से उन्हें औपचारिक स्कूलों में तो एक प्रवेश परीक्षा के माध्यम से आना ही पड़ेगा, तब वे स्वयं उन्हीं किताबों या व्यवस्था को अपनायेंगे। बस उन्हें स्कूल न आने, बड़ी-बड़ी फीस भरने से आजादी और मिलेगी।
निश्चित रूप से गरीबी या जो पढ़े-लिखे नहीं हैं उन्हें दिक्कतें आ सकती हैं क्योंकि वे अपने बच्चों को घर पर पढ़ाने में सक्षम नहीं हैं। लेकिन इन्हें तो सरकारी स्कूल उपलब्ध हैं ही या उनकी संख्या थोड़ी और बढ़ाई जाये। रही अमीरों की बात वे अपने बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम घर पर करें कोचिंग सैंटर भेजें या पैसे के बूते स्कूल जाएं।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी इन औपचारिक परम्परागत स्कूलों को यातनागृह या जेल की संज्ञा दी है। इन स्कूलों के बारे में यहां गांधीजी की बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है। वे लिखते हैं कि- ‘पोरबंदर में मुझे भी स्कूल भेजा जाता थ । वहां मुश्किल से कुछ पहाड़े सीखे होंगे लेकिन और लड़कों के साथ गुरूजी को गाली देना जरूर सीख गया था।’
और तो और बीसवीं सदी की समाप्ति पर प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका टाईम ने भी जिन व्यवसायाओं के बंद होने की बात की थी उसमें शिक्षक और स्कूल दोनों ही शामिल हैं। सूचना क्रांति और ज्ञान के लोकतांत्रीकरण के बाद तो टाईम्स पत्रिका की भविष्यवाणी और भी स्टीक लगती है। परम्परावादी भारतीय समाज में तो घर-स्कूल और भी सार्थक भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि परिवार दुनियाभर में बच्चों की पहली पाठशाला है। भारत में तो और भी ज्यादा।
विश्वविद्यालय के स्तर पर हमने विकल्प खोजे हैं। दिल्ली में ही स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग है, नॉन कॉलिजियेट है, पत्राचार पाठ्यक्रम है, इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय है और देशभर में सैंकड़ों विश्वविद्यालय प्राइवेट डिग्री की सुविधा देते हैं। बी.एड. या शिक्षक की डिग्री तो बरसों से लगातार प्राइवेट हैं ही जिसका लाभ अनेक सामाजिक, आर्थिक कारणों से लड़कियां, महिलाएं उठा रही हैं। वे अपने पैरों पर खड़ी भी हुई हैं। घर बैठे शिक्षा पाने के विकल्प से अब तो कई विश्वविद्यालय विज्ञान की डिग्री भी घर बैठे पढ़ने की सुविधा देते हैं।
दिसंबर 13 में दिल्ली सरकार ने जो एक तर्कसंगत फार्मूला बनाया था जिसमें घर से दूरी एक महत्वपूर्ण कारक थी उसे हाईकोर्ट की पहले एक सदस्यीय बैंच और फिर दो सदस्यीय बैंच ने सही नहीं पाया। यानि कि हर निजी स्कूल आजाद कि वे दाखिला किसी को भी दे या न दें उनकी मर्जी और नियम बना सकती है।
यह मामला पिछले कई वर्ष से एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट में चल रहा है। गांगुली समिति भी बनी, उसकी सिफारिशें ज्यादातर जनता को पसंद आयी सिर्फ निजी स्कूलों के प्रबंधकों और पैसे वाले मां-बाप को छोड़कर मगर फिर बेताल ताल पर। कोर्ट ने किसी भी नियम प्रणाली को यह कहकर खारिज किया है कि यह स्कूल की आजादी के मूल अधिकार का उल्लंघन है। इसीलिये सरकार चाहे तो पूरे स्कूल, कॉलेज संस्था की अनिवार्यता पर भी पुनर्विचार कर सकती है।
(प्रेमपाल शर्मा शिक्षा के मसलों पर पिछले 30 वर्षों से लिख रहे हैं।)