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विमर्श

सांप्रदायिकता विरोध भ्रष्टाचारियों के समर्थन की पहली शर्त

Janjwar Team
27 July 2017 10:06 AM GMT
सांप्रदायिकता विरोध भ्रष्टाचारियों के समर्थन की पहली शर्त
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क्या भारतीय राजनीति की दिशा उस दशा में पहुंच चुकी है जहां आप भ्रष्टाचार या सांप्रदायिकता में से किसी एक को चुन रहे हैं, दोनों से अलग कोई विकल्प भारतीय राजनीति में इन दिनों नहीं आ रहा...

धनंजय कुमार

लालू समर्थक और धर्मनिरपेक्षता के कथित अलंबरदार भले कहें कि नीतीश कुमार ने सत्ता की खातिर सिद्धांतो के साथ समझौता कर लिया और नरेन्द्र मोदी की गोद में जा बैठे, लेकिन नीतीश कुमार के मौजूदा विरोधियों के सुर में सुर मिलाने से पहले यह विचार करने की जरूरत है कि क्या नीतीश कुमार ने वाकई ऐसा सिर्फ सत्ता पाने के लिए किया?

नीतीश कुमार महागठबंधन के निर्विवाद नेता थे और इस नेता पद के लिए उन्हें किसी से चुनौती भी नहीं थी, इतना ही नहीं, मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें विपक्षी गठबंधन के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किए जाने का माहौल भी था, फिर भी नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होने का निर्णय लिया, तो यह गंभीर विमर्श का विषय है.

देश की आजादी के कुछ वर्ष बाद ही स्वतन्त्रता संग्राम की पवित्रता और देशभक्ति का गर्व दरकने लगा था. नेताओं के करप्शन उजागर होने लगे थे और दो दशक बीतते बीतते सत्ता के शिखर पर बैठी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह कहना पड़ा था कि आर्थिक विकास होगा, तो भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं रहा जा सकता.

लालू प्रसाद तब इंदिरा गांधी के खिलाफ थे और देश को कांग्रेस मुक्त बनाने की लड़ाई लड़ रहे थे. लेकिन सत्ता पाने के कुछ साल बाद ही लालू प्रसाद यादव खुद भ्रष्टाचार के पर्याय बन गए ! और आज स्थिति-परिस्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि लालू प्रसाद खुद यह बोल रहे हैं कि भ्रष्टाचार से बड़ा है अत्याचार ! भावार्थ यह कि भ्रष्टाचार कोई इश्यू नहीं है !

क्या वाकई भ्रष्टाचार इश्यू नहीं है ?

बिहार में लालू के खिलाफ नीतीश कुमार का उदय ही भ्रष्टाचार और गुंडाराज के खिलाफ हुआ था तो फिर कैसे मान लिया जाय कि भ्रष्टाचार इश्यू नहीं है. साम्प्रदायिकता के उभार को रोकने के लिए बीजेपी से मुंह मोड़कर नीतीश कुमार ने जब लालू प्रसाद से गठबंधन किया था, तब ज्यादातर लोगों ने, यहाँ तक कि नीतीश कुमार के कट्टर समर्थकों ने भी नाराजगी जताई थी कि नीतीश कुमार ने यह गलत किया.

लालू प्रसाद यादव के साथ किसी भी कीमत पर नहीं जाना चाहिए था. और सरकार बनते ही लालू प्रसाद का कुनबा जब शासन में मुख्य भागीदार बन बैठा, तब नीतीश कुमार पर छींटाकशी और तेज हुई कि नीतीश ने सत्ता पाने की खातिर नैतिकता से समझौता कर लिया ; जिस लालू विरोध की वजह से वह बिहार के मुख्यमंत्री बने, उसी लालू की गोद में जा बैठे !

बावजूद इसके विधानसभा चुनाव में बिहार की पब्लिक ने नीतीश कुमार की छवि को देखते हुए गठबंधन को वोट दिया. लगा था कि लालू भी सत्ता से बाहर रहकर बदल गए हैं. तेजस्वी ने भी अपने पिता की राजनीतिक शैली के विपरीत नीतीश का अनुशरण किया, लेकिन जब सीबीआई ने लालू प्रसाद के भ्रष्टाचार की जड़ खोदना शुरू किया तो भ्रष्टाचार की गिरफ्त में तेजस्वी भी फंसे दिखे.

नीतीश कुमार की अपेक्षा थी कि तेजस्वी आगे आये और इस्तीफा सौंप दे. लेकिन लालू प्रसाद यादव ने ऐसा नहीं होने दिया.

