हरियाणा की खट्टर सरकार अपने एक हजार दिन पूरे होने का जश्न मना रही है लेकिन प्रदेश की जनता जानना चाहती है कि हरियाणा की भाजपा सरकार ने 1 हजार दिन में में 7 सौ सरकारी स्कूल क्यों बंद किए...
वीएन राय, पूर्व आईपीएस
मैं पिछले दो दिन से हरियाणा के करनाल जिले में हर मिलने—जुलने वाले से पूछ कर निराश हो चुका हूँ कि क्या उन्होंने खट्टर सरकार के हजार दिन पूरा करने पर ताम-झाम से जारी की गयी सरकारी पुस्तिका पढ़ी या देखी है।
मुझे शक है कि स्वयं मुख्यमंत्री ने या उनके साथ चंडीगढ़ में पुस्तिका जारी करने के मौके पर फोटो खिंचाने वाले हरियाणा के काबीना मंत्रियों ने भी यह पुस्तिका आदि से अंत तक देखी होगी।
पुस्तिका में आत्म प्रशंसा में कुछ भी लिखा हो, कठोर तथ्य यह है कि राज्य में 7 सात सौ सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं, स्वयं खट्टर के करनाल का जिला अस्पताल सौ दिन से बंद पड़ा है और जाट आरक्षण हिंसा में लुटने-पिटने का भय शहरियों के दिलो-दिमाग से निकाले नहीं निकल पा रहा। कौशल विकास के केन्द्रों से ज्यादा त्वरित रोजगार में गौशालाओं का आकर्षण है।
कांग्रेसियों और चौटालों के राज में लोग उनके क्रमशः भ्रष्टाचार और गुंडाचार के कारनामे चर्चा में रहने के आदी हुआ करते थे। भाजपा राज में संघाचार को ही सरकार मानने का रिवाज प्रशासन पर गहरी जकड़ बना चुका है।
दरअसल, इन हजार दिनों में सतही सरकारी कार्यक्रमों की नींव पर संघ के गाय-गीता एजेंडे की बुलंद इमारत खड़ी करने की नीयत स्पष्ट नजर आती है। सवाल है इसमें आम हरियाणवी की भला कितनी दूर तक दिलचस्पी बनी रह पायेगी।
शासन की सुस्त पकड़ से अवाम के मतलब के आयाम किस कदर नदारद हैं, इसे रूटीन उदाहरणों से देखिये। गौ भक्ति के सरकारी जेहाद में पशुओं के प्रति क्रूरता समाप्त करने का पक्ष नदारद है।
यहाँ तक कि स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार शहरों में साफ-सुथरे रूप से मांस बेचने की सुविधाएँ सुनिश्चित नहीं करा सकी है, और अब एक पीआइएल पर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के सचिव से स्वयं उपस्थित होकर जवाब देने को कहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बहुप्रचारित स्कीम है, फसल बीमा योजना। हरियाणा जैसे विकसित कृषि वाले राज्य में इस स्कीम का सफल कार्यान्वयन न केवल राज्य सरकार को किसानों में लोकप्रिय करता बल्कि केंद्र सरकार को भी हौसला देता। हुआ क्या?
किसानों को बिना विश्वास में लिए उनके बैंक खातों से बीमा प्रीमियम तो काट लिया गया, जबकि किसानों के फसल नुकसान के तीन सौ करोड़ के दावे बट्टे खाते में चल रहे हैं। यहाँ तक कि सरकार, किसान को उसके दावों का स्टेटस बताने की स्थिति में भी नहीं है।
खट्टर की व्यक्तिगत ईमानदारी को फिलहाल कोई चुनौती न भी दे पर वे अपनी इस खूबी को एक चुस्त-दुरुस्त प्रशासनिक शैली में नहीं बदल सके हैं। अशोक खेमका जैसे ईमानदार वरिष्ठ अफसर का नौकरशाही में यथोचित इस्तेमाल न कर पाना क्या सन्देश देता है? करनाल में एक आध्यात्मिक मठाधीश ज्ञानानंद पर मुख्यमंत्री की निर्भरता को संदेह के घेरे में रखने वालों की भी कमी नहीं।
लगता है हरियाणा में भाजपा टीना समीकरण यानी देयर इज नो अल्टरनेटिव फैक्टर पर दांव लगाकर अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति आश्वस्त रहना चाहती है। ऐसा भी नहीं कि कांग्रेस या इनेलो कोई विश्वासयोग्य विकल्प बन कर सामने आ रहे हों। तो भी, किसानी जीवन-शैली के आदी इस राज्य में आज अधिकांश लोगों का सोचना है, शायद उन्होंने गलत सरकार चुन ली है।
खट्टर विरोधियों की मानें तो या तो वे पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेंगे या फिर अगला चुनाव करनाल के बजाय गुरुग्राम से लड़ेंगे।
(पूर्व आइपीएस वीएन राय सुरक्षा और रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं।)