भोजपुरी को भाषा बनाने की मांग करने वाले कौन लोग हैं, उनकी पहचान करनी जरूरी है, क्योंकि भोजपुरी को भाषा बनाने की मांग कभी उनकी ओर से नहीं आई, न उन्होंने कभी इलाकाई या राज्य स्तर पर कोई आंदोलन किया, जो इसको व्यवहार में लाते हैं, वही बोलकर अपना जीवन चलाते हैं...
प्रेमपाल शर्मा
गोरक्षा आंदोलन हमेशा शहरों के लोग करते हैं जो कभी गाय नहीं पालते और जो गाय पालते हैं वह कभी ऐसे आंदोलन में खड़े नहीं होते। वैसे ही भोजपुरी को भाषा बनाने की मांग कभी उनकी ओर से नहीं आई, न उन्होंने कभी इलाकाई या राज्य स्तर पर कोई आंदोलन किया, जो इसको बोलते हैं, व्यवहार लाते हैं या वही बोलकर अपना जीवन चलाते हैं। उनकी इच्छा बस इतनी—सी है कि उनका बच्चा पढ़ना सीख जाए और मौका लगे तो अच्छी अंग्रेजी जान ले।
फिर भोजपुरी को भाषा बनाने की मांग करने वाले कौन लोग हैं, उनकी पहचान करनी जरूरी है, क्योंकि गोरक्षक कभी गोपालक नहीं हो सकते। दोनों की जरूरत और जिम्मेदारियों में जमीन आसमान का फर्क है।
हिन्दी समेत सारी भारतीय भाषाए संकट के दौर से गुजर रही हैं। हताशा में लोग यह भविष्यवाणी तक कर देते हैं कि 2050 तक अंधेरा इतना घना हो जाएगा कि सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देगी। भविष्यवाणी की टपोरी बातों को न भी सुना जाए तो हिन्दी की मौलिक बौद्धिक, कथा उपन्यास की किताबों की छपाई-संख्या बता रही है कि अपनी भाषा, बोलियां हैं तो महासंकट में ही।
ऐसे में ‘जन भोजपुरी मंच’ का भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भाषाई, सांस्कृतिक मुद्दों से भटकाने और राजनीतिक प्रहसन से ज्यादा नहीं लगती। अवधी में तुलसी दास की मशहूर चौपाई इन्हीं के लिए कही गयी है ‘जाहि दैव दारूण दुख देई। ताकी मति पहले हर लेयी।‘’
थोड़ी देर के लिए अपनी बोली, शब्दों भाषा के जादू-रोमांच, सौन्दर्य, सुख, गीत-संगीत के पक्ष में खड़ा हुआ जाए तो यह भी इनसे पूछने का मन करता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले पचास-साठ सालों में हिन्दी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है शून्य की ओर बढ़ती। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश बिहार के लाखों हिन्दी भाषी छात्रों की बढ़ती संख्या हैरानी की हद तक। ये गरीब बेचारे दिल्ली की अंग्रेजी की चकाचौंध में मारे जाते हैं।
बी.ए. एम.ए में फेल होते हैं, अपनी पसंद का विषय अपनी भाषा हिन्दी माध्यम में उपलब्ध न होने की बजह से वे मन से दूसरे विषय पढ़ते हैं। क्या कभी इनकी आवाज तथाकथित भोजपुरी मंच, अकादमी या इनके नेता जैसे चेहरे, मुहरेवालों ने सुनी?
2016 की अंतिम खबर कि नेशनल ग्रीन ट्रिव्यूनल ने हिन्दी में लिखी शिकायत, आवेदन को लेने से मना कर दिया है। कहां छिपे बैठे हैं भोजपुरी के नाम पर राजनीति करने वाले मठाधीश? दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने गांधी पर शोध हिन्दी में लेने से मना कर दिया।
पांच साल पहले एम्स, दिल्ली में अनिल मीणा नाम के एक नौजवान डॉक्टर ने आत्महत्या से पहले अंग्रेजी के आतंक, पढ़ाई समझ में न आने का पत्र छोड़ा था, क्या दिल्ली में बैठे हिन्दी के साहित्यकारों या भोजपुरी अकादमी के कान पर जूं भी रेंगी?
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की बच्ची की पिटाई अंग्रेजी न जानने की वजह से इतनी क्रूरता से की गई कि जान चली गई। दिल्ली में भोजपुरी की राजनीति कर रहे दिग्गज क्या यह नहीं जानते कि दिल्ली के निजी स्कूलों में हिन्दी बोलने पर वर्षों से अघोषित प्रतिबंध है। जिन स्कूलों, विश्वद्यिालयों में हिन्दी में ही पढ़ना—पढ़ाना मुश्किल हो रहा हो, वहां क्या भोजपुरी को कोई जगह मिल पायेगी? अपने बच्चों को भोजपुरी, मैथिली माध्यम में पढ़ायेंगे?