लालू प्रसाद से ऐसी अपेक्षा भी नहीं थी, लेकिन कांग्रेस से यह अपेक्षा थी कि वह लालू पर दबाव बनाए और तेजस्वी का इस्तीफा करवाए, लेकिन कांग्रेस ने भी नीतीश कुमार की छवि से ज्यादा अहमियत लालू प्रसाद के वोटबैंक को दी. जबकि भ्रष्टाचार के दलदल में बुरी तरह धंसे और फंसे कांग्रेस के लिए यह एक स्वर्णिम मौक़ा था कि वह लालू के बजाय नीतीश के साथ खड़ा होती और भ्रष्टाचार के उस पाप को धोती, जिसकी वजह से उसे साम्प्रदायिक बीजेपी से जबरदस्त शिकस्त मिली. निःसंदेह कांग्रेस ने बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में एक बड़ा मौक़ा गँवा दिया. लेकिन ऐसा उसने क्यों किया ?

कांग्रेस बाद में सफाई देगी, लेकिन लालू प्रसाद ने रात में ही अपने पहले प्रेस कांफ्रेंस में बता दिया कि भ्रष्टाचार से बड़ा है अत्याचार ! और अत्याचार का मतलब सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिकता से है?! यह इस देश की गजब विडम्बना है कि साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता के झमेले में यहाँ आम जनता से लेकर बुद्धिजीवियों तक का ध्रुवीकरण हो जाता है. नैतिकता की बात करने वाले बुद्धिजीवी भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बचाव में आ जुटते हैं ! वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस या लालू यादव, शरद पवार और मायावती की धुलाई नहीं कर पाते !

बेशक साम्प्रदायिकता हमारे देश और समाज के लिए खतरनाक है, लेकिन इसकी आड़ में नेताओं के तमाम तरह के अपराध और पाप को छुपा लेना भी कम खतरनाक नहीं है ! 80 के दशक के बाद की कांग्रेस ने इसी को ढाल बनाकर अपने तमाम पाप छुपाये. लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने अपनी दौलत और वंशबेल को फैलाया. लेकिन मूल सवाल है मुसलमानों को क्या मिला ?

कांग्रेस ने मुसलमानों के साथ जिस तरह की राजनीति की, उसी राजनीति को मुलायम और लालू ने भी अपनाया. मुसलमानों को सम्प्रदायवाद का भय दिखाकर सिर्फ अपना वोटबैंक बनाया. और स्थिति आज यहाँ आ पहुँची है कि तमाम तरह के पाप के बावजूद लालू प्रसाद यादव आम मुस्लिम समाज के नायक हैं. यादव अपने नायक बदल सकते हैं लेकिन मुसलमानों के सामने कोई विकल्प नहीं है ?

और यह स्थिति मुस्लिम समाज और देश दोनों के लिए खतरनाक है. आज देश का सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार है. नेताओं और मंत्रियों की तो छोडिए, उनकी दलाली करनेवाला भी धनवान है, लेकिन आम आदमी, हिन्दू हो या कि मुसलमान, दो जून की रोटी के लिए भी लाचार है. चिकित्सा से लेकर शिक्षा तक, हालत बाद से बदतर है. क्यों? क्या इसके लिए साम्प्रदायिकता दोषी है या इसके लिए दोषी है सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार ?

कांग्रेस मध्यमार्गी पार्टी है, इसलिए अभी उसके सामने एक अच्छा अवसर था अपना चेहरा धोने का कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ भी उसी तरह है, जिस तरह से वह साम्प्रदायिकता के खिलाफ रही है, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा. क्यों ?

क्योंकि भ्रष्टाचार कांग्रेस के लिए भी मुद्दा नहीं है, उसके लिए असली मुद्दा है साम्प्रदायिकता, इससे उसे मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिलता है. उसके सारे पाप इसी ओट की वजह से छुपते हैं. लेकिन यह राजनीति आखिरकार देश के लिए घातक है, इसे बुद्धिजीवियों के साथ साथ आम मुसलमानों को भी समझना होगा. इस आधार पर वह न तो साम्प्रदायिकता को रोक सकते हैं और न विकास की गाड़ी को गति दे सकते हैं.

साम्प्रदायिकता को चुनौती भ्रष्टाचार से लड़कर ही दी जा सकती है. देश में जब चिकित्सा से लेकर शिक्षा तक के हालात सुधरेंगे, तभी सबका भला होगा, मुसलमानों का भी. मुस्लिमवाद के दम पर अब आप देश में हिन्दूवाद के उफान को नहीं रोक सकते. हिन्दूवाद के उफान को ज़हरीला होने से रोकना है, तो भ्रष्टाचार से दो दो हाथ करना होगा. नैतिकता का हाथ पकड़ना होगा. नीतीश कुमार ने आज की परिस्थिति में इसे समझा.

नैतिकता के तकाजे पर नीतीश कुमार ने राजनीति के मौजूदा दोनों ही किनारों को आजमाया, लेकिन महसूस हुआ कि बीजेपी के साथ चलना बनिस्पत सरल है.

(पत्रकारिता से अपना करियर शुरू करने वाले धनंजय कुमार मुंबई में स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन के पदाधिकारी हैं।)

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