हिंदू धार्मिक जुलूस भड़काऊ और मुसलमानों का अपमान करने वाले नारों के साथ जानबूझकर निकाले जाते हैं मुस्लिम बहुल इलाकों से !

जहाँ तक हिन्दू त्योहारों का प्रश्न है, वे सदियों से देश की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने वाले कारक रहे हैं. इसका एक प्रमाण तो यह है कि अधिकांश हिन्दू त्यौहार मुग़ल दरबारों में भी मनाये जाते थे और आम मुसलमान भी इनमें हिस्सा लेते थे...

Update: 2024-11-08 16:26 GMT

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हिन्दू त्योहारों के बहाने हिंसा और नफरत फ़ैलाने की कैसे की जाती है कोशिश, बता रहे हैं वरिष्ठ लेखक राम पुनियानी

सांप्रदायिक हिंसा भारतीय समाज का अभिशाप है. पूर्व-औपनिवेशिक काल में कभी-कभार नस्लीय विवाद हुआ करते थे. मगर अंग्रेजों के आने के बाद धर्म और कौम के नाम पर विवाद और हिंसा बहुत आम हो गए. अंग्रेजों ने अतीत को तत्कालीन शासक के धर्म के चश्मे से देखने वाला सांप्रदायिक इतिहास लेखन किया. यहीं से वे नैरेटिव बने जिनसे हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक सोच और धाराएँ उभरीं. इन दोनों धाराओं ने अपने-अपने हितों को साधने के लिए आम सामाजिक समझ के अपने-अपने संस्करण विकसित किये और धर्म के नाम पर हिंसा भड़काने की नयी-नयी तरकीबें ईजाद कीं.

पिछले करीब तीन दशकों में सांप्रदायिक हिंसा और तनाव में बहुत तेजी से बढोत्तरी हुई है. अध्येता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और शोधार्थी बहुसंख्यक समुदाय का साम्प्रदायिकीकरण करने और हिंसा भड़काने के नयी तरीकों को समझने के प्रयास में लगे हुए हैं.

निर्भीक पत्रकार कुणाल पुरोहित ने अपनी अनूठी और विचारोत्तेजक पुस्तक ‘एच-पॉप’ में हमारा ध्यान उन पॉप गानों की ओर खींचा है, जो राष्ट्रीय आन्दोलन के नायकों - विशेषकर महात्मा गाँधी और नेहरु - व मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला रहे हैं. पुरोहित चेतावनी देते हैं कि हिन्दुत्ववादी पॉप गायक, उत्तर भारत की सामाजिक फिज़ा में नफरत घोल रहे हैं.

इस पुस्तक के बाद, इसी मुद्दे पर केन्द्रित एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है. इसका शीर्षक है: “वेपोनाइज़ेशन ऑफ़ हिन्दू फेस्टिवल्स”. इसके लेखक इरफ़ान इंजीनियर और नेहा दाभाड़े हैं और इसे फारोस मीडिया ने प्रकाशित किया है. दोनों लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व शोधार्थी हैं और लब्धप्रतिष्ठित लेखक व समाजसुधारक डॉ असगर अली इंजीनियर द्वारा स्थापित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सेकुलरिज्म एंड सोसाइटी से जुड़े हुए हैं. यह सेंटर लम्बे समय से सांप्रदायिक हिंसा की बदलती प्रकृति और बढ़ती उग्रता का अध्ययन करता रहा है. हिन्दू धार्मिक उत्सवों, विशेषकर रामनवमी, के दौरान हिंसा भड़काए जाने के मद्देनज़र लेखक द्वय का फोकस उस तंत्र और क्रियाविधि पर है, जिसके ज़रिये हिन्दू त्यौहार, मुसलमानों को डराने और उनके प्रति आक्रामकता के प्रदर्शन के मौके बन गए हैं और इसके नतीजे में किस तरह हिंसा और ध्रुवीकरण हो रहा है.

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जहाँ तक हिन्दू त्योहारों का प्रश्न है, वे सदियों से देश की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने वाले कारक रहे हैं. इसका एक प्रमाण तो यह है कि अधिकांश हिन्दू त्यौहार मुग़ल दरबारों में भी मनाये जाते थे और आम मुसलमान भी इनमें हिस्सा लेते थे. मुझे याद है कि बचपन में मेरे लिए रामनवमी कितनी ख़ुशी का अवसर होती थी. मैं जुलूस के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाता था.

यह पुस्तक सन 2022-23 में त्योहारों, विशेषकर रामनवमी, के अवसर पर निकाले जाने वाले जुलूसों के दौरान भड़काई गई हिंसा की सूक्ष्म पड़ताल करती है. यह पड़ताल उन जांच दलों के अध्ययन और विश्लेषण पर आधरित हैं, जिन दलों के सदस्यों में लेखकगण शामिल थे. हिंसा की जिन घटनाओं को पुस्तक में शामिल किया गया है वे हैं: हावड़ा व हुगली, संभाजी नगर, वड़ोदरा और बिहारशरीफ व सासाराम (सभी 2023) एवं खरगोन, हिम्मत नगर व खम्बात व लोहरदगा (सभी 2022).

