पोर्न लेखक को साहित्य अकादमी ने किया पुरस्कृत

Update: 2017-07-28 13:57 GMT

शुरू हुआ पोर्न लेखक का तीखा विरोध, आदिवासी पात्र पर केंद्रित है कोकशास्त्र जैसी लिखी डॉक्टर हांसदा सावेंद्र शेखर की यह कहानी

आदिवासी चिंतकों, लेखकों ने किया तीखा विरोध, कहा — दिल्ली में साहित्य अकादमी के गेट पर लगाएंगे लेखक हांसदा सोवेंद्र शेखर का लिखा ‘सीमेन, सलाइवा, स्वीट, ब्लड’ के पेज, तब पता चला क्या होता लेखन। डॉक्टर हांसदा के कहानी संग्रह ‘आदिवासी विल नॉट डांस’ में शामिल है यह कहानी। डा. शेखर को वर्ष 2015 में साहित्य अकादमी ने युवा लेखक का पुरस्कार दिया था. यह पुरस्कार उनके उपन्यास ‘द मिस्टीरियस एलीमेंट ऑफ रूपी बास्के’ के लिए मिला था।

आदिवासी लेखक एके पंकज के फेसबुक वाल पर Roopak Raag  लिखते हैं
बेहद दुखद.....यह तो porn story लग रही.....कोई porn Literature Academy हो तो बेशक अवार्ड के लायक है....

इसी तरह फेसबुक पर प्रतिक्रिया देते हुए Rabindra Kumar Baskey  लिखते हैं, 'हे वीर सिद्दो- कान्हू आपका एक पढा लिखा जाहिल (कुण्ठित) पुत्र नालायक हो गया है,हम इसका तर्पण करते हैं।'

ग्लैंडसंग डुंगडुंग, पत्रकार और आदिवासी मसलों पर सक्रिय कार्यकर्ता से जानिए क्या है पूरा मामला


साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता झारखंड के डॉक्टर और लेखक-साहित्यकार हांसदा सोवेंद्र शेखर के खिलाफ आदिवासी समाज बेहद नाराज है. साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ताअों ने उनके कहानी संग्रह 'आदिवासी विल नॉट डांस' में छपी कहानी ‘सीमेन, सलाइवा, स्वीट, ब्लड’ की अश्लील भाषा पर उनका जबरदस्त विरोध किया है.

साहित्य अकादमी को पत्र लिख कर यह पूछा गया है कि ऐसे किसी लेखक को साहित्य अकादमी जैसा प्रतिष्ठित सम्मान कैसे दे दिया गया, उसमें क्या खासियत देखी गयी।

कोकशास्त्र के महान लेखक डा. हांसदा सोवेन्द्र शेखर को साहित्यकार बताकर उनकी कृति के लिए उन्हें पुरस्कार दिया गया, और अब जब उनकी आलोचना हो रही है तो कुछ लोग उनको अभी भी महान साहित्यकार बताकर उनके पक्ष में खड़े हैं।

ऐसे लोगों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि डा. हांसदा के उपन्यास और कहानी संग्रह में आदिवासी दर्शन कहां है? आदिवासी दर्शन के बगैर लिखे गये उपन्यास, कहानी या अन्य लेखन को आप आदिवासी समाज का प्रतिबिंब कैसे मान सकते हैं?


क्या आपको आदिवासी दर्शन से डर लगता है इसलिए एक आदिवासी लेखक के द्वारा लिखा गया कुड़ा को साहित्या का दर्जा देने पर तुले हुए है? कोई एक नाकारात्मक घटना, एक व्यक्ति के साथ हुए अमान्वीय व्यवहार या एक परिवार की समस्या पूरे समाज का प्रतिबिंब नहीं होती है।

ऐसी घटनाएं या समस्याएं समाज में सनसनी जरूर पैदा कर सकती हैं। जिस उपन्यास, कहानी या अन्य लेखनी में आदिवासी दर्शन ही न हो तो वह न तो आदिवासी साहित्य कहलायेगा और न ही आदिवासी लेखनी।

आदिवासी समाज को वैसे आदिवासी लेखक अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए बदनाम कर रहे हैं जो व्यक्तिवादी दिकु समाज का हिस्सा बन चुके हैं। उनका एक ही मकसद है आदिवासी समाज को बदनाम करके नाम, पैसा और पुरस्कार हासिल करना।

ऐसा देखा गया है कि अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले अधिकांश लेखक अपने समाज को ही बदनाम करके दुनिया में नाम, पैसा और शोहरात हासिल किये हैं। लेकिन यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी समाज को ऐसे लेखकों की जरूरत है? क्या ऐसे लेखकों को आदिवासी समाज कभी माफ करेगा क्योंकि यदि आज आदिवासी समाज खड़ा है तो इसके लिए बाबा तिलका मांझी, सिदो-कान्हू और बिरसा मुंडा के साथ हजारों आदिवासियों ने इसे बचाने के लिए अपना खून बहाया है और अपनी जान दी है?

ऐसे लेखकों को मैं चुनौती देना चाहता हूं कि यदि आपके पास इतनी ही ताकत है तो आदिवासी दर्शन को अपने लेखनी के द्वारा दुनिया के सामने रखिये फिर देखते हैं कि कौन दिकु आपको प्रकाशित करता है, कौन आपको स्टार बनाता है और कौन आपके साथ खड़ा रहता है?

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