पश्चिमी यूपी में कायम रही दलितों-मुस्लिमों की एकता तो भाजपा की 'हेट पॉलिटिक्स' हो जाएगी हवा
पहले चरण की 8 सीटों पर दिख रही है कांटे की टक्कर
बीजेपी के लिये समस्या यह है कि साइकिल और हाथी का गठजोड़ होने से इस बार मुस्लिम और दलित वोटरों में कोई उलझन नहीं है और उनके वोटों में बिखराव की संभावना बहुत कम हो गई है....
वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी की ग्राउंड रिपोर्ट
दोपहर के 12 बजे। मेरठ शहर से 5 किलोमीटर दूर अब्दुल्लापुर इलाके में पहुंची हमारी टीम जहां मुस्लिम और दलित समुदाय के लोग एक साथ बैठक करते मिले। युवा, अधेड़ और बुज़ुर्ग हर उम्र के लोग 11 अप्रैल को होने वाले मतदान के लिये बनती रणनीति बनाते दिखे। मेरठ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली से ठीक पहले दलित-मुस्लिम समाज की यह लामबन्दी बीजेपी के खिलाफ पड़ने वाले वोटों का बंटवारा रोकने के लिये है।
“हर हाल में बीजेपी को हराना है। हर बार हमारा वोट बंटता है। इस बार मुहर गठबंधन को ही दिया जायेगा। दलितों और मुसलमानों का 90 प्रतिशत वोट एक साथ पड़ेगा।” 45 साल के कृष्ण पाल हमें बताते हैं जो जाटव समुदाय से हैं। जाटव समुदाय मायावती की पार्टी बीएसपी का मज़बूत वोट बैंक है।
पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 8 सीटों पर वोटिंग हो रही है जिसमें सहारनपुर, कैराना, मुज़फ्फरनगर, बिजनौर, मेरठ, बागपत, गाज़ियाबादऔऱगौतमबुद्ध नगर सीट शामिल है। समाजवादी पार्टी-बीएसपी-राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन ने इस बार मुसलमान, दलित और जाट वोटों को लामबन्द कर बीजेपी के आगे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।
इसके जवाब में बीजेपी की पूरी कोशिश जाट वोटों में सेंध लगाने के साथ, ब्राह्मण, राजपूत और व्यापारी वर्ग के वोटों का अधिकांश हिस्सा हासिल करने की है। इसके साथ ही वह नरेंद्र मोदी की “मज़बूत छवि”, विकास और विपक्ष के “भ्रष्ट और अवसरवादी गठजोड़” को प्रचारित कर रही है, लेकिन जातीय समीकरण और मुस्लिम वोटों का गठजोड़ ऐसा है कि इन 8 सीटों पर बीजेपी को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ेगा।
“2014 में ये आठों सीटें बीजेपी ने जीतीं। उस वक्त जहां सवर्ण हिन्दू और जाट एक जगह लामबन्द थे वहीं सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल अलग अलग लड़ रहे थे। ऐसे में विपक्ष के वोटों का बिखराव हुआ, लेकिन इस बार स्थिति बिल्कुल बदली हुई है।” पत्रकार हरि जोशी बताते हैं।
इसीलिये बीजेपी ने अपने स्टार प्रचारकों की पूरी फौज यूपी के सात चरणों में हो रहे चुनाव में उतारने का फैसला किया है, जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। लेकिन बीजेपी के लिये समस्या यह है कि साइकिल और हाथी का गठजोड़ होने से इस बार मुस्लिम और दलित वोटरों में कोई उलझन नहीं है और उनके वोटों में बिखराव की संभावना बहुत कम हो गई है।
“हर चुनाव में मुसलमान बीजेपी को हराने के लिये अलग अलग उम्मीदवारों को वोट देता और उसका वोट बंट जाता। इस बार तय किया गया है कि चाहे जो हो वोट गठबंधन को दिया जायेगा और दलित भी हमारे साथ है।” मोहम्मद शौकीन कहते हैं।
यह रणनीति कुछ सीटों पर बीजेपी के लिये बहुत घातक हो सकती है। मिसाल के तौर पर मुज़फ्फरनगर और बागपत की सीट को लें, जहां अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी मैदान में हैं। यहां जाट वोटों का एक हिस्सा भी मुस्लिम-दलित गठजोड़ के साथ जुड़ना तय है। ऐसे में समीकरण भारतीय जनता पार्टी के लिये बहुत कठिन हो जाते हैं।
