पूरी दुनिया में बढ़ता जा रहा है पूंजीवाद का वर्चस्व —राजनीतिक दल और मीडिया पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर

पूंजीवादी व्यवस्था अब भुखमरी, बेरोजगारी से जूझती और सामाजिक ध्रुवीकरण की शिकार जनता को भी अपना शिकार बना रही है, तभी पूरी दुनिया में कट्टरपंथी, दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी ताकतें लगातार उभर रही हैं और पूंजीवाद का भविष्य सुरक्षित कर रही हैं...

Update: 2022-10-03 06:54 GMT

पूरी दुनिया में बढ़ता जा रहा है पूंजीवाद का वर्चस्व —राजनीतिक दल और मीडिया पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर 

महेंद्र पांडेय की टिप्पणी

Neo-liberals or supporters of free-market capitalism, firmly believe in abstract and completely meaningless statements of political leaders. पूंजीवादी समाज और मुक्त बाजार के समर्थक, नव-उदारवादी, जिनकी संख्या दुनिया के हरेक देश में दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ बेतहाशा बढ़ती जा रही है, राजनीतिक नेताओं के जुमले और निराधार दावों और वक्तव्यों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं और ऐसे ही नेताओं और राजनीतिक पार्टियों का समर्थन करते हैं।

नव-उदारवादी पूंजीवाद से इस हद तक प्रभावित रहती है कि भुखमरी, बेरोजगारी और गिरते जीवनस्तर के बाद भी पूंजीवादी व्यवस्था और इसके साथ ही कट्टरवाद के गुण गाती है। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ अमस्टरडम के सामाजिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने किया है और इसे जर्नल ऑफ़ सोशल एंड पोलिटिकल साइकोलॉजी में प्रकाशित किया गया है।

डिजिटल युग में जितने तथ्यात्मक वक्तव्य या समाचार उपलब्ध हैं, उसकी तुलना में भ्रामक खबरों, झूठ, निराधार वक्तव्यों और समाज के ध्रुवीकरण करने की साजिश वाली पोस्ट कई गुना अधिक उपलब्ध हैं। लगभग सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सामाजिक सरकारों और संवेदनशीलता के तमाम दावों के बाद भी ऐसे खबरों को सबसे आगे रखते हैं। सोशल मीडिया इन दिनों राजनीतिक धोखाधड़ी के लिए सबसे बड़ा खेल का मैदान बन गया है और इसमें निराधार वादे करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा निराधार दावों और नारों द्वारा सूचनाओं की बारिश की जाती है।

जनता जब तक एक समाचार देखकर कुछ समझने का प्रयास करती है इसी बीच में अनेक और भ्रामक खबरें लोड कर दी जाती हैं। जाहिर है आज के डिजिटल दौर में मतदाताओं की राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बारे में राय समाचारों या विकास के आंकड़ों से नहीं बनती, बल्कि केवल खोखले वादों और निराधार दावों और वक्तव्यों से बनती है। यही स्थिति पूरी दुनिया में है, इसी कारण कट्टरपंथी, पूंजीवाद समर्थक और छद्म राष्ट्रीयता का नारा देने वाले लगभग हरेक देश में सत्ता पर काबिज होते जा रहे हैं। नारों और वक्तव्यों द्वारा जनता को गुमराह करने वाले अब लगभग हरेक देश में शासन कर रहे हैं।

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जनता को गुमराह करके सत्ता तक पहुँचने का रास्ता पूरी दुनिया में एक न्यू नार्मल हो गया है, अब वही राजनीतिक दल या व्यक्ति चुनावों में जीतता है जो ताबड़तोड़ निराधार, अर्थहीन और तथ्यहीन वक्तव्य दे सके। ऐसे वक्तव्य भले ही तथ्यहीन हों, इनका कोई मतलब नहीं निकलता हो पर पूंजीवाद के पक्षधर नव-उदारवादी आबादी को खूब भाते हैं। इस सन्दर्भ में देखे तो आधारहीन वक्तव्य और वादे ही राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा आधार तैयार करते हैं।

