दुनिया में लगभग एक अरब गरीब आबादी स्वच्छता के अभाव से ग्रस्त है। स्वच्छता के अभाव में इस आबादी के बच्चे असामान्य विकास, रक्त की कमी, डायरिया, कुपोषण और अल्प-विकास के शिकार हो रहे हैं...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन की समाजशास्त्री सुजान इशाक के अनुसार गरीबी के परिवेश में बहुत सारे बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इसका कारण पौष्टिक भोजन का अभाव, प्रदूषित और तनाव वाला वातावरण, साफ़ पानी और स्वच्छता का अभाव, गर्भधारण के समय महिलाओं का और नवजात शिशुओं का उचित देखभाल का नहीं होना, घरों के अन्दर का प्रदूषित वातावरण है। सुजान इशाक और इनके सहयोगियों के इस शोधपत्र को प्लोस बायोलॉजी नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित किया गया है।
सुजान इशाक के अनुसार गरीबी के वातावरण में परिवेश और शरीर में पनपने वाले जीवाणुओं का प्रकार अलग हो जाता है – हानिकारक जीवाणु अधिक पनपते हैं और लाभदायक जीवाणुओं का घनत्व नगण्य रहता है। इसीलिए बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है और इससे गरीबों और अमीरों के बीच स्वास्थ्य सम्बंधित असमानता बढ़ती है। जीवाणुओं के कम घनत्व के कारण मोटापा, शारीरिक क्रियाओं का असामान्य होना और मानसिक रोगों का खतरा बढ़ता है।
सुजान इशाक ने अपने शोधपत्र में पर्याप्त मातृत्व अवकाश, गर्भधारण के समय साफ़ सुथरे वातावरण, नवजात शिशु को पर्याप्त पोषण और स्तनपान की सलाह दी है। उनका मानना है कि यदि शिशु को गर्भ में और पैदा होने के तुरंत बाद पर्याप्त पोषण मिलता है, तब उसके शरीर में लाभदायक जीवाणुओं के पनपने की संभावना बढ़ जाती है।
बच्चे के बढ़ने के वर्षों में उन्हें जंकफूड से बचाना चाहिए और विद्यालयों में फाइबर में संपन्न खाद्य पदार्थों को लंच में बाँटना चाहिए। इसके लिए गरीबों के आवासीय क्षेत्रों को पर्यावरण-अनुकूल तरीके से विकसित करने की आवश्यकता है और जहां साफ़-सफाई और साफ़ पानी की उपलब्धता पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
शरीर में पनपने वाले जीवाणु अनेक तरीके से हमारी मदद भी करते हैं और दूसरी तरफ नुकसान भी पहुंचाते हैं। हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने में इनका बहुत योगदान होता है। ट्रेंड्स इन इम्यूनोबायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार मानव के विकास के साथ-साथ इन जीवाणुओं से परस्पर सम्बन्ध भी विकसित हुए हैं।
विकास के इस दौर में अनेक रोगों की प्रतिरोधक क्षमता तो विकसित हो रही है, पर नए रोग भी पनपते जा रहे हैं। अफ्रीकी देशों में मलेरिया महामारी जैसा फैलता था, पर अब धीरे-धीरे वहां के निवासियों में इसकी प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगी है। पर, इस क्षमता को विकसित करने के क्रम में कार्डियोवैस्कुलर रोगों से लड़ने की क्षमता क्षीण हो रही है और अब यह समस्या पूरे अफ्रीका में जनता को प्रभावित कर रही है।
इसी तरह यूरेशिया के क्षेत्र में धीरे-धीरे आबादी एचआईवी की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रही है तो दूसरी तरफ यही आबादी एलर्जी, अस्थमा और हे फीवर से पहले से अधिक प्रभावित होने लगी है।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के शोध का निष्कर्ष है कि अत्यधिक गरीबी के शिकार बच्चों में मोटापा हावी रहता है और इनके रक्त में लीड की सान्द्रता अधिक होती है। रक्त में लीड की अधिक मात्र के कारण इन बच्चों का दिमाग कमजोर हो जाता है और ये पढ़ने में पिछड़ जाते हैं और इनका सामाजिक व्यवहार भी असामान्य हो जाता है।
प्लोस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुनिया में लगभग एक अरब गरीब आबादी स्वच्छता के अभाव से ग्रस्त है। स्वच्छता के अभाव में इस आबादी के बच्चे असामान्य विकास, रक्त की कमी, डायरिया, कुपोषण और अल्प-विकास के शिकार हो रहे हैं।
इन सभी शोधपत्रों से इतना तो स्पष्ट है कि गरीबी केवल अर्थव्यवस्था या फिर सामाजिक व्यवस्था को ही प्रभावित नहीं करती, बल्कि स्वास्थ्यविज्ञान और पर्यावरण को भी प्रभावित कर रही है। पर दुखद तथ्य यह भी है कि आर्थिक विकास के इस दौर में गरीबों की संख्या बढ़ रही है और साथ ही सामाजिक असमानता भी।