Political Tamasha: कैसा होता है वह देश जिसे शासक एक तमाशे में बदल देता है
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महेंद्र पाण्डेय की शायरी
Political Tamasha: देश एक बड़े तमाशे में तब्दील हो गया है, जिसमें एक मदारी है और असंख्य जमूरे हैं| पहले जमूरे मदारी के पास ही खड़े होकर उसकी आज्ञा का पालन करते थे, पर अब समय बदल गया है और जमूरे टीवी स्टूडियो में और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर बैठे हैं और मदारी का हुक्म बजा रहे हैं| तमाशा का यह असर हो गया है कि अब विकास का दूसरा नाम तमाशा है, जैसे जनता के पैसों से खडी होने वाली परियोजनाओं का नाम सौगात और जनता को दी जाने वाली सुविधाओं को लाभ है| जाहिर है, अब जनता का पर्यायवाची लाभार्थी हो गया है| मदारी तमाशा दिखाता है और मेनस्ट्रीम मीडिया उस तमाशे को दुनिया तक पहुंचाता है| मदारी का हुक्म है, उसके तमाशे पर कोई नहीं हँसे| यदि कोई हँसता हुआ पाया जाता है तो वह देशद्रोही हो जाता है, आतंकवादी हो जाता है|
इस नए तमाशे से सम्बंधित कविताओं की संख्या कम है. मदन कश्यप अपनी कविता, तमाशा, में पूछते हैं - कैसा होता है वह देश जिसका शासक बड़े से बड़े मसले को तमाशे में बदल देता है, और जनता को तमाशबीन बनने पर मजबूर कर देता है|
तमाशा/मदन कश्यप
सरकस में शेर से लड़ने की तुलना में
बहुत अधिक ताकत और हिम्मत की जरूरत होती है
जंगल में शेर से लड़ने के लिए
जो जिंदगी की पगडंडियों पर इतना भी नहीं चल सका
कि सुकून से चार रोटियां खा सके
वह बड़ी आसानी से आधी रोटी के लिए रस्सी पर चल लेता है
तमाशा हमेशा ही सहज होता है क्योंकि इसमें
बनी-बनाई सरल प्रक्रिया में चीजें लगभग पूर्व निर्धारित गति से
चलकर पहले से सोचे-समझे अंत तक पहुंचती हैं
कैसा होता है वह देश
जिसका शासक बड़े से बड़े मसले को तमाशे में बदल देता है
और जनता को तमाशबीन बनने पर मजबूर कर देता है!
बोधिसत्व अपनी कविता, तमाशा, में कहते हैं, अपने जमूरे का गला काटकर मदारी कह रहा है — 'ताली बजाओ ज़ोर से' और हम ताली बजा रहे हैं|
तमाशा/बोधिसत्व
तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं
मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं
मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं
अपने जमूरे का गला काटकर
मदारी कह रहा है —
'ताली बजाओ ज़ोर से'
और हम ताली बजा रहे हैं ।
सावित्री नौटियाल काला अपनी कविता, राजनीति, में आज के दौर की राजनीति की चर्चा करती हैं, पर सबकुछ एक तमाशा जैसा ही प्रतीत होता है|
राजनीति/सावित्री नौटियाल काला
आज राजनीति कुछ मवालियों के हाथ है
जिनका प्रशासन में पूरा साथ है
यहां होने वाले सभी घोटालों में
अपने देश के नेताओं का पूरा हाथ है।
आज भारत की नैया डूब रही है
धैर्य का बांध भी छूट रहा है
पर वे तो एक दूसरे को ही दूर करने में लगे है
क्योंकि शासन तंत्र की पूरी छूट पा रहे है
करों का तो केवल तमाशा है
भारत की नहीं कोई भाषा है
इसकी प्रगति की भी नहीं आशा है
कैसी छाई घनघोर निराशा है
हर नागरिक ने अपने को ही साधा
अपनी भावनाओं को अपने से ही बांधा
पर प्रशासन ने उनको भी किया आधा
जब उनको टैक्स के पंजे से बांधा
हम ऐसे में क्या कर पायेंगे
कैसे गृहस्थी की नैया पार लगायेंगे
न जाने क्या-क्या खोकर कुछ पायेंगे
क्या ऐसा जीवन हम जी पायेंगे
नेताओं का यहां सरे आम गर्म है बाजार
शासन भी करता उनके द्वारा व्यापार
बेचारी जनता ही पिसती है बार-बार
क्योंकि घोटालों का ही है यहां कारोबार
अब तो डीज़ल व पैट्रोल के बढ़ गए है दाम
करेंगे सैलानी अब घर में ही आराम
बाहर जाने का नहीं रहेगा कोई काम
वे बने रहेंगे अब घर के ही मेहमान
सरकार की कैसी यह नीति है
लोगों में बढ़ गई अब नीति है
अरे यह तो सबकी आपबीती है
सुनते है सुनाते है यहीं तो नीति है
आवो ऐसा संसार बनाएँ
राजनीति में न भरमायें
शासन तंत्र में सुधार लायें
अपने प्रदेश को स्वच्छ राज्य बनाएँ।
धूमिल ने अपनी चर्चित कविता, हर तरफ धुआँ है, में सत्ता और जनता के बीच के तमाशे का खाका खींचा है|
हर तरफ धुआँ है/धूमिल
हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता।
यहांकायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है
हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है
इस लेख के लेखक ने अपनी कविता, तमाशा, में मौजूदा दौर के तमाशे को बताया है, जिसे सत्ता विकास के नाम से प्रचारित करती है|
तमाशा/महेंद्र पाण्डेय
पहले फटेहाल तमाशा दिखाते थे
चीथड़े ओढ़े जमूरा था
सब कहते हैं
विकास ने सबकुछ लील लिया
पर, छोड़ गया तमाशा
अब तमाशा बदल गया है
सत्ता का इसपर एकाधिकार हो गया है
तमाशा दिखाने वाले
डिज़ाइनर कपडे पहनने लगे
अब, तमाशा दिखाने वाला आता है
हाथ हवा में लहराता है
माइक पर लटक जाता है
और फिर भूखे नंगों को
रोटी का तमाशा दिखाता है
फिर भेस बदलता है
बेरोजगारों को रोजगार का तमाशा दिखाता है
फिर भेस बदलता है
पुलिस से कुचले गए लोगों को
कानून-व्यवस्था का तमाशा दिखाता है
हिन्दू-मुस्लिम वाला तमाशा तो बार-बार दिखाता है
फिर भेस बदलता है
सीबीआई का तमाशा दिखाता है
मुर्दों को जीवन का तमाशा दिखाता है
तमाशा भी हाईटेक हो चला है
कैमरा चारों और लगा होता है
कभी नदी में डूबता है
कभी नगाड़े बजाता है
कभी थिरकता है
कभी किसी फ्लाईओवर पर बीचोंबीच रुक जाता है
उसके जमूरे टीवी स्टूडियो में बैठे
क्या हुक्म है मेरे आका का जाप करते हैं
असंख्य सोशल मीडिया पर जी-हुजूरी में व्यस्त है
अब तो हद हो गयी है
तमाशा को वह रोजगार कहता है
तमाशा को वह समृद्धि कहता है
तमाशा को वह विकास कहता है
तमाशा को वह तमंचा भी कहता है
तभी तो