क्या उत्तर प्रदेश, बिहार की सरकारों से भोजपुरी में पढ़ाने की मांग की? या सिर्फ दिल्ली में राजनीति करने का औजार है यह मंच?
इसी मुद्दे से जुड़े संक्षेप में कुछ और सवाल। क्या भोजपुरी मंच संघ लोक सेवा आयोग की दर्जनभर अखिल भारतीय जैसे डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, वन सेवा, रक्षा, भारतीय भाषाओं की मांग करेगा? दिल्ली में लाखों भोजपुरी बोलने बाले हैं, इलाहाबाद, पटना में भी। कभी कोई आवाज क्यों नहीं उठी?
जन भोजपुरी मंच के नेताओं के सपनों में तैर रहे हैं, भोजपुरी के नाम पर अकादमी जैसे संस्थान जिसमें सौ—पचास कार्यकारिणी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सैक्रेटरी जैसे पद होंगे। भवन होगा, गाडि़यां, फोन। क्योंकि कोई शहर ऐसा नहीं जहां भोजपुरी न हो और ऐसी इच्छाएं न हों। बस हो गया किसी भी दल को वोट बैंक से धमकाने, पैसा ऐंठने का जरिया।
दिल्ली की भोजपुरी और हिन्दी अकादमी से पूछा जाना चाहिए कि जमीनी स्तर पर शिक्षा, पुस्तकों के क्षेत्र में लाखों के पुरस्कार बांटने के अलावा उनकी क्या उपलब्धियां हैं? जनता के करोड़ों रुपए का क्या हिसाब है? हां, साहित्य अकादमी पुरस्कारों पर भी इनकी नजरें टिकी हैं बिल्कुल मैथिली, डोगरी, कोंकड़ी की तर्ज पर जिसमें कई बार पुरस्कार एक ही परिवार के सदस्यों को मिल चुके हैं। दिल्ली में फेंस पर बैठे कई लेखक साहित्यकार इसीलिए मौन साधे बैठे हैं। क्या पता उन्हें भी कुछ मिल जाए।
लेकिन क्या प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, उग्र, केदारनाथ सिंह केवल भोजपुरी क्षेत्र तक सिमटना स्वीकार करेंगे?
क्या इतने प्रतिष्ठित लेखक और नेता ये भूल रहे हैं कि ऐसी मांग के स्वीकारते ही, ब्रज, अवधी, राजस्थानी, हरियाणवी, कुमाऊंनी, गढ़वाली भाषा बोलियों वाले चुप बैठेगे? उनका भी वही तर्क होगा। यानि कि भारतीय भाषाएं केवल कुछ अकादमी, पुरस्कार फैलोशिप का गोरखधंधा!
यूँ पहले या दूसरे नंबर पर आने का कोई अर्थ नहीं है, पहले ही मैथिली आदि को अलग करने से संयुक्त राष्ट्र की शुमारी में हिन्दी दूसरे स्थान से चौथे स्थान पर आ गई है, भोजपुरी और ऐसी दर्जन भर भाषाएं भी अलग हो जायें तो हिन्दी की मौजूदा संवैधानिक स्थिति पर देश के अन्य राज्य भी उंगली उठाने लगेंगे! जब संख्याबल आधार है तो जो भी बड़ा हो लग जायेगा पलीता गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू पटेल आयंगर के राष्ट्रीय सपनों को जो हिन्दुस्तानी, हिन्दी को अपने व्यापक अनुभव के कारण सम्पर्क भाषा मानते थे और इसीलिए उसे संवैधानिक राजभाषा का दर्जा मिला। यह संविधान का उल्लंघन होगा या उसका पालन?
संविधान के नीति निर्देशक खंड में सभी भाषा-बोलियों को आगे बढ़ाने की बात की गयी है। लोकतंत्र के नाते यह हम सबका दायित्व है कि सरकारी कामकाज, शिक्षा में अपनी भाषाओं, बोलियों को आगे बढ़ाएं और यह केवल राजनीति करने से नहीं होगा। उल्टे राजनीतिज्ञ अपने-अपने वोट बैंक के लिए आपको इस्तेमाल करेंगे। मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह हों या संसद सदस्य मनोज तिवारी।
नाम गिनाने की जरूरत नहीं। भोजपुरी मंच के कई नेता इसी तिकड़मी राजनीति के बदले पहले पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित आदि के करीब थे, तो अब मौजूदा सरकार के मोदी जी की भक्ति में भी वे पुरानी आरतियों का सहारा ले रहे हैं।
समझदार लेखक, प्राध्यापकों, पत्रकारों को भोजपुरी के नाम पर इस कुटिलता से दूर रहने की जरूरत है।
(प्रेमपाल शर्मा शिक्षा के मसलों पर पिछले 30 वर्षों से लिख रहे हैं।)