बहुजन बोले पिछली बार मोदी ने की थी विकास और जातिमुक्त समाज की बात इसलिए दिया था भाजपा को वोट
आज वंचित तबके के लोग आँख मूँदकर नेता को फॉलो नहीं करते, वो देखते हैं कि नेता अपना निजी हित साध रहा है या समुदाय का....
सुशील मानव की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश दलित राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। यही वो प्रदेश है जहां से कोई दलित महिला तीन बार मुख्यमंत्री के पद तक पहुँची। अबकी बार प्रदेश से मायावती को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचाने की बात सपा-बसपा गठबंधन की ओर से की जा रही है। वहीं दलित समाज भी भाजपा द्वारा आरक्षण लाभ के मुद्दे पर पैदा की गई दरार के चलते जाटव-गैरजाटव में स्पष्ट बंटा दिख रहा है। मगर सवाल है कि सपा-बसपा गठबंधन क्या सचमुच इतनी सीटें ला पाएगा कि मायावती के लिए प्रधानमंत्री पद के दावेदारी पर दावा किया जा सके। इस पर हमने उत्तर प्रदेश के 5 और दिल्ली के एक महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्रों के दलित मतदाताओं की राय जानी।
बसपा अपने संघर्ष को दौर के लोगों से खाली हो चुकी है
यूपी के फूलपुर लोकसभा सीट पर जहां से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्या पहली बार सांसद चुने गए थे, उपमुख्यमंत्री बनने पर संसदीय सीट छोड़ने के बाद हुए उपचुनाव में बसपा समर्थित सपा प्रत्याशी ने जीत लिया था। इसी सीट पर जीत के बाद ही यूपी में सपा-बसपा गठबंधन की नींव पड़ी। फूलपुर लोकसभा सीट के मतदाता गुलाब चंद्र भारतीया कहते हैं- 'गठबंधन को हमारे समुदाय ने मन से स्वीकृति नहीं दी है। हम गेस्ट हाउस कांड को नहीं भूल सकते। वो कहते हैं मायावती ने सपा से आज इसलिए गठबंधन किया है क्योंकि लोकसभा और फिर विधानसभा में करारी हार के बाद मायावती खुद हाशिये पर चली गई थी।'
वहीं गुलाब चंद्र कहते हैं, 'मायावती ने इंद्रजीत सरोज, अशोक कुमार रावत, मनीष कुमार रावत जैसे दलित नेताओं और समर्पित पार्टी कार्यकर्ताओं को पार्टी से निकालकर अच्छा नहीं किया। बसपा अपने संघर्ष के दौर के समय के लोगों से पूरी तरह खाली हो चुकी है। दरअसल ये पार्टी भी अब ब्राह्मणों के अधीन हो चुकी है। बसपा अब सतीशचंद्र मिश्रा के बताए रास्ते पर चल रही है। दलित नेतृत्व को टिकट देने के बजाय बसपा अध्यक्ष पैसे वाले प्रत्याशियों को टिकट बेच रही है, मानो दलित वोटबैंक उनकी निजी प्रोपर्टी हो। मायावती गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात पहले से भी उठाती आई हैं और मोदी सरकार द्वारा लाए गए सवर्ण आरक्षण बिल को मायावती समर्थन करती हैं। ये एक तरह से दलित समुदाय के साथ धोखा है।'
किसे वोट दे रहे हैं आप? सवाल पर गुलाब चंद्र कहते हैं, फूलपुर से कई प्रत्याशी खड़े हैं। कई निर्दलीय प्रत्याशी बहुत ही ईमानदार और बेदाग़ छवि वाले हैं पर अफ़सोस कि उन्हें जनसमर्थन नहीं मिल सकेगा क्योंकि वो हर जगह पहुंच नहीं पाएंगे, न ही उनके पास इतने पैसे हैं कि वो प्रचार पर खर्च कर सकें।
दलित खुद को हिंदू समझते हैं
जौनपुर संसदीय सीट के मतदाता राकेश कुमार सरोज बताते हैं, 'पिछली बार भाजपा के कृष्ण प्रताप सरोज जीते थे। भाजपा ने इस बार भी उन्हें ही टिकट दिया है, जबकि गठबंधन की ओर से बीएसपी ने धनंजय सिंह को टिकट दिया है। राकेश कुमार सरोज बताते हैं कि पिछली बार उन्होंने भाजपा को वोट दिया था। क्यों दिया था इसका कारण वो बताते हैं कि मोदी ने जातिवाद से परे देश और विकास की बात की थी इसलिए हम उनके साथ गए।'
क्या दलित मतदाता ने भी सांप्रदायिक विभाजन के चलते मोदी को वोट दिया था? राकेश कुमार हां में सिर हिलाते हुए कहते हैं सच्चाई यही है कि दलित खुद को हिंदू मानते हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तर पर भले ही मुस्लिम पसमांदा और दलित एक जैसे हों, राजनीतिक स्तर पर पिछले चुनावों में बसपा द्वारा इन्हें एकसाथ लाने की पुरजोर कोशिश हुई थी, पर वो नाकाम हो गई इसी का नतीजा है कि लोकसभा में बसपा का एक भी प्रतिनिधि नहीं है जबकि यूपी विधानसभा में भी बसपा बद से बदतर स्थिति में पहुंच गई। जौनपुर सीट ओबीसी बाहुल्य होने के अलावा पासी और ठाकुर जाति की प्रमुखता से है।
