हिंदू-मुस्लिम का माहौल बना सरकार ने खत्म की 55 हजार सरकारी नौकरियां

Update: 2018-11-28 04:35 GMT

Uttarakhand News : उत्तराखंड में सबसे अधिक बेरोजगार, एक महीने के अंदर बेरोजगारी दर में आया जबरदस्त उछाल

कई बार गोदी मीडिया के अख़बार और चैनल देखने से लगता है कि इस दौर में मुसलमानों से नफ़रत करना ही रोज़गार है. मंत्री और नेता नौजवानों के सामने नहीं आते...

रवीश कुमार, वरिष्ठ टीवी पत्रकार

आज की राजनीति नौजवानों आपको चुपके से एक नारा थमा रही है. तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें हिन्दू मुस्लिम डिबेट देंगे. इस डिबेट में तुम्हारे जीवन के दस-बीस साल टीवी के सामने और चाय की दुकानों पर आराम से कट जाएंगे. न नौकरी की ज़रूरत होगी न दफ्तर जाने में एड़ी में दर्द होगा. कई बार गोदी मीडिया के अख़बार और चैनल देखने से लगता है कि इस दौर में मुसलमानों से नफ़रत करना ही रोज़गार है.

मंत्री और नेता नौजवानों के सामने नहीं आते. आते भी हैं तो किसी महान व्यक्ति की महानता का गुणगान करते हुए आते हैं. ताकि देशप्रेम की आड़ में देश का नौजवान अपनी भूख के बारे में बात न करे. यही इस दौर की ख़ूबसूरत सच्चाई है. बेरोज़गार रोज़गार नहीं मांग रहा है. वो इतिहास का हिसाब कर रहा है. उसे नौकरी नहीं, झूठा इतिहास चाहिए!

क्या आपको पता है कि 2014-15 और 2015-16 के साल में प्राइवेट और सरकारी कंपनियों ने कितनी नौकरियां कम की हैं? सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को मैं सरकारी ही कहता हूं. CENTRE FOR MONITORING INDIAN ECONOMY के निदेशक महेश व्यास हर मंगलवार को बिजनेस स्टैंडर्ड में रोज़गार को लेकर लेख लिखते हैं. हिन्दी के अखबारों में ऐसे लेख नहीं मिलेंगे. वहां आपको सिर्फ घटिया पत्रकारों के नेताओं के संस्मरण ही मिलेंगे. बहरहाल महेश व्यास ने जो लिखा है वो मैं आपके लिए हिन्दी में पेश कर रहा हूं.

2014-15 में 8 ऐसी कंपनियां हैं जिनमें से हर किसी ने औसत 10,000 लोगों को काम से निकाला है. इसमें प्राइवेट कंपनियां भी हैं और सरकारी भी. वेदांता ने 49,741 लोगों को छंटनी की है. फ्यूचर एंटरप्राइज़ ने 10,539 लोगों को कम किया. फोर्टिस हेल्थकेयर ने 18000 लोगों को कम किया है. टेक महिंद्रा ने 10,470 कर्मचारी कम किए हैं. SAILसार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है, इसने 30,413 लोगों की कमी की है.

BSNL 12,765 लोगों को काम से निकाला है. INDIAN OIL CORPORATION ने 11,924 लोगों घटाया है. सिर्फ तीन सरकारी कंपनियों ने करीब 55000 नौकरियां कम की हैं. क्या प्रधानमंत्री ने इसका डेटा दिया था लोकसभा में? क्या आपने मांगा था?

2015-16 में लार्सन एंड ट्रूबो L&T ने 1,11020 नौकरियां कम कर दीं. फ्यूचर एंटरप्राइज़ ने 23,449 लोगों को निकाल दिया. इस साल सेल ने 18,603 लोगों को निकाला या नौकरियां कम कर दीं. इसके बाद भी इस साल रोज़गार वृद्धि की दर 0.4 प्रतिशत रही.

ज़रा पता कीजिए फ्यूचर एंटरप्राइज़ किसकी कंपनी है जिसने दो साल में 34000 लोगों को निकाला है या घटाया है. सर्च कीजिए तो. 2016-17 में कोरपोरेट सेक्टर में नौकिरियों की हालत सुधरी है. रोज़गार में वृद्धि की दर 2.7 फीसदी रही है. पिछले कई सालों की तुलना में यह अच्छा संकेत है मगर 4 प्रतिशत रोज़गार वृद्धि के सामने मामूली है.

महेश व्यास बताते हैं कि 2003-4, 2004-05 में रोज़गार की वृद्धि काफी ख़राब थी. लेकिन उसके बाद 2011-12 तक 4 प्रतिशत की दर से बढ़ती है जो काफी अच्छी मानी जाती है. 2012-13 से इसमें गिरावट आने लगती है. इस साल 4 प्रतिशत से गिर कर 0.9 प्रतिशत पर आ जाती है. 2013-14 में 3.3 प्रतिशत हो जाती है.

मगर 2014-15 में फिर तेज़ी से गिरावट आती है. 2015-16, 2016-17 में भी गिरावट बरकार रहती है. इन वर्षों में रोज़गार वृद्धि का औसत मात्र 0.75 प्रतिशत रहा है. 2015-16 में तो रोज़गार वृद्धि की दर 0.4 प्रतिशत थी.

महेश व्यास रोज़गार के आंकड़ों पर लगातार लिखते रहते हैं. इस बार लिखा है कि भारतीय कंपनियां बहुत सारा डेटा छिपाती हैं. ज़रूरत है वे और भी जानकारी दें. व्यास लिखते हैं कि हम कंपनियों को मजबूर करने में नाकाम रहे हैं कि वे रोज़गार के सही आंकड़े दें. कानून है कि कंपनियां स्थायी और अस्थायी किस्म के अलग अलग रोज़गार के आंकड़े दिया करेंगी.

महेश व्यास की संस्था CMIE 3,441 कंपनियों के डेटा का अध्ययन करती है. 2016-17 के लिए उसके पास 3000 से अधिक कंपनियों का डेटा है. जबकि 2013-14 में उनके पास 1443 कंपनियों का ही डेटा था.

2016-17 में 3,441 कंपनियों ने 84 लाख रोज़गार देने का डेटा दिया है. 2013-14 में 1,443 कंपनियों ने 67 लाख रोज़गार देने का डेटा दिया था. इस हिसाब से देखें तो कंपनियों की संख्या डबल से ज़्यादा होने के बाद भी रोज़गार में खास वृद्धि नहीं होती है.

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) का नया आंकड़ा आया है. पिछले साल सितंबर से इस साल मई के बीच कितने कर्मचारी इससे जुड़े हैं, इसकी समीक्षा की गई है. पहले अनुमान बताया गया था कि इस दौरान 45 लाख कर्मचारी जुड़े. समीक्षा के बाद इसमें 12.4 प्रतिशत की कमी आ गई है. यानी अब यह संख्या 39 लाख हो गई है.

EPFO के आंकड़े घटते-बढ़ते रहते हैं. कारण बताया गया है कि कंपनियां अपना रिटर्न लेट फाइल करती हैं. जो कर्मचारी निकाले जाते हैं या छोड़ जाते हैं, उनकी सूचना भी देर से देती हैं. सितंबर 2017 से लेकर मई 2018 के हर महीने के EPFO पे-रोल की समीक्षा की गई है. किसी महीने में 5 प्रतिशत की कमी आई है तो किसी महीने में 27 फीसदी की.

इस साल मई में 10 प्रतिशत की कमी है. जबकि उसके अगले महीने जून में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. कुल मिलाकर नई समीक्षा के अनुसार 9 महीनों में EPFO से जुड़ने वाले कर्मचारियों की संख्या करीब 39 लाख के आस-पास हो जाती है.

इसी संदर्भ में आप मेरा 2 अगस्त 2018 का लेख पढ़ सकते हैं. जो मैंने कई लेखों को पढ़कर हिन्दी में लिखा था. मेरे ब्लॉग कस्बा पर है और फेसबुक पेज पर भी है. उसका एक हिस्सा आपके सामने पेश कर रहा हूं. आपको पता चलेगा कि कैसे प्रधानमंत्री इधर-उधर की बातें कर ऐसी कहानी सुना गए, जो खुद बताती है कि नौकरी है नहीं, नौकरी की झूठी कहानी ज़रूर है.

"प्रधानमंत्री ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते हुए रोज़गार के कई आंकड़े दिए थे. आप उस भाषण को फिर से सुनिए. वैसे रोज़गार को लेकर शोध करने और लगातार लिखने वाले महेश व्यास ने 24 जुलाई के बिजनेस स्टैंडर्ड में उनके भाषण की आलोचना पेश की है. प्रधानमंत्री आंकड़े दे रहे हैं कि सितंबर 2017 से मई 2018 के बीच भविष्य निधि कोष से 45 लाख लोग जुड़े हैं. इसी दौरान नेशनल पेंशन स्कीम में करीब साढ़े पांच लाख लोग जुड़े हैं. अब महेश व्यास कहते हैं कि यह संख्या होती है पचास लाख मगर प्रधानमंत्री आसानी से 70 लाख कर देते हैं. राउंड फिगर के चक्कर में बीस लाख बढ़ा देते हैं."

50 से 70 लाख करने का जादू हमारे प्रधानमंत्री ही कर सकते हैं. इसीलिए वे ईमेल से इंटरव्यू देते हैं. ताकि एंकर भी बदनाम न हो कि उसने नौकरी को लेकर सही सवाल नहीं किया. प्रधानमंत्री ने हाल में ई मेल से इंटरव्यू देकर गोदी मीडिया के एंकरों को बदनाम होने से बचा लिया. मीडिया की साख गिरती है तो उसकी आंच उन पर आ जाती है.

इसीलिए कहता हूं कि आप पाठक और दर्शक के रूप में अपना व्यवहार बदलें. थोड़ा सख़्त रहें. देखें कि कहां सवाल उठ रहे हैं और कहां नहीं. सवालों से ही तथ्यों के बाहर आने का रास्ता खुलता है. हिन्दी के अख़बार आपको कूड़ा परोस रहे हैं और आपकी जवानी के अरमानों को कूड़े से ढांप रहे हैं.

अख़बार ख़रीद लेने और खोलकर पढ़ लेने से पाठक नहीं हो जाते हैं. गोदी मीडिया के दौर पर हेराफेरी को पकड़ना भी आपका ही काम है. वर्ना आप अंधेरे में बस जयकारे लगाने वाले हरकारे बना दिए जाएंगे. मैंने बीस साल के पाठकीय जीवन में यही जाना है कि चैनल तो कूड़ा हो ही गए हैं, हिन्दी के अख़बार भी रद्दी हैं.

(यह रिपोर्ट पहले एनडीटीवी में प्रकाशित)

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