यह पुस्तल इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह हिंसा रोकने में मददगार हो सकती है. वह हमें बताती है कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सद्भाव बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि हिंसा भड़काने का जो नया तरीका विकसित किया गया है उससे मुकाबला किया जाए. पुस्तक की भूमिका में इरफ़ान इंजीनियर लिखते हैं: “हिन्दू राष्ट्रवादियों का छोटा सा समूह भी धार्मिक जुलूस के नाम पर अल्पसंख्यक-बहुल इलाके से भीड़ में निकलने के अपने अधिकार पर जोर देगा. जब यह कथित जुलूस ऐसे इलाके से गुज़र रहा होगा तब राजनीतिक और अपमानजनक नारे लगाकर और भड़काऊ संगीत या गाने बजा कर यह कोशिश की जाएगी कि कोई एक व्यक्ति भी प्रतिक्रिया में एक पत्थर उछाल दे. बाकी काम प्रशासन कर देगा. बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा और बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के उनके घर और संपत्तियां ढहा दी जाएँगी.”

इस तरह की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि अधिकांश मामलों में इन जुलूसों में भाग लेने वाले हथियार लिए होते हैं, इन जुलूसों को जान—बूझकर मुस्लिम-बहुल इलाकों से निकाला जाता है, तेज आवाज़ में संगीत बजाया जाता है और भड़काऊ व मुसलमानों का अपमान करने वाले नारे लगाए जाते हैं. अक्सर, कोई व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाली किसी मस्जिद के गुम्बद पर चढ़ कर हरे झंडे की जगह भगवा झंडा लगा देता है और नीचे खड़े लोग नाच कर और तालियाँ बजाकर इसका स्वागत करते हैं.

यह एक पूरा पैटर्न है, जिसका दोहराव 2014 में भाजपा के केंद्र में शासन में आने के बाद से बहुत तेजी से हो रहा है. इस सन्दर्भ में खरगोन (मध्यप्रदेश) की घटना महत्वपूर्ण है. वहां की राज्य सरकार के एक मंत्री ने कहा कि जुलूस पर फेंके गए पत्थर मुस्लिम घरों से आए थे और इसलिए उन घरों को पत्थर के ढेर में बदल दिया जाएगा. जुलूसों में भाग लेने वाले गुंडों और इन जुलूसों के आयोजकों को कोई डर नहीं होता, क्योंकि “सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का”.

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रामनवमी के जुलूसों के अलावा, स्थानीय त्योहारों पर निकाली जाने वाले यात्राओं, गंगा आरती, सत्संग और अन्य धार्मिक आयोजन भी इसी उद्देश्य से किये जाते हैं. कांवड़ यात्राओं के दौरान कांवड़ियों द्वारा अत्यंत आक्रामक ढंग से व्यवहार किया जाता है. जले पर नमक छिड़कते हुए इस साल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों ने यह आदेश जारी किये कि कांवड़ यात्राओं के रास्ते में खाने-पीने का सामान बेचने वाली सभी दुकानों में उनके मालिक के नाम के तख्ती लगाना आवश्यक होगा ताकि कांवड़िये मुसलमानों की दुकानों से सामान न खरीदें और उनकी होटलों में खाना न खाएं. सौभाग्यवश सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी.

इस तरह की घटनाओं से पहले से ही भयग्रस्त मुस्लिम समुदाय में और डर व्याप्त हो रहा है. इससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है और भय का वातावरण बन रहा है. त्योहार, जो आनंद और उत्सव के मौके होते हैं, का उपयोग डर और हिंसा फैलाने के लिए किया जा रहा है. पुस्तक कहती है कि सरकार और प्रशासन को सांप्रदायिक संगठनों के असली इरादों के प्रति जागरूक और सतर्क रहना चाहिए. जुलूसों में हथियार लेकर चलने, अल्पसंख्यक समुदाय को अपमानित व लांछित करने वाले गाने जोर-जोर से बजाने और डीजे के उपयोग को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. और यह सब करना कानून के अनुरूप होगा. हमारे देश में नफरत फैलाना अपराध है. धार्मिक त्योहारों का नफरत और हिंसा फैलाने के लिए दुरुपयोग रोकने में राज्य की महती भूमिका है.

ऐसी घटनाओं की समग्र जाँच, दोषियों के खिलाफ कार्यवाही और पीड़ितों को हुए नुकसान की भरपाई भी ज़रूरी है. इसके अलावा, हमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों, फिल्मों और वीडियो आदि के जरिये समाज में एकता और सद्भाव को प्रोत्साहन देने के लिए भी काम करना चाहिए. पुस्तक की प्रस्तावना में महात्मा गाँधी के पड़पोते तुषार गाँधी लिखते हैं कि हमारे समाज को विवेकपूर्ण, समावेशी और सहिष्णु बनाने के लिए गांधीजी की शिक्षाओं का व्यापक प्रसार किया जाना चाहिए. यह आज के समय में अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है.

(राम पुनियानी द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस लेखक का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया ने किया है। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी अवार्ड से सम्मानित हैं।)

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