अक्खड़ से दिखने वाले गिर्दा राजनीति की रखते थे कितनी गहरी समझ, झलकता है उनके गीतों से
ज़िंदगी के अनुभवों की भट्टी में तपकर गिरीश चंद्र तिवारी से "गिर्दा" तक का सफर तय करने वाले गिर्दा ने तात्कालिक मुददों के साथ ही जिस शिद्दत से भविष्य के गर्भ में छिपी तमाम दुश्वारियों को पहचाना था, वह दुश्वारियां आज भी राज्य में बनी हुई हैं
जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' को उनकी 11वीं पुण्यतिथि पर याद कर रहे हैं सलीम मलिक
रामनगर, जनज्वार। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन को अपने गीतों के माध्यम से अलग धार देने वाले जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' के बिना उत्तराखण्ड ने ग्यारह साल का सफर तय कर लिया है। ग्यारह सालों के इस सफर के दौरान गिर्दा का एक भी वह सपना राज्य के नीति नियंता पूरा नहीं कर पाए, जिन सपनों को आंखों में लिए हर उत्तराखंडी के दिलों पर राज करने वाले जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" ने 22 अगस्त 2010 को हमेशा के लिए आंखें मूंदकर अपने चाहने वालों से विदा ली थी।
बहुप्रतिभा के धनी गिरीश चंद्र तिवारी 'गिर्दा' उत्तराखंड राज्य के एक बहुचर्चित पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, संस्कृति एवं प्रकृति प्रेमी, साहित्यकार और आंदोलनकारी थे। 'जनगीतों के नायक' गिर्दा का जन्म 9 सितम्बर 1945 को अल्मोड़ा जनपद के ज्योलि गाँव में हुआ था। गिर्दा ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा अल्मोड़ा में ही संपन्न की।
युवा अवस्था में वह रोजगार की तलाश में पीलीभीत, अलीगढ तथा लखनऊ आदि शहरों में रहे। लखनऊ में बिजली विभाग तथा लोकनिर्माण विभाग आदि में नौकरी करने के कुछ समय पश्चात ही गिर्दा को वर्ष 1967 में गीत और नाटक विभाग, लखनऊ में स्थायी नौकरी मिल गयी। इसी नोकरी के कारण गिर्दा का आकाशवाणी लखनऊ में आना जाना शुरू हुआ और उनकी मुलाकात शेरदा अनपढ़, केशव अनुरागी, उर्मिल कुमार थपलियाल, घनश्याम सैलानी आदि से हुई।
युवा रचनाकारों के सानिध्य में गिर्दा की प्रतिभा में निखार आया और उन्होंने कई नाटकों की प्रस्तुतियाँ तैयार की जिनमें गंगाधर, होली, मोहिल माटी, राम, कृष्ण आदि नृत्य नाटिकाएँ प्रमुख हैं। गिर्दा ने दुर्गेश पंत के साथ मिलकर वर्ष 1968 में कुमाउँनी कविताओं का संग्रह 'शिखरों के स्वर' प्रकाशित किया। जिसका दुसरा संस्करण वर्ष 2009 में 'पहाड़' संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया है। गिर्दा ने कई कविताओं और गीतों की धुनें भी तैयार की।
गिर्दा ने नाटकों के निर्देशन में भी अपना हाथ आजमाया और 'नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ, अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा' आदि नाटकों का सफल निर्देशन किया। नगाड़े खामोश हैं और धनुष यज्ञ स्वयं गिर्दा द्वारा रचित नाटक हैं। इसी दौरान वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकने के लिए चलाये गए 'चिपको आंदोलन' ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, गिर्दा भी अपने आप को इस जनांदोलन से न रोक सके और इस आंदोलन में एक जनकवि के रूप में कूद पड़े। उन्होंने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और नीलामी की विरोध में लोगों को जागरूक करने और एकजुट करने के लिए गिर्दा कई गीतों की रचना की।
गिर्दा ने उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलनों में भी अपने गीतों द्वारा सक्रियता दिखाई। उनके गीतों ने जन जागरूकता फैलाई और इन्हें एक बड़ा जनांदोलन बनाने में सहायता की। गिर्दा ने अपने जीवन में समय समय पर वन, शराब एवं राज्य आंदोलन को अपने गीतों तथा आवाज से जीवंत किया था। प्रसिद्ध लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ की गई गिर्दा की जुगलबंदी ने देश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी ख्याति दिलाई। राज्य निर्माण से ठीक पहले उनका लिखा गीत —
"कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी, राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो। हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥
राज्य के प्रति उनकी दूरदृष्टि का परिचायक था। अक्खड़ से दिखने वाले राजनीति की कितनी गहराई से समझ रखते थे, यह उन्होंने इस गीत में बखूबी दिखा दिया था।
चिपको आंदोलन में उनकी जुबान से निकले गीत
आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ
जागौ-जागौ हो म्यरा लाल
नी करण दियौ हमरी निलामी
नी करण दियौ हमरो हलाल"
ने आंदोलन में प्राण ही डाल दिये थे।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान आंदोलन की आवाज बने उनके इस गीत
"ततुक नी लगा उदेख,
घुनन मुनई नि टेक,
जैंता एक दिन तो आलो
उ दिन यो दुनी में।
जैं दिन कठुलि रात ब्यालि
पौ फाटला, कौ कड़ालौ
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन चोर नी फलाल,
कै कै जोर नी चलौल,
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
जै दिन नान-ठुल नि रौलो,
जै दिन त्योर-म्यारो नि होलो,
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।
चाहे हम नि ल्यैं सकूँ, चाहे तुम नि ल्यै सकौ।
मगर क्वे न क्वे तो ल्यालो उ दिन यो दुनी में।
वि दिन हम नि हुँलो लेकिन
हमलै वि दिनै हुँलो।
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।"
इस गीत ने तो राज्य आंदोलकारियों में नई आशाओं का संचार किया था।
राज्य बनने के बाद गिर्दा की मौत से महज दो साल पहले 2008 में नदी बचाओ आंदोलन के दौरान निकाली गई यात्रा में शामिल हर आंदोलनकारी के साथ यात्रा में खुद भी शामिल गिर्दा ने जब इन शब्दों के साथ नदी के दर्द को उकेरा तो लगा राज्य की नदियां भी अपनी धारा की कल-कल की आवाज से इस गीत के सुर में सुर मिला रही हों।
अजी वाह!
क्या बात तुम्हारी?
तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी।
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो।
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो।
उफ!
तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी।
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती।
महल-चौबारे बह जायेंगे,
खाली रौखड़ रह जायेंगे।
बूँद-बूँद को तरसोगे जब,
बोल व्योपारी-तब क्या होगा ?
नगद-उधारी-तब क्या होगा ?
आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो।
गंगा को कीचड़ कर डालो,
लेकिन डोलेगी जब धरती।
बोल व्योपारी-तब क्या होगा?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी-तब क्या होगा?
योजनकारी-तब क्या होगा ?
नगद-उधारी-तब क्या होगा ?
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ,
एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ,
एक तरफ हो तुम।
ज़िंदगी के अनुभवों की भट्टी में तपकर गिरीश चंद्र तिवारी से "गिर्दा" तक का सफर तय करने वाले गिर्दा ने तात्कालिक मुददों के साथ ही जिस शिद्दत से भविष्य के गर्भ में छिपी तमाम दुश्वारियों को पहचाना था, वह दुश्वारियां आज भी राज्य में बनी हुई हैं।
दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। वह राजनीति की बारीकियों को जितनी सहजता से खुद समझते थे, उतनी सहजता से वह दूसरों को भी बातों-बातों में कब समझा जाते थे, यह समझने वाले के लिए भी हैरानी भारी बात थी। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे अहसास के लिए नाकाफी हैं।