शिक्षा नीति 2019 हो गई लागू तो युवा चाहकर भी हासिल नहीं कर पायेंगे हायर एजुकेशन और रोजगार पाना भी हो जायेगा दुष्कर

Update: 2019-07-13 18:02 GMT

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वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से पढ़-लिखकर भी नई नौकरियां नहीं हैं मिलने वाली, क्योंकि नई तकनीक के इस्तेमाल के कारण इंसानी श्रम का स्थान अधिकाधिक लेती जाएंगी मशीनें, सरकार ने ने भी नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट से दे दिया है साफ संदेश कि आने वाले समय में रोजगार मिलना हो जायेगा मुश्किल...

मुनीष कुमार, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 के प्रारूप में शिक्षा के बदलाव को लेकर जो सिफारिशें की गयी हैं, उससे न केवल देश के युवाओं का चाहकर भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए रोजगार पाना भी बेहद दुष्कर होगा।

न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी

प्रारूप के पेज सं. 44 पर कहा गया है कि 2030-32 तक हम 10 ट्रिलियन से अधिक (दुनिया) की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे। हमारी 10 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों से नहीं, बल्कि ज्ञान से संचालित होगी। 10 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था से हमें वह धन मिलेगा, जिसकी हमें आवश्यकता है।

र्तमान में देश की अर्थव्यवस्था का आकार 2.8 ट्रिलियन डालर बताया जा रहा है। इस वक्त देश की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद पतली है। अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर इस वर्ष 5 प्रतिशत से भी कम रहेगी। इसके बावजूद भी यदि देश की अर्थव्यवस्था 2030 तक 7 प्रतिशत की अति महत्वाकांक्षी विकास दर हासिल कर भी लेती है, तो भी देश की अर्थव्यवस्था 5.9 ट्रिलियन डालर के स्तर पर होगी। यानी कि 10 ट्रिलियन की उम्मीद के मुकाबले काफी कम। अमेरिका, चीन, जापान व जर्मनी के मुकाबले काफी पीछे।

तः इस बात को कहना कि भारत 2030-32 तक 10 ट्रिलियन डालर की दुनिया की तीसरी बढ़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा, इस बात को कहना कोरी गप है तथा शेखचिल्ली के किस्सों से ज्यादा कुछ नहीं है।

उच्च शिक्षा में ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ की भूमिका

आगे पेज 498 पर कहा गया है कि यह नीति ऐसे समय में आ रही है, जबकि चतुर्थ औद्योगिक क्रांति पहले ही शुरू हो चुकी है और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिसियल इन्टेलिजेन्स) जैसी प्रभावशाली तकनीकें उभर चुकी हैं।

प्रारूप में ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ का लाभ उठाने का आह्वान किया गया है। आइये थोड़ी बात औद्योगिक क्रांतियों के सवाल पर भी कर लेते हैं। दुनिया की पहली औद्योगिक क्रांति जिसने रेलवे व कपड़ा उद्योग को जन्म दिया, मुख्यतः भाप के इंजन व उर्जा पर आधारित थी। दूसरी औद्योगिक क्रांति विद्युत व आटोमोबाइल के क्षेत्र में थी। इन दोनों क्रांतियों ने दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को गति प्रदान की, उद्योगों की नई-नई शाखाओं को जन्म दिया तथा पूंजी संचय के नये क्षितिज खोले।

म्प्यूटर, इंटरनेट, दूरसंचार पर आधारित तकनीक के विकास को ‘तीसरी औद्योगिक (दूर संचार) क्रांति’ का नाम दिया गया। इस ‘तीसरी औद्योगिक क्रांति’ में पूर्व की दोनों औद्योगिक क्रांतियों के मुकाबले वह दम नहीं था, जो पहली दो क्रांतियों में सामने आया था। यह पूंजी संचय के नये द्वार नहीं खोल पायी। इसने इतना काम अवश्य किया कि दुनिया में सट्टेबाजी को एक नई ऊंचाई तक पहुंचा दिया।

ब ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ की बात की जा रही है। रोबोटिक्स, मानवीय अंग व अन्य वस्तुओं की थ्री डी प्रिंटिंग, स्वायत्त वाहन, जेनेटिक इंजीनियरिंग, क्वांटम कम्प्यूटिंग तथा आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस की तकनीक के विकास को चौथी औद्योगिक क्रांति का नाम दिया जा रहा है। इस ‘चतुर्थ औद्योगिक क्रांति’ में भी वो दमखम नहीं दिखाई दे रहा है जो पूर्व की दोनों क्रांतियों में था।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता व उन्नत तकनीक के इस्तेमाल का सवाल