निषाद समुदाय के लोग निषाद पार्टी के ही खिलाफ़
गोरखपुर सदर सांप्रदायिक राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील सीट है। पिछले 27 वर्षों से लगातार इस सीट पर गोरखनाथ मठ के मठाधीशों का कब्जा रहा है। 2018 के उपचुनाव में बसपा समर्थित सपा प्रत्यासी के जीतने से इस सीट से मठ की मठाधीशी टूटी है। यहां आजकल एक नारा जोरों से चला है- ‘मूलनिवासी बोल पचासी’। ये एक तरह से दलित, ओबीसी, आदिवासी समुदाय को एक साथ लाने की कोशिश है।
गोरखपुर के दीपक कुमार बताते हैं, मतदाता छले जाने से निराश और जागरुक हुए हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब निषाद पार्टी के मुखिया संजय कुमार निषाद ने कथित तौर पर 50 करोड़ रुपए लेकर भाजपा के साथ गठबंधन किया, तो निषाद समुदाय के लोग उनसे बहुत नाराज हुए और उनके खिलाफ नारेबाजी करते हुए उनके आवास पर तोड़फोड़ की। आज वंचित तबके के लोग आँख मूँदकर नेता को फॉलो नहीं करते, वो देखते हैं कि नेता अपना निजी हित साध रहा है या समुदाय का। यही कारण है कि निषाद समुदाय के लोग निषाद पार्टी के साथ भाजपा के साथ जाने के बजाय सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवार रामभुआल निषाद को सपोर्ट कर रहे हैं।
गौरतलब है कि गोरखपुर के उपचुनाव में निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद सपा उम्मीदवार के तौर पर भाजपा उम्मीदवार को हराकर सांसद बने थे। दूसरी ओर हिंदू युवा वाहिनी के सुनील सिंह भी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। योगी आदित्यनाथ ने उन पर रासुका लगाकार जेल भेजवा दिया था। गोरखपुर की ठाकुर लॉबी इससे भी योगी व भाजपा के खिलाफ है।
बहुजन नेता ही देश में संविधान लागू कर सकता है
प्रतापगढ़ संसदीय क्षेत्र ब्राह्मणवादी, सामंतवादी है। यहां से आज भी रानी राजा होते हैं। इस क्षेत्र में रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया की तूती बोलती है। राजा भैया की नवगठित पार्टी ‘जनसत्ता दल लोकतांत्रिक’ से उनके भाई अक्षय प्रताप सिंह चुनावी मैदान में हैं। कांग्रेस ने यहां से रानी रत्ना सिंह को उतारा है। भाजपा की ओर से संगमलाल गुप्ता, जबकि गठबंधन प्रत्याशी के तौर पर बसपा से अशोक त्रिपाठी चुनाव लड़ रहे हैं।
प्रतापगढ़ संसदीय सीट के मतदाता बसंत लाल पुश्तैनी तौर पर शादी व्याह में बाजा बजाने का काम करते हैं। वो कहते हैं प्रतापगढ़ सीट सामंतवादी समाज का एक आदर्श उदाहरण है। यहां कानून और प्रशासन की नहीं राजा की चलती है। यहां दिनदहाड़े, सिपाही, जेलर डीएसपी तक की हत्या हो जाती है। इसमें किसका हाथ है सबको पता होता है, लेकिन प्रशासन कभी उस तक पहुंच ही नहीं पाता। जब यूपी की सत्ता में मायावती थी तो यहां भी कानून और प्रशासन काम करने लगा था। राजा उस जगह पहुंच गए थे जहां उन्हें होना चाहिए था।
बसंत लाल कहते हैं संविधान को बहुजन नेता ही सही मायने में लागू कर सकता है, क्योंकि उनमें संविधान के प्रति अपार निष्ठा और सम्मान होता है, जबकि सवर्ण नेता तो संविधान से नफ़रत करते हैं क्योंकि संविधान ने उनके अमानवीय सामंती व्यवस्था को ध्वस्त करके बहुजनों को उनकी गुलामी से मुक्त करवा दिया है।
दिल्ली की चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र के मतदाता रमेश कुमार मोची के पुश्तैनी पेशे ले जुड़े हुए हैं। उनके दोनो बेटे भी इसी काम करते हैं। बिटिया अंबेडकर यूनिवर्सिटी से एमए कर रही है। रमेश कुमार कहते हैं, जीते कोई भी हम जो कर रहे हैं हमें वही करके कमाना खाना है। वैसे भी सारे दलित नेता तो भाजपा के साथ ही है, फिर सीधे मोदी को ही क्यों न वोट किया जाए।