इस अध्ययन में दुनियाभर में कट्टरपंथी राजनीतिक दलों द्वारा लगातार प्रचारित कहे जाने वाले वक्तव्यों का उदाहरण भी दिया गया है। "लोगों पर या अपने देश पर भरोसा कीजिये", "आप लोगों के सुनहरे भविष्य के लिए हम किसी से भी युद्ध को तैयार हैं", "बेहतर और मजबूत देश के लिए" जैसे वक्तव्यों या नारों का कोई भी मतलब नहीं होता, पर नव-उदारवादी इससे लगातार प्रभावित रहते हैं और ऐसे वादों वाले दलों को सत्ता पर बिठाते हैं। यह अध्ययन नीदरलैंड, सर्बिया और अमेरिका में किया गया है, पर पूरी दुनिया में ऐसा ही हो रहा है। हमारे देश के सन्दर्भ में देखें तो "न्यू इंडिया", "एक भारत-श्रेष्ठ भारत", "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास" जैसे नारों का कोई भी मतलब नहीं है, पर जनता को यही नारे लुभाते हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ अमस्टरडम के सामाजिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के अनुसार राजनीतिक तौर पर व्यापक झूठ एक नया वैश्विक ट्रेंड है और तर्कहीन और आधारहीन वादों का जनता पर, विशेषतौर पर मतदाताओं पर, कितना प्रभाव पड़ता है इसका अध्ययन पहले नहीं किया गया है। सामाजिक मनोवैज्ञानिकों के इस दल ने या जानने का भी प्रयास किया कि क्या पूरे समाज पर ऐसे खोखले दावों और जुमलों पर एक जैसा ही असर पड़ता है, या फिर कोई वर्गविशेष इससे अधिक प्रभावित रहता है।

नव-उदारवादी वर्ग इस दल के लिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि हरेक देश में कट्टरवाद, छद्म-राष्ट्रवाद और पूंजीवाद साथ-साथ उभरता है। इस अध्ययन को तीन चरणों में किया गया था। सभी प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और आर्थिक विचारधारा का लम्बे साक्षात्कार के बाद आकलन किया गया था। इसके बाद पहले चरण में प्रतिभागियों से बेतुके राजनैतिक वक्तव्यों वाले 10 वाक्यों के बारे में पूछा गया कि ये वाक्य कितने प्रेरक लगे। इसी तरह अगले चरण में 5 बेतुके राजनीतिक नारे और तीसरे चरण में 3 विस्तृत राजनीतिक कार्यक्रम के बारे में विचार मांगे गए। सभी प्रतिभागियों के जवाबों का विस्तृत आकलन करने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि सभी बेतुके वाक्यों, नारों और राजनीतिक कार्यक्रमों ने नव-उदारवादी सोच वाले प्रतिभागियों को सबसे अधिक प्रभावित किया।

पूंजीवाद समाज को पूरी तरह बदल देता है, और इस कार्य में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का उसे भरपूर साथ मिलता है। जब पूंजीवाद को अपना अधिकार माँगते श्रमिक बोझ लगने लगे तब विज्ञान ने उन्हें रोबोट और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस पकड़ा दिया। जब पूंजीवाद को सामान्य आबादी जागरूक होती नजर आई, तब विज्ञान ने स्मार्टफोन का तोहफा दिया। जब से स्मार्टफोन हरेक हाथ में आ गया तब से अब तक पूंजीवाद ने चरम पूंजीवाद का रास्ता तय कर लिया। हरेक हाथ में स्मार्टफोन है, और इसे चलाने वाले मानसिक दीवालिया होने की कगार पर पहुँच गए, पूरा सामाजिक ढांचा ही बदल गया है।

पूरी दुनिया में पूंजीवाद का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और राजनीतिक दल और मीडिया पूरी तरह पूंजीपतियों पर निर्भर होते चले गए। पूंजीपति देशों पर राज करने लगे और राजनीतिक दल सही मायने में इन पूंजीपतियों का मोहरा बन चुके हैं। पूंजीवादी व्यवस्था अब भुखमरी की शिकार, बेरोजगारी से जूझती और सामाजिक ध्रुवीकरण की शिकार जनता को भी अपना शिकार बना रही है, तभी पूरी दुनिया में कट्टरपंथी, दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी ताकतें लगातार उभर रही हैं और पूंजीवाद का भविष्य सुरक्षित कर रही हैं।

कुछ महीनों पहले सोशल साइंस क्वार्टरली नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया था कि पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी चरमपंथी कट्टरवादी राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों के सत्ता तक पहुँचने का कारण ऐसे दलों द्वारा मतदाताओं को दिखाया जाने वाला डर नहीं है, बल्कि यह सब परम्परागत राजनीति और संवैधानिक संस्थाओं के विरुद्ध जनता के गुस्से और आक्रोश का परिणाम है। जाहिर है, इस गुस्से और आक्रोश को पूंजीवाद हवा दे रहा है, और राजनीतिक दल तर्कहीन तथ्यहीन और भ्रामक वक्तव्यों द्वारा जनता के समर्थन का शॉर्टकट अपना रहे हैं।

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