फैज की कविता पर आईआईटी कानपुर में बवाल, लगा 'हिंदू विरोधी' होने का आरोप

Update: 2020-01-02 07:58 GMT

आईआईटी कानपुर ने एक समिति गठित की है, जो यह तय करेगी कि फैज अहमद फैज की कविता 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' हिंदू विरोधी है या नहीं....

जनज्वार। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर (आईआईटी-के) के छात्रों ने NRC और CAA का विरोध कर रहे जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों पर हुई हिंसक कार्रवाई के समर्थन में 17 दिसंबर को परिसर में शांति मार्च निकाला था, जिसमें फैज की कविता 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' गायी गयी थी, जिसे हिंदू विरोध ठहराया जा रहा है।

गौरतलब है कि विश्वप्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज की यह कविता दुनियाभर के आंदोलनों में सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है, और मार्च के दौरान आईआईटी कानपुर के छात्रों ने भी फैज की यह कविता गाई थी।

ब आईआईटी कानपुर के उपनिदेशक मनिंद्र अग्रवाल ने यह कहकर फैज की कविता को हिंदू विरोधी ठहराया है, 'वीडियो में छात्रों को फैज की कविता गाते हुए देखा जा रहा है, जिसे हिंदू विरोधी भी माना जा सकता है।'

पनिदेशक मनिंद्र अग्रवाल की इस बयानबाजी के बाद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर (आईआईटी-के) ने एक समिति गठित की है, जो यह तय करेगी कि फैज अहमद फैज की कविता 'हम देखेंगे लाजिम है कि हम भी देखेंगे' हिंदू विरोधी है या नहीं। आईआईटी कानपुर के फैकल्टी सदस्यों की शिकायत पर प्रबंधन ने यह समिति गठित की है। फैकल्टी सदस्यों ने शिकायत दर्ज की है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान आईआईटी छात्रों ने यह 'हिंदू विरोधी गीत' गाया था।

मीडिया में आई खबरों के मुताबिक समिति इसकी भी जांच करेगा कि क्या छात्रों ने शहर में जुलूस के दिन निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया था, क्या उन्होंने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री पोस्ट की और क्या फैज की कविता हिंदू विरोधी है?

जानकारी के मुताबिक इसकी अंतिम पंक्ति 'बस नाम रहेगा अल्लाह का हम देखेंगे...' पर फैकल्टी सदस्यों का आपत्ति है और वह इसे हिंदू विरोधी ठहराने पर तुले हुए हैं।

गौरतलब है कि फैज की जिस कविता पर यह वितंडा खड़ा हुआ है, वह उन्होंने 1979 में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक पर लिखी थी, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान में सैन्य शासन का खुलकर विरोध अपनी कलम से किया था। अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण ख्यात फैज को इसी कारण कई साल सलाखों के पीछे बिताने पड़े थे।

आइये पढ़ते हैं फैज की वह कविता जिस पर इतना बवाल मचा है—

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिस का वादा है

जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ

रूई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव-तले

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएँगे

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो....

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