प्रारूप में इस चौथी क्रांति/आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) को लेकर विशेष जोर दिया गया है। पेज नंबर 500 पर कहा गया है : कृत्रिम बुद्धिमत्ता के संदर्भ में राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) त्रिआयामी सोच अपना सकता है। अ- कोर आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस रिसर्च को आगे बढ़ाना। ब- एप्लिकेशन आधारित अनुसंधान का विकास और प्रयोग और स- स्वास्थ्य, कृषि और जलवायु संकटों की चुनौतियों का सामना करने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान के प्रयासों की स्थापना करना।

सके तहत टाइप-1 व 2 उच्च शिक्षण संस्थानों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के मूल क्षेत्रों/कोर एरिया (जैसे कि मशीन लर्निंग आदि) तथा पेशेवर क्षेत्रों (स्वास्थ्य, कृषि, विधि) में पीएचडी व स्नात्कोत्तर कार्यक्रम चलाने की बात कही गयी है। वही टाइप-3 संस्थानों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को सहायता प्रदान करते कम विशेषज्ञता की मांग करने वाले क्षेत्रों जैसे डेटा एनोटेशन, इमेज क्लासिफिकेशन और स्पीच ट्रांसक्रिप्शन में प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाने की बात कही गयी है।

प्रारूप समिति द्वारा गठन के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) में भी उक्त पर विशेष जोर दिया गया है तथा अनुसंधानों पर देश की जीडीपी का प्रतिवर्ष 1 प्रतिशत (लगभग 20 लाख करोड़ रुपए) खर्च करने की बात कही गयी है। अनुसंधानों को बढ़ावा देने के लिए सरकार निजी व सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थानों के शोधार्थियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराएगी। देश के पैसे से हुए नये अनुसंधानों पर मालिकाना देश का नहीं, बल्कि शोधार्थी छात्र का किया जाना प्रस्तावित किया गया है।

उच्च शिक्षा के नये अनुसंधानों पर पेटेंट कानूनों का साया रहेगा

स कारण ये अनुसंधान और शैक्षिक कार्यक्रमों को देश में चलाए जाने के बाद भी इनका लाभ देश की व्यापक जनता को मिल पाना मुमकिन नहीं होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता व अन्य तकनीकी क्षेत्र में चलने वाले अनुसंधानों पर पेटेंट कानूनों का साया होगा। पेज 382 पर कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही अच्छी प्रक्रियाओं के अनुरूप एनआरएफ के वित्त पोषण के अंतर्गत शोधार्थियों द्वारा किए गये शोधों के प्रकाशन, पेटेंट आदि पर शोधार्थियों का एकाधिकार सुरक्षित रहेगा।

भारत सरकार विश्व व्यापार संगठन का सदस्य देश है तथा देश की सरकार उसके कानून बौद्धिक सम्पदा अधिकार के व्यापार सम्बंधी पहलू (ट्रिप्स)/पेटेंट कानूनों से बंधी हुयी है। वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट संगठन के अनुसार चीन ने 13.38 लाख व अमेरिका द्वारा 6.05 लाख पेटेंट आवेदन प्रस्तुत किए हैं। इसके बरक्स भारत के द्वारा पेटेंट आवेदनों की संख्या मात्र 45 हजार है, जिसमें से 70 प्रतिशत पेटेंट आवेदन अनिवासी भारतीयों के हैं।

दुनिया के ज्यादातर महत्वपूर्ण अनुसंधान व तकनीकें साम्राज्यवादी मुल्कों द्वारा पेटेंट करा ली गयी हैं। ऐसे में जो अनुसंधान दुनिया में हो चुके हैं, उन्हें देश में पुनः अनुसंधानित नहीं किया जा सकेगा तथा उसके इस्तेमाल के लिए पेटेंटकर्ता को रायल्टी का भुगतान व उसकी अनुमति आवश्यक होगी।

ई शिक्षा नीति के तहत देश में, यदि नये अनुसंधान होते भी हैं तो वे भी अनुसंधानकर्ता की निजी मिल्कियत होंगे। इन अनुसंधानों का पेटेंट देशी व विदेशी दोनों ही प्रकार के छात्रों द्वारा निजी तौर कराए जा सकेंगे। ऐसे में नये अनुसंधान का लाभ भी देश को मिल पाना सम्भव नही होगा। करोड़ों रुपये अनुसंधानों पर खर्च करने के बावजूद भी देश को इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे।

देश के सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों में रोबोटिक्स के द्वारा आपरेशन की तकनीकें मौजूद हैं। पेंटेंट कानूनों के कारण ये काफी मंहगी हैं तथा आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं। पेटेंट कानूनों के कारण इन तकनीकों को देश में विकसित भी नहीं किया जा सकता है। यदि देश में कोई नई तकनीक विकसित कर ली गयी है, परन्तु उसका पेटेंट किसी दूसरे मुल्क द्वारा करवा लिया गया है। ऐसे में नई विकसित तकनीक का इस्तेमाल देश में नहीं किया जा सकता है।

