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विमर्श

मुनाफे में चल रही सरकारी चाय फैक्ट्री में ताला लगा रही सरकार

Janjwar Team
2 Feb 2018 2:54 PM GMT
मुनाफे में चल रही सरकारी चाय फैक्ट्री में ताला लगा रही सरकार
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चाय उत्पादन में मुनाफे के कारोबार को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने 2004 में किया था उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड का गठन, फिर मुनाफे में चल रही फैक्ट्री पर क्यों जड़ा ताला...

हल्द्वानी से गिरीश चंदोला की रिपोर्ट

उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में चाय उत्पादन की असीम सम्भावनाओं को देखते हुए सरकारी स्तर से चाय उत्पादन को लेकर जो ताना-बाना बुना गया, वह अपने शुरुआती दौर में तो काफी फायदेमंद रहा। चाय उत्पादन में मुनाफे के कारोबार को देखते हुए सरकार ने 2004 में जिस उत्तराखण्ड चाय विकास बोर्ड का गठन किया, असल में बोर्ड के गठन के पीछे सरकार का मुख्य मकसद प्रदेश में चाय उत्पादन के कारोबार को बढ़ावा देना था।

यही कारण रहा कि कुमाऊं मण्डल विकास निगम गढ़वाल मण्डल विकास निगम से चाय उत्पादन का कारोबार हटाकर इसे चाय बोर्ड के अधीन कर दिया गया। सन् 2001 से बागेश्वर जिले के कौसानी चाय फैक्टरी से शुरू हुआ चाय उत्पादन का सफर अपने बढ़ते समय के साथ बढ़ता चला गया और 2013 तक कौसानी चाय फैक्ट्री के तहत उत्पादित चाय उत्तरांचल टी के नाम से बाजार में दिखाई देती रही, लेकिन 2014 के आते आते चाय फैक्ट्री की हालत बिगड़ने लगी और 2014 में इस फैक्ट्री में ताला लग गया।

यहां सवाल यह है कि जो चाय फैक्ट्री बीते 13 वर्षों तक भरपूर मुनाफा अर्जित करती रही उसमें अचानक ऐसा क्या हो गया कि फैक्ट्री को बन्द करना पड़ा। फैक्ट्री के बन्द होते ही वहा कार्यरत करीब एक हजार मजदूर सड़कों पर आ गए। अब एक बार फिर फैक्ट्री की बन्दी के पीछे रहे कारणों की जांच का जिम्मा उद्यान सचिव सैंथिल पाण्डियन को सौंपा गया है।

यह माना जा रहा है कि जांच के बाद मुनाफे में चल रही कौसानी चाय फैक्ट्री को गर्त की ओर ले जाने वाले ऐसे तमाम दोषियों के नाम सामने आने के साथ ही उनके खिलाफ कार्यवाही भी सम्भव हो सकेगी।

गौरतलब है कि वर्ष 1994-95 में कुमाऊं व गढ़वाल मंडल विकास निगम के तहत सरकार ने चाय प्रकोष्ठ की नींव रखी, जिसके अंतर्गत कौसानी और उसके 10 किलोमीटर के दायरे में 211 हैक्टेयर जमीन का चयन चाय के बागान के लिये किया गया, जिसमें 50 हेक्टेयर जमीन पर प्रकोष्ठ ने चाय बागान विकसित किये जो 2001 के आते आते पूरी तरह से व्यवसायिक चाय उत्पादन के लिये तैयार हो गये थे।

चाय की अच्छी पैदावार को देखते हुये 2001 में चाय प्रकोष्ठ ने एक निजी कंपनी गिरीराज को कौसानी में चाय की फैक्ट्री लगाने के लिये न्यौता दिया। चूंकि कुमाऊं में कुमाऊं मंडल विकास निगम के पास चाय बागानों की देखरेख का जिम्मा था इसलिये निगम और कंपनी के बीच कुछ शर्तों के साथ अनुबंध हुये, जिसके तहत अनुबंध अगले पच्चीस वर्ष तक जारी रहने की शर्त रखी गयी और चाय फैक्टी लगाने का 89 प्रतिशत खर्चा गिरीराज कंपनी को वहन करना होगा, जबकि फैक्टी के ढ़ांचे को खड़ा करने में जो लागत आएगी उसकीे 11 प्रतिशत की धनराशि सरकार यानिकी निगम द्वारा कंपनी को दिया जायेगा।

अनुबंध पर तय किया गया कि गिरीराज जो चाय बागान में तैयार करेगी उसे बाजार में 'उत्तरांचल टी' के नाम से उतारा जायेगा। अनुबंध के ठीक एक वर्ष बाद 2002 अप्रैल से लेकर नवंबर तक करीब 50 हैक्टेयर में विकसित चाय बागान से 70 हजार 588 किलोग्राम कच्ची पत्तियां उत्पादित हुई। इस तरह एक हैक्टेयर में 1400 किलोग्राम चाय की कच्ची पत्तियां उत्पादित हुई।

फैक्टी के अनुसार उसने 2002 में 50 हैक्टेयर में उत्पादित कच्ची पत्तियों से 13 हजार 995 किलोग्राम चाय तैयार की और उत्तरांचल टी के नाम से बाजार में उतारी। चाय के बागानों से अच्छा उत्पादन और मुनाफे के कारोबार को देखते हुये सरकार ने इस कारोबार को कुमाऊं मंडल विकास निगम और गढ़वाल मंडल विकास निगम से हटाकर 2004 में एक अलग से चाय विकास बोर्ड का गठन किया, जिसका मुख्यालय अल्मोड़ा में बनाया गया।

वर्ष 2013 तक उत्तराखंड चाय विकास बार्ड ने 211 हैक्टेयर भूमि में पूर्ण विकसित चाय बागानों से औषतन ढाई लाख किलोग्राम कच्ची पत्तियां एकत्रित की और उत्तराखंड टी कंपनी प्राइवेट लिमिटेड को उपलब्ध करायी। ये वो दौर था जब चाय फैक्टी अपने विकास की रफ्तार में थी और बागान भी जमकर उत्पादन दे रहे थे।

धीरे—धीरे हालात इतने बिगड़े कि जून 2014 को मुनाफे में चल रही फैक्टी ने दम तोड़ दिया और फैक्टी पर ताला लगते ही एक हजार के करीब बागानों में काम कर रहे मजदूर एक झटके में बेरोजगार हो गए।

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