बीजेपी ने इसीलिये अपने भाषणों और नारों में राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद को ऊंचे सुर में कहना शुरू कर दिया है। योगी आदित्यनाथ और अमित शाह समेत बीजेपी के तमाम नेताओं के भाषणों और बयानों में रणनीति तैयार दिखती है। मेरठ में भी पीएम की रैली में भी बालाकोट, एयरस्ट्राइक और आतंकवाद का ज़ोर रहा और प्रधानमंत्री ने विपक्षियों पर पाक पर हुये हमले के सुबूत मांगने के लिये हमला किया।
वैसे बीजेपी से टकराने के लिये समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने रणनीति पिछले साल ही तैयार कर ली थी, जब फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव सपा ने बीएसपी की मदद से जीते। उसके बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा उपचुनाव में दोनों ही पार्टियों ने अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल को लड़ने दिया, हालांकि आरएलडी के टिकट पर उम्मीदवार समाजवादी पार्टी की तबस्सुम हसन थी।
प्रयोग कामयाब रहा और अजित सिंह के चुनाव निशान पर इस उम्मीदवार के पक्ष में जाट वोट भी पड़े, जो 2014 में बीजेपी के साथ चले गये। अखिलेश और मायावती ने गैरमौजूद रहकर राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार का समर्थन किया।
दूसरी ओर कुछ सीटों पर कांग्रेस (जोकि गठबंधन का हिस्सा नहीं है) की मौजूदगी बीजेपी के कुछ वोट काट सकती है। जैसे मेरठ की सीट को लें तो यहां दलित और मुस्लिम मतदाताओं का जोड़ 8 लाख से ऊपर है। गठबंधन के याकूब कुरैशी के आगे बीजेपी के राजेन्द्र अग्रवाल हैं तो कांग्रेस ने हरेंद्र अग्रवाल को उतारकर बीजेपी के कुछ सवर्ण और वैश्य वोट काटने की कोशिश की है। ऐसे में कुल करीब 18 लाख से अधिक मतदाताओं वाली सीट पर ध्रुवीकरण दिलचस्प मुकाबला बनायेगा।
लेकिन क्या हर सीट पर विपक्ष के वोटों का बंटवारा और बीजेपी के वोटों में सेंध लगाना मुमकिन होगा। कम से कम सहारनपुर सीट पर ऐसा नहीं दिखता। यहां कांग्रेस के इमरान मसूद 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बावजूद 4 लाख से अधिक वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे।
कांग्रेस ने उन्हें इस बार फिर से उतारा है और बीएसपी के फज़लुर्रहमान के चुनावी जंग में होने से बीजेपी के राघव लखनपाल के लिये यह त्रिकोणीय लड़ाई आसान हो सकती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां पर इमरान मसूद को मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ज़रूर वोट देगा और दलित वोट बीएसपी के फज़लुर्रहमान को जायेंगे जिससे दलित-मुस्लिम वोटों को एकजुट रखने की रणनीति फेल हो सकती है।
इसी तरह गौतमबुद्धनगर और गाज़ियाबाद में बीजेपी शहरी मतदाताओं के दम पर ज़ोर आज़माइश करेगी। इन सीटों पर ग्रामीण क्षेत्र में उसकी कोशिश सवर्ण वोटों को एकजुट कर अपने पाले में रखने रहेगी। कुल मिलाकर जहां दलित मुस्लिम गठबंधन को वोट देकर बीजेपी कि राह कठिन कर रहे हैं वहीं यह देखना दिलचस्प रहेगा कि कांग्रेस की मौजूदगी बीजेपी और गठबंधन में से किसे अधिक नुकसान करती है।
(करीब दो दशकों से पत्रकारिता कर रहे हृदयेश जोशी लंबे समय तक एनडीटीवी में वरिष्ठ संपादक रहे हैं। हृदयेश जनज्वार के सलाहकार संपादक मंडल में शामिल हैं।)