मोदी सरकार के अन्य जुमलों की तरह ही वायु प्रदूषण नियंत्रण केवल एक जुमला है, लोग मरते रहेंगे और पर्यावरण मंत्री गर्व से अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे और संसद को बताते रहेंगे कि वायु प्रदूषण से कोई नहीं मरता...
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
जनज्वार। पिछले दिनों दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकारी प्रयासों की कई खबरें आयीं, नतीजा कुछ नहीं निकला, दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ता रहा। अब दिल्ली के बाहर भी प्रदूषण कम करने की चर्चाएं हो रही हैं, भारत सरकार ने एक नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम शुरू किया है, जिसके अंतर्गत 102 ऐसे शहर जहां वायु प्रदूषण का स्तर निर्धारित मानक से अधिक रहता है, को शामिल किया गया है।
इसके तहत हरेक शहर का प्रदूषण कम करने का अपना-अपना एक्शन प्लान होगा। इस कार्यक्रम के तहत अगले पांच वर्षों के भीतर पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 20 से 30 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है। पिछले वर्ष इस प्रोग्राम की चर्चा करते हुए डॉ. हर्षवर्धन ने बताया था कि अगले 3 सालों में प्रदूषण स्तर में 35 प्रतिशत और अगले 5 वर्षों में 50 प्रतिशत की कमी लाई जायेगी।
इसका सीधा सा मतलब है कि एक वर्ष के भीतर ही लक्ष्य को ही नीचे कर दिया गया। नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम के तहत नए मोनिटरिंग स्टेशन स्थापित करना, जनता तक आंकड़ों को पहुंचाना, जन भागीदारी और एक पूर्वानुमान तंत्र विकसित करना, शामिल है।
नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम तो शुरू हो गया, पर भारत सरकार को जनता के कुछ प्रश्नों का जवाब जरूर देना चाहिए। यह प्रोग्राम वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 या फिर पर्यावरण संरक्षण अधिनियम का हिस्सा नहीं है, तो फिर क्या सरकार के अनुसार ये सभी अधिनियम कोई परिणाम लाने में अक्षम हैं? यदि सरकार ऐसा नहीं मानती है तो फिर अलग से एक प्रोग्राम की जरूरत क्यों पड़ रही है? और, यदि ये अधिनियम अक्षम हैं, तो फिर सरकार नए अधिनियम बनाने के लिए क्या कर रही है?
पुराने जितने भी अधिनियम हैं, उनकी कानूनी बाध्यता है पर जिस प्रोग्राम की डॉ हर्षवर्धन और नीति आयोग इतनी तारीफ़ कर रहा है उसकी तो कोई कानूनी बाध्यता ही नहीं है। अब जरा सोचिये, जब उद्योगों या प्रदूषण फैलाने वाले अन्य स्त्रोत कानूनी अधिनियम की परवाह नहीं कर रहे हैं, तो फिर सरकार यह कैसे सोच सकती है कि एक स्वैच्छिक प्रोग्राम देश को प्रदूषण से मुक्ति दिला देगा?
डॉ हर्षवर्धन के अनुसार इस प्रोग्राम के तहत पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 20 से 30 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है, तो क्या सरकार यह मानती है कि हमारे देश में वायु प्रदूषण में गैसों का कोई योगदान नहीं है। दूसरी तरफ दुनियाभर के अनुसंधान बताते हैं कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड, ओजोन, अमोनिया और सल्फर डाइऑक्साइड गैसों का भी मनीषियों, जानवरों और कृषि पर घातक प्रभाव पड़ता है।
भारत सरकार इन गैसों के प्रभावों को लगातार अनदेखा करती रही है और यहाँ तक स्थिति पहुँच गयी है कि इन गैसों की देश की हवा में में क्या स्थिति है यह भी नहीं पता। ओजोन के प्रभावों पर पिछले वर्ष एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन प्रकाशित किया गया था, जिसके अनुसार ओजोन के कारण भारत में खूब मौतें होती हैं। अभी हाल में ही नाइट्रोजन के ऑक्साइड को गर्भपात से जोड़ा गया और दूसरे अनुसंधान में बताया गया कि पूरे उत्तर और मध्य भारत में लगभग हरेक जगह अमोनिया के अधिक सांद्रता की समस्या है।
पिछले वर्ष पर्यावरण मंत्रालय ने क्लीन एयर फॉर देलही कैंपेन चलाया, उसका भी तो परिणाम नहीं मालूम। हाँ, इतना पता है कि दिल्ली उसके पहले भी वायु प्रदूषण की चपेट में थी और उसके बाद भी। दिल्ली में प्रदूषण से निपटने के लिए, ग्रेडेड रिस्पांस सिस्टम लागू किया गया, वह भी कागजों पर ही प्रदूषण कम करता रहा और दिल्ली वाले प्रदूषण से जूझते रहे।
सबसे हास्यास्पद तो यह है कि वायु प्रदूषण से सम्बंधित मानकों में कुल 12 पारामीटर हैं पर इनमें से सबका पूरे देश में आकलन नहीं किया जाता और न ही इन मानकों को परिभाषित करने के लिए पूरे देश की वायु गुणवत्ता का कोई वैज्ञानिक अध्ययन किया गया। इन पारामीटरों की स्थिति ऐसी है कि मानकों में 12 हैं, एयर क्वालिटी इंडेक्स में 3 से 8 हैं, ग्रेडेड रिस्पांस सिस्टम में 6 हैं और वर्तमान प्रोग्राम के लक्ष्यों में महज 2 हैं। सवाल तो यही है कि यदि आपको केवल 2 पारामीटर पर ही काम करने हैं तो फिर मानकों में बाकी की क्या आवश्यकता है?
जाहिर है, इस सरकार के अन्य जुमलों की तरह ही वायु प्रदूषण नियंत्रण केवल एक जुमला है, लोग मरते रहेंगे और पर्यावरण मंत्री गर्व से अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे और संसद को बताते रहेंगे कि वायु प्रदूषण से कोई नहीं मरता।