बेरोजगारी विकराल रूप धारण करेगी

‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ से उपजी उन्नत तकनीकों से बहुत सारे इंसानी कार्य व गणनाएं मशीनों द्वारा किए जाने सम्भव होंगे, जो कि समाज में बेरोजगारी व नये कलह विग्रहों को जन्म देने वाले होंगे।

रोजगार के सवाल पर प्रारूप के पेज नंबर 278 पर कहा गया है कि केवल इस तरह की नौकरियों के लिए लोगों को तैयार नहीं करना है जो आज मौजूद हैं, क्योंकि आने वाले समय में हो सकता है ये नौकरियां न रहे अथवा उनकी मौजूदगी न के बराबर ही रहे। उच्च शिक्षा में जिन नौकरियों के लिए लोगों को तैयार किया गया है, उसका उपयोग वर्तमान में बहुत कम है।

यानी कि माना जा चुका है कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से पढ़-लिखकर भी नई नौकरियां अब मिलने वाली नहीं हैं और उस पर नई तकनीक के इस्तेमाल के कारण इंसानी श्रम का स्थान मशीनें अधिकाधिक लेती जाएंगी। तो ऐसे में क्या होगा? सरकार ने तो प्रारूप के माध्यम से साफ संदेश भेज दिया है कि आने वाले समय में नौकरियां/रोजगार मिलना मुश्किल होता जाएगा।

दुनिया में आधुनिक तकनीक के प्रसार व इस्तेमाल ने इंसानों द्वारा किए गये कार्यों में मशीन की भूमिकाओं को बहुत ज्यादा बढ़ाया है। निजी मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी समाज में तकनीक का इस्तेमाल समूचे समाज को आगे बढ़ाने व उसकी जरुरतों को पूरा करने की जगह मुनाफा कमाने के लिए किया जा रहा है।

ह एक ऐसा अंतरविरोध है, जिसका हल दुनिया की पूंजीवादी सरकारों के पास नहीं है। जैसे-जैसे आधुनिक-उन्नत तकनीक का अविष्कार होगा, पूंजीपति वर्ग उनका इस्तेमाल बढ़ाकर मजदूर-कर्मचारियों को काम से बाहर धकेलने का काम करेगा, क्योंकि पूंजीवाद में जनवाद के नाम पर यही नियम काम करता है।

कुछ लोग इसके चलते तकनीक का ही विरोध करने लग जाते हैं। मानव श्रम को आसान बनाने वाली जेसीबी मशीनों व कम्प्यूटर का विरोध करने वाले हमें हर जगह मिल जाएंगे। आधुनिक व उन्नत तकनीक के इस्तेमाल का विरोध समाज को आगे बढ़ाने का रास्ता नहीं है, बल्कि पीछे धकेलने वाला हैं। यह इतिहास का पहिया उल्टा घुमाने जैसी बात है।

वैज्ञानिक समाजवाद ही उपाय है

उच्च व आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल सही मायनों में वैज्ञानिक समाजवाद में ही सम्भव है। वैज्ञानिक समाजवाद में उत्पादन पूंजीपतियों के मुनाफे की जरूरतों को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि समाज की जरुरतों को ध्यान में रखकर किया जाता है। अतः समाजवाद हमेशा ही उच्च और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के लिए एक आदर्श व्यवस्था है।

माजवादी समाज के अंतर्गत यदि बैंकिग व्यवस्था में कम्यूटर की जरूरत है तो समाजवादी बैंकिग व्यवस्था में कम्यूटरों का इस्तेमाल बेरोकटोक किया जा सकेगा, परन्तु कम्यूटर के इस्तेमाल के कारण कर्मचारियों को काम से जवाब देने की जगह उनके कार्य के घंटे व कार्य दिवस कम करने की नीति अपनाई जाएगी।

सी तरह से आधुनिक मशीनों व उच्च तकनीकों का प्रयोग समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाएगा और तकनीक के उन्नत होने पर इसका इस्तेमाल लोगों को काम से निकाले जाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए किया जाएगा।

ज के दौर में दुनिया में चल रही वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्थाएं पूर्णतः जनविरोधी रूप धारण कर चुकी हैं। वह विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल लोगों की जिन्दगियां आसान व बेहतर बनाने के लिए नहीं, बल्कि अति लाभ कमाने, जनता के दमन-उत्पीड़न व उन पर लुटेरे पूंजीपति वर्ग का राज कायम रखने के औजार के रूप में करती हैं।

मोदी सरकार व उसके किराए के बुद्धिजीवी जिन्होंने शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार किया है, उसमें उन्होंने इंसान नहीं पूंजीपतियों व साम्राज्यवादियों के हितों के अनुरूप नई शिक्षा नीति-2019 का प्रारूप तैयार किया है, जो कि देश को नई रोशनी देने में नाकाम साबित होगा।

(मुनीष कुमार समाजवादी लोक मंच के सह संयोजक हैं।)

यहां पढ़ें नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 की पूरी श्रंखला—

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