सर्दियों के समय जब वायु प्रदूषण असहनीय होने लगता है, तब सर्वोच्च न्यायालय और अनेक उच्च न्यायालय एकाएक सक्रिय हो उठते हैं, लोगों के मरने की बातें करते हैं, जीवन कम होने की बातें करते हैं और संस्थाओं की जिम्मेदारी तय करने की बातें भी करते हैं....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जब सर्दियां आती हैं तब दिल्ली में केवल ठंडक ही नहीं आती, बल्कि वायु प्रदूषण का भूचाल भी आता है। वैसे तो दिल्ली में हमेशा ही प्रदूषण की चपेट में रहती है, पर सर्दियों में जब यह असहनीय हो जाता है तब यह न्यायालयों में भी पहुँच जाता है और राजनीतिक बहस का मुद्दा भी बनता है। जनता इसके बारे में चर्चा करने लगती है और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक भी वायु प्रदूषण पर वक्तव्य देने लगते हैं। विजुअल मीडिया दिनभर प्रदूषण की तस्वीरें दिखाता रहता है और प्रिंट मीडिया में कई पेज प्रदूषण के समाचारों से भरे होते हैं।
मगर सर्दियों के बीतते ही वायु प्रदूषण पर सारी चर्चा ख़त्म हो जाती है। प्रदूषण का स्तर तो बढ़ा रहता है, पर लोगों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रहता। अनेक वर्षों से यही होता आया है और अगर सरकारें ऐसे ही प्रदूषण नियंत्रण के कारनामे करती रहीं तो आगे भी यही होगा।
इन सबके बीच बस वायु प्रदूषण नियंत्रित नहीं होता और शेष सारी चीजें हो जातीं हैं। पूरी दुनिया में कोई ऐसा शहर या राज्य नहीं है, जो अपने यहाँ के प्रदूषण के स्त्रोतों को नकार कर हमेशा ही पड़ोसी राज्यों को ही अपने यहाँ के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार बताता हो। पूरी दुनिया में कोई ऐसी सरकार भी नहीं है जो जानलेवा प्रदूषण के बीच विज्ञापनों के माध्यम से यह प्रचारित करती हो कि वायु प्रदूषण 25 प्रतिशत कम हो गया है। ऐसा केवल दिल्ली में ही होता आया है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री उस समय भी नासा के उपग्रह से पंजाब के जलते खेतों के चित्र मीडिया को दिखाते रहते हैं, जब सरकारी आंकड़ों के अनुसार कृषि अपशिष्ट को जलाने से निकले धुवें का योगदान दिल्ली के पूरे वायु प्रदूषण में लगभग 10 प्रतिशत रहता है।
इन सबके बीच जरा सोचिये, आपने तारों से भरा आसमान अंतिम बार कब देखा था? इस दौर के बच्चे जो दिल्ली में बढ़ रहे हैं तो शायद कभी टिमटिमाते तारों से भरा आसमान कभी देख भी नहीं पायेंगे। अभिनेत्री मीना कुमारी की एक ग़ज़ल थी, चाँद तनहा है आसमान तनहा – यह ग़ज़ल हम दिल्ली वालों के लिए पूरी तरह से ठीक है क्योंकि रात में चाँद के अलावा और कुछ भी आसमान में नहीं नजर आता। ऐसे में आज के बच्चे तारों की छाँव और तारों की बरात जैसे मुहावरों का मतलब भी नहीं समझ पायेंगे। दिन में हम लोगों ने जो बचपन में नीला आसमान देखा था, वायु प्रदूषण ने उसका भी रंग बदल कर धूसर या हल्का स्लेटी कर दिया है। अब तो “नीला आसमान सो गया” को बदलकर “नीला आसमान खो गया” कर देना चाहिए।
दिल्ली के वायु प्रदूषण की चर्चा के बहुत फायदे हैं। जब यह समस्या पूरी मीडिया और सरकारी महकमों में फ़ैल जाती है तब केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और विभिन्न राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड निश्चिन्त हो जाते हैंm क्योंकि उस समय कोई गंगा प्रदूषण की बात नहीं करता। जहरीली होती नदियों की चर्चा नहीं करता, और तो और दूसरे शहरों के वायु प्रदूषण की चर्चा भी नहीं करता। कोई भी बहरा बनाते शोर की चर्चा नहीं करता और न ही चारों तरफ फैले कचरे की कोई बात करता है। इसीलिए इन निकम्मे संस्थानों के लिए यह शान्ति का समय रहता है और बढ़ता वायु प्रदूषण हरेक साल इन संस्थानों को यह अवसर प्रदान करता रहता है।
दिल्ली के वायु प्रदूषण के बारे में एक और तथ्य महत्वपूर्ण है, जब प्रदूषण का स्तर हद से बढ़ जाता है तब पड़ोसी राज्य इसके जिम्मेदार हो जाते हैं, पर जब प्रदूषण का स्तर कम होने लगता है तब राज्य और केंद्र सरकार दोनों अपने योजनाओं को इसका कारण मानने लगते हैं। दूसरी तरफ मीडिया इन सारे पचड़ों से दूर यह बताती है कि आज हवा तेज चलेगी इसलिए प्रदूषण का स्तर कम रहेगा या फिर हवा धीमी रहेगी और प्रदूषण का स्तर ज्यादा रहेगा।
कुछ वर्ष पहले तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने बहुत जोर देकर कहा था कि वायु प्रदूषण नियंत्रण कोई राकेट साइंस नहीं है और इसका नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है, पर दुखद तथ्य तो यह है कि देश ने राकेट उड़ाने में महारत हासिल कर ली है, पर दिल्ली में वायु प्रदूषण साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है।
यदि मान भी लें कि दिल्ली में पड़ोसी राज्यों के कृषि अपशिष्ट जलाने से वायु प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है, पर हवा तो एक दिशा से दूसरी दिशा में चलती है ऐसे में पंजाब/हरियाणा से धुवां दिल्ली पहुंचता है, उत्तर प्रदेश से भी धुवां दिल्ली पहुंचता है और राजस्थान से भी धुवां दिल्ली पहुंचता है, यह मानना असंभव है।
सबसे बड़ा तथ्य तो यह है कि दिल्ली का प्रदूषित धुवां दिल्ली में तो हमेशा नहीं रहेगा, कहीं तो जाएगा, पर यह चर्चा कोई नहीं करता कि दिल्ली के चलते और दूसरे शहर प्रदूषित हो रहे हैं। दिल्ली सरकार के दावों से तो यही लगता है कि धुवां कहीं भी उठे पर पहुंचता दिल्ली ही है और यह प्रदूषित धुवां हमेशा के लिए दिल्ली में ही रह जाता है।
दिल्ली के इस वायु प्रदूषण का एक अनोखा पहलू यह भी है कि सर्दियों के समय जब वायु प्रदूषण असहनीय होने लगता है, तब सर्वोच्च न्यायालय और अनेक उच्च न्यायालय एकाएक सक्रिय हो उठते हैं, लोगों के मरने की बातें करते हैं, जीवन कम होने की बातें करते हैं और संस्थाओं की जिम्मेदारी तय करने की बातें भी करते हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि अपने देश में प्रदूषण नियंत्रण के लिए किसी की जिम्मेदारी तय ही नहीं है।
फिर बहस होते-होते तक सर्दियां बीत जाती हैं और वायु प्रदूषण का प्रकरण ख़त्म हो जाता है। किसी की कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती और अगली सर्दियां आने पर फिर वही सबकुछ होता है।