National Press Day 2021: प्रेस की स्वतंत्रता बनाम सत्ता संरक्षित गोदी मीडिया का बढ़ता दौर
National Press Day 2021: प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एंव पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप चार जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई जिसने 16 नंवबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया।
जितेंद्र उपाध्याय का विश्लेषण
National Press Day 2021: प्रथम प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा एंव पत्रकारिता में उच्च आदर्श कायम करने के उद्देश्य से एक प्रेस परिषद की कल्पना की थी। परिणाम स्वरूप चार जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई जिसने 16 नंवबर 1966 से अपना विधिवत कार्य शुरू किया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज मंगलवार को पत्रकारिता जगत से जुड़े लोगों से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आवाज उठाने के वालों का एक उत्सव है। ऐसे में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ से लेकर तमाम प्रमुख लोगों ने पत्रकारों को अपना शुभकामना संदेश दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि हमारी प्रेस की स्वतंत्रता कितनी कायम है।
विश्व में आज लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद है। भारत में प्रेस को वाचडॉग एंव प्रेस परिषद इंडिया को मोरल वाचडॉग गया है। राष्ट्रीय प्रेस दिवस, प्रेस की स्वतंत्रता एंव जिम्मेदारियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। पत्रकार हितों के संरक्षण के लिए गठित प्रेस परिषद कितना सशक्त है,यह पिछले सात वर्षों में किसी से छूपा नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में संविधान निर्माताओं ने मीडिया को स्थान दिया। लेकिन विश्व के मानचित्र पर भारतीय मीडिया की तस्वीर का आकलन करें तो बहुत ही निराशाजनक आंकड़े सामने आते हैं। दुनियाभर में पत्रकारों की सुरक्षा के आंकड़े काफी चिंताजनक है। कमिटी टू प्रोफेक्ट जर्नलिस्टस के अनुसार 1992 से अब तक 1400 से अधिक पत्रकारों की हत्या कर दी गई। उनमें से 890 पत्रकारों के हत्यारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। आज भी दुनिया भर में 274 से अधिक पत्रकार जेलों में बंद हैं
आज हाल यह है कि अधिकांश भारतीय मीडिया हाउस जो पूरी तरह से पक्षपाती हैं और वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार के हित में काम कर रहे हैं, वह गोदी मीडिया कहलाते हैं। नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पिछले कुछ सालों से गोदी मीडिया पर खूब चर्चा हो रही है। राजनीतिक प्रवक्ता (न्यूज डिबेट होस्ट सहित) दर्शकों को यह कहकर भड़काते हैं कि उनका धर्म खतरे में है क्योंकि उनके समुदाय के सदस्यों की संख्या घट रही है और उन्हें जागने की जरूरत है और वे बताते हैं कि अन्य धर्म उनके विश्वास को तोडते हैं और दावा करते हैं कि यह विश्वास उनके खिलाफ है।
देश के हित में, मीडिया की बहस में, ये प्रवक्ता शासकों (जिन्होंने हजारों साल पहले भारत पर शासन किया था) के बारे में बताते हैं और उनके शासन की आलोचना करते हुए उनकी तुलना आज के उस समुदाय से करते हैं जिसका की वो कथित शासक रहता है (उसी प्रकार घृणा को फैलाते है जैस हिटलर यहूदियों के खिलाफ जर्मनी के लोगों को करता था )। गोदी मीडिया रात 9 बजे कार्यक्रम अपना प्रमुख प्रोग्राम चलाता है (जब अधिकांश दर्शक टीवी के सामने बैठते हैं उनसे देश संबंधित समाचार सुनने के लिए) इस कार्यक्रम को देख कर पता चल जायेगा की कौनसा चौनल किस प्रकार के एजेंडा को बढ़ावा दे रहा है।
गोदी मीडिया के संबंध में कहा जाता है कि वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने इसे लोकप्रिय बनाया और उनके सहयोगियों ने सरकार के स्वामित्व वाले मीडिया चौनलों और टीआरपी के पीछे भागने वाले चौनेलो को इस सूची में डाला, तब से ये शब्द चर्चा में है। जिसके बाद से ही खबरों में पक्षधरता एवं अंसतुलन भी प्रायः देखने को मिलता है। इस प्रकार खबरों में निहित स्वार्थ साफ झलकने लग जाता है। आज समाचारों में विचार को मिश्रित किया जा रहा है। समाचारों का संपादकीयकरण होने लगा है। विचारों पर आधारित समाचारों की संख्या बढने लगी है। इससे पत्रकारिता में एक अस्वास्थ्यकर प्रवृति विकसित होने लगी है। समाचार विचारों की जननी होती है। इसलिए समाचारों पर आधारित विचार तो स्वागत योग्य हो सकते हैं, परंतु विचारों पर आधारित समाचार अभिशाप की तरह है।
