Gorakh Pandey Poet: जनकवि गोरख पाण्डेय (Gorakh Pandey) के स्मृतियों से रूबरू करायेगी पंडित मुंडेरा गांव की माटी

Gorakh Pandey Poet: गरीबों के आंगन में,मेहनकशों के खादानों में,खेतों में व कल कारखानों में हर तरफ संघर्ष की अगर गीत सुनाई पड़ती है तो उसमें जनकवि गोरख पांडे नजर आते हैं। जनाआंदोलनों में जिनकी गीत सुनाई पड़ती है,वे जनकवि गोरख पांडे का 29 जनवरी पूण्यतिथि है।

Update: 2022-01-30 05:59 GMT

Gorakh Pandey Poet: गरीबों के आंगन में,मेहनकशों के खादानों में,खेतों में व कल कारखानों में हर तरफ संघर्ष की अगर गीत सुनाई पड़ती है तो उसमें जनकवि गोरख पांडे नजर आते हैं। जनाआंदोलनों में जिनकी गीत सुनाई पड़ती है,वे जनकवि गोरख पांडे का 29 जनवरी पूण्यतिथि है। 33 वर्ष पूर्व गोरख ने इस दुनिया से अपने अलविदा कह दिया। उनकी पूण्यतिथि पर हर वर्ष की तरह इस बार भी यूपी के देवरिया जिला अंतर्गत उनके पैतृक गांव देसही देवरिया के पंडित मुंडेरा गांव में समारोह का आयोजन किया गया। इस दौरान लोगों ने अपने क्रातिकारी साथी के गीतों व रचनाओं को सहेजते हुए आमजन को अवगत कराने के लिए स्मृति भवन व पुस्तकालय के निर्माण का संकल्प व्यक्त किया। इस दौरान गांव के मुख्य मार्ग पर गोरख पांडेय स्मृति द्वार का शिलान्यास किया गया।

ब्लॉक प्रमुख प्रतिनिधि संजय तिवारी व जिला पंचायत सदस्य श्यामू यादव ने स्मृति द्वार की आधारशिला रखी। इस दौरान जन संस्कृति मंच के मनोज सिंह, गोरख के छोटे भाई बलराम पाण्डेय नौशाद रजा खान गोरख पांडे के तस्वीर पर माल्यार्पण के साथ ही अपने संबोधन में जनकवि के जीवन पर चर्चा की। कार्यक्रम के प्रारंभ में ब्लॉक प्रमुख प्रतिनिधि संजय तिवारी ने कहा की गोरख पांडे की कविता राजनैतिक, सामाजिक, जातीय, लैंगिक विसंगतियों से उत्पन्न गुस्से से भरी हुई कविताएं है। श्यामू यादव ने कहा की गोरख पांडेय की कविताएं हमें जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराती हैं। शिक्षक सदानंद पांडे ने उनके लिखे गीत जनगीत जाग को गाया। इस दौरान उनके लिखे लिखे हुए कविताएं लाल लिबास, जय श्रीराम, सांकल, ड्राइंग, स्वेटर, चिड़िया का काव्य पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन सदानंद पांडे ने किया। इस दौरान विष्णु पांडे, ग्राम प्रधान प्रतिनिधि अभिषेक पासवान, सुनील पांडे, राजन पांडे, शैलेंद्र पांडे, जय प्रकाश द्विवेदी, दयाशंकर विश्वकर्मा ,मोहम्मद अख्तर, ऋषिकेश कुशवाहा आदि ने अपने विचार व्यक्त किए।


मजदूरों और शोषितों के साथ ही समय बिताते थे गोरख

उनके साथी हमेशा कहते हैं कि गोरख पांडे हमेशा आंदोलित रहते। गोरख के छोटे भाई बलराम पांडे कहते हैं, गोरख ने किसानों-मजदूरों के आंदोलनों में कई बार हिस्सा लिया, जहां से वह कवि बन गए। शोषित-दमित वर्ग के लिए सोचते. वह करने की कोशिश भी करते। गोरख पांडे अपने गांव आते थे, तो यहां के मजदूरों और शोषितों के साथ ही समय बिताते। वह उन्हें कहते थे कि इन जमीनों-खेतों पर तुम्हारा भी हक है। उनके पिता और घर वाले इससे नाराज होते, तो उनसे सवाल करते, क्या करेंगे इतने खेतों का। बराबरी में बांट दीजिए गांव के लोगों को।

उनके शैक्षिक जीवन की चर्चा करते हुए छोटे भाई बलराम पांडे कहते हैं कि सन 1945 में पंडित मुडेरवा गांव में उनका जन्म हुआ था। फिर पढ़ाई के सिलसिले में बनारस पहुंच गए। वही बनारस, जो आज भी तमाम तरह की घटनाक्रमों के लिए चर्चित रहता है। गोरख 18 मार्च, 1976 को अपनी डायरी में लिखते हैं ,मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं. तत्काल! मैं यहां बुरी तरह ऊब गया हूं. विभाग, लंका, छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें। राजनीतिक मसखरी. हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है। लेकिन, क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए? दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया, तो हमें चल देना चाहिए। मैं यहां से हटना चाहता हूं. बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं। बनारस से वह जेएनयू पहुंचते हैं, वही यूनिवर्सिटी, जिसके एक कमरे में उन्होंने अपनी जिंदगी समाप्त कर दी। उसी जेएनयू में, जहां आज भी उनकी लिखी इन पंक्तियों को गाते-गुनगुनाते छात्र मिल जाते हैं।

  • समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
  • समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
  • हाथी से आई, घोड़ा से आई
  • अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

वह दिल्ली से अपना जनेऊ तोड़कर आए थे। पिताजी नाराज हुए तो कहा कि ये धागा बांध कर दिन भर झूठ बोलता रहूं, ऐसे मेरे संस्कार नहीं। उन्होंने अपने मंझले भाई के उपनयन संस्कार में भी सबके बीच उसका जनेऊ तोड़ दिया था।

महिलाओं पर भी गोरख पांडे ने अपनी डायरी में लिखा था,

हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए। वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं। वह दृढ़ होनी चाहिए। चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है। वह सहयोगिनी हो हर काम में। देखने लायक भी होनी चाहिए। ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी-बनायी नहीं मिलेगी। उसे विकसित करना होगा।

गोरख सिजोफ्रेनिया से पीड़ित थे। यह बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही थी, जिससे वह परेशान रहते थे। एक बार इलाज कर रहे डॉक्टर ने उन्हें स्थिर करने के लिए इलेक्ट्रिक शॉक दिया। इस दौरान परिवार वालों से कहा गया कि वह इसका जिक्र गोरख से नहीं करेंगे। लेकिन, होश में आते ही उन्होंने लोगों से पूछा कि उन्हें लिटाने के बाद डॉक्टर ने क्या किया। किसी ने बताया नहीं, लेकिन उन्हें आभास हो गया कि उन्हें शॉक दिया गया है। इससे वह टूट गए थे और ज्यादा परेशान रहने लगे थे। वह जेएनयू में ही रिसर्च एसोसिएट थे। वहीं, 29 जनवरी 1989 को झेलम हॉस्टल के अपने कमरे में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। उस समय वह विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट थे। 33 साल पहले सुसाइड करने वाले गोरख पांडे जिनकी कविताएं आज भी विरोध का हथियार हैं। एक कविता की कुछ पंक्तियां खूब शेयर की जाती है -

  • राजा बोला रात है,
  • रानी बोला रात है,
  • मंत्री बोला रात है,
  • संतरी बोला रात है,
  • सब बोलो रात है,
  • यह सुबह सुबह की बात है।

उस शख्स ने जिंदगी से हार मान ली, जिसने कभी आशा के गीत लिखे हों। जिसकी पंक्तियां हैं-

  • आएंगे, अच्छे दिन आएंगे
  • गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे
  • सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
  • बच्चे सब दूध में नहाएंगे

क्रांतिकारी जनकवि गोरख पांडे, जिनकी डायरी में लिखे शब्द और कविताओं से उभरी भावनाएं हर दिन और ज्यादा गाढ़ी होती जा रही हैं। उनके कविता संग्रहों में छात्र, व्यापारी, किसान, शोषितों और महिलाओं के मुद्दे और उस पर उनका क्रांतिधर्मी सृजन मिल जाएंगे। अपने आसपास के समाज में दिख रही चीजों को लेकर उनके मन में बन रही बेचौनियों को वह कविताओं-रचनाओं में ढाल देते थे, न किसी तरह की कोरी भावुकता।

गोरख की मृत्यु के बाद उनके तीन संग्रह प्रकाशित हुए। साल 1989 में स्वर्ग से विदाई। 1990 में लोहा गरम हो गया है और साल 2004 में समय का पहिया। उन्होंने कभी उदासी-मायूसी के गीत नहीं गुनगुनाए। न ही शब्दों में उकेरे। उनके शब्द स्वाभिमान को झकझोरने वाले रहते।

उन्होंने 1969 में हिन्दी कविता की अराजक धारा से स्वयं को अलग किया और जनसंघर्षों को प्रेरित करने वाली रचनाएं लिखने लगे। उनका किसान आन्दोलनों से सक्रिय जुडाव रहा। उनकी कविताएं हर तरह के शोषण से मुक्त दुनिया की आवाज बनती रही हैं।

गोरख पांडेय ने एक दिन अपनी डायरी में लिखा - कविता और प्रेम दो ऐसी चीजें हैं, जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है। प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ। क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योगदान देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ। इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ। कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं। हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं। गोरख पांडेय ने छंदोबद्ध खड़ी बोली के साथ लोकांचल की भोजपुरी कविताएं भी खूब लिखीं, साथ ही छंदमुक्त रचनाएं भी।

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