जहां से अटल बिहारी लड़ते थे चुनाव वहां जनमुद्दे नहीं जाति चुनावी मुद्दा

Update: 2019-04-26 14:45 GMT

बलरामपुर की सियासी फिजाओं में केवल जातिगत समीकरण के गणित के आधार पर देश की संसद की दहलीज तक पहुंचने का खेला जा रहा है खेल

बलरामपुर से फरीद आरजू की रिपोर्ट

जनज्वार। मशहूर गजलकार पद्मश्री बेकल उत्साही की जन्मभूमि बलरामपुर में समस्याओं का अंबार है, मगर चुनावों के मौसम में इन समस्याओं से इतर जातिगत ध्रुवीकरण की बयार बह रही है। राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के लिए यहाँ की समस्याएँ न कल मुद्दा थीं और न आज हैं।

बलरामपुर की सियासी फिजाओं में केवल जातिगत समीकरण के गणित के आधार पर देश की संसद की दहलीज तक पहुंचने का खेल खेला जा रहा है। बलरामपुर संसदीय सीट, जिसकी राष्ट्रीय क्षितिज पर पहचान होती थी उसे विस्मृत कर दिया गया

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 170 किलोमीटर दूर नेपाल की सरहद पर बसा बलरामपुर वर्ष 1997 में नव सृजित जिले के तौर पर अस्तित्व में आया। इससे पहले यह गोंडा जिले का हिस्सा हुआ करता था। गोंडा जिले मे दो लोकसभा सीट थीं जिनमें गोंडा सदर और दूसरा बलरामपुर संसदीय सीट। बलरामपुर संसदीय सीट राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखता है।

इस सीट को जनसंघ यानी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी का गढ़ माना जाता था। यहाँ से बीजेपी को 6 बार जीत हासिल हुई है, तो कांग्रेस पार्टी ने भी 5 बार चुनाव यहाँ से जीतने का रिकार्ड अपने नाम किया है। समाजवादी पार्टी दो बार तो जनता पार्टी ने भी एक बार यहाँ से परचम लहराने में कामयाब रही।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सारे उम्मीदवार जनमुद्दों पर नहीं, बल्कि जातिगत आधार पर वोट खींचने की कोशिश कर रहे हैं।

आजादी के बाद बलरामपुर संसदीय सीट से जनसंघ के टिकट पर जीत हासिल करने वालों की बात की जाये तो इनमें पहला नाम पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी का आता है। अटल बिहारी बाजपेयी पहली बार 1957 में इस सीट से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे थे। इसलिए बलरामपुर को अटल बिहारी बाजपेयी के कर्मस्थली के तौर पर जाना जाता है।

1962 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की सुभद्रा जोशी से शिकस्त खाने के बाद 1967 में स्वर्गीय बाजपेयी यहाँ से दुबारा चुनाव जीतने में कामयाब हुए। जनसंघ नेता और वरिष्ठ समाजसेवी नानाजी देशमुख भी 1977 में यहाँ से चुनाव लड़ जीत हासिल कर चुके हैं।

बलरामपुर संसदीय सीट से निर्वाचित अंतिम सांसद बृजभूषण शरण सिंह हैं, जिन्हें 2004 मे यहाँ से कामयाबी मिली। नये परिसीमन के बाद अस्तित्व में आये श्रावस्ती संसदीय सीट पर पहली बार 2009 में लोकसभा चुनाव हुए और यहाँ से विनय कुमार पांडे कांग्रेस पार्टी के टिकट पर विजयी हुए। इस बार विनय कुमार पांडे को कांग्रेस ने प्रदेश के कैसरगंज लोकसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया है।

2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार दद्दन मिश्रा ने समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी बाहुबली अतीक अहमद को शिकस्त देकर श्रावस्ती सीट पर कब्जा जमाया। इस बार के लोकसभा चुनाव में पुनः भाजपा ने दद्दन मिश्रा पर दाव आजमाया है, मगर सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवार राम शिरोमणि वर्मा भाजपा को शिकस्त देते दिखाई दे रहे हैं।

दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार धीरेन्द्र प्रताप सिंह भी भाजपा की जीत की राह में बाधक सिद्ध हो रहे हैं। दो भारत रत्न स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी और नानाजी देशमुख की कर्मस्थली पर लड़े जा रहे इस चुनाव में विकास का मुद्दा गौण नजर आ रहा है। सभी जातिगत ध्रुवीकरण के सहारे जीत की राह तलाश रहे हैं। यही वजह है कि बलरामपुर में जनहित से जुड़े मुद्दों को तरजीह नहीं मिलती।

सियासी दलों व उनके प्रत्याशियों को शिक्षा, चिकित्सा, कटान, रोजगार के अभाव से लेकर किसानों की समस्याए दिखाई नहीं दे रही हैं। बहरहाल वोटर किसके माथे पर जीत का तिलक लगाएगा, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन इस बार के चुनाव में वोटरों की चुप्पी राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों को जरूर परेशान किये हुए हैं।

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