सत्ता के साथ समीकरण साध कर निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाली पत्रकारिता ने पत्रकारों को राजनीति व अधिकारियों की कठपुतली सा बना दिया है। सत्ता, राजनीति या प्रशासन के मजबूत लोग पत्रकारों के छोटे हित साधने के बाद उन्हें अपने बड़े हित में प्रयोग करते हैं। मीडिया के भीतर आगे बढ़ने की आपसी होड़ का लाभ भी नौकरशाही व राजनेता उठाते हैं। टुकड़ों में हुए इस बंटवारे के कारण ही मीडिया के भीतर सच कहने का साहस समाप्त सा हो गया है।
सरकारों को सही या गलत ठहराने के लिए पत्रकार जिस तरह स्वयं को एक पक्ष का हिस्सा बना लेते हैं, उसका परिणाम है कि उनसे उनकी आजादी व सवाल पूछने की ताकत तक छिन जाती है। कुछ वर्ष पहले तक नेता परेशान रहते थे कि पत्रकार उनका साक्षात्कार करें, अब स्थितियां उल्टी हो चुकी हैं। आए दिन नेताओं, अभिनेताओं आदि के साक्षात्कार लेने के बाद स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते पत्रकार सोशल मीडिया पर अपडेट करते दिख जाएंगे। अमेरिका जैसे देश में राष्ट्रपति ट्रंप के झूठ ट्रैक किये जाते हैं, पत्रकार खुल कर उनसे सवाल पूछने का साहस करते हैं कि कितना झूठ और बोलोगे। इसके विपरीत भारत में ऐसा साहस करने वाले पत्रकार कितने हैं।
अब तो राजनीतिक शिखर पुरुष प्रेस कांफ्रेंस ही नहीं करते और जब अपनी जरूरत के अनुरूप साक्षात्कार देते हैं, तो पत्रकार व उनके मीडिया समूह गौरवान्वित हो उस साक्षात्कार की मार्केटिंग करने में व्यस्त हो जाते हैं। इन्हीं स्थितियों ने भारत में मीडिया की आजादी के मापदंड को बहुत नीचे गिरा दिया है।
दूसरी तरफ शांति के क्षेत्र में काम करने के लिए दिया जाने वाला दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नोबेल पुरस्कार के लिए दो पत्रकारों को चुना है। इनमें एक पत्रकार रैप्लर मीडिया ग्रुप की संस्थापक अमेरिकी पत्रकार मारिया रेसा हैं और दूसरे रूस के पत्रकार दिमित्री मुरातोव हैं। इन पत्रकारों को यह पुरस्कार उन देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वास्ते संघर्ष करने के लिए दिया गया है, जहां पत्रकारों को लगातार हमले और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है जिसमें उनकी हत्या तक कर दी जाती है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, नॉर्वे स्थित नोबेल समिति के अध्यक्ष बेरिट रीस-एंडर्सन ने कहा, 'स्वतंत्र और तथ्य-आधारित पत्रकारिता सत्ता के दुरुपयोग, झूठ और युद्ध के दुष्प्रचार से बचाने का काम करती है।'
उन्होंने कहा, 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के बिना, राष्ट्रों के बीच भाईचारे को सफलतापूर्वक बढ़ावा देना, निरस्त्रीकरण और सफल होने के लिए एक बेहतर विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देना मुश्किल होगा।'बता दें कि फिलीपींस से नाता रखने वाली अमेरिकी पत्रकार मारिया रेसा न्यूज साइट रैप्लर की सह-संस्थापक हैं। उन्हें फिलीपींस में सत्ता की ताकत के गलत इस्तेमाल, हिंसा और तानाशाही के बढ़ते खतरे पर खुलासों के लिए पहले भी सम्मानित किया जा चुका है। नोबेल कमेटी ने अभिव्यक्ति की आजादी में उनकी भूमिका की प्रशंसा करते हुए उन्हें इस सम्मान का हकदार बताया।
ऐसे में एक ओर जहां दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार इस बार दो पत्रकारों को दिया जाता है,वहीं दूसरी तरफ दुनिया के बड़े लोकतंत्र का दंभ भरनेवाली भारत की सरकार में मीडिया के गोदी मीडिया के रूप में पहचान बन जाने की बात आदमी तक करने लगा है। मीडिया मुनाफे के कारोबार का हिस्सा बन कर अपना मूल पहचान खोती जा रही है। ऐसे वक्त में राष्टीय प्रेस दिवस जैसे आयोजनों को रश्मी कार्यवाही से अधिक नहीं समझा जा सकता। हालात अगर ऐसे रहे तो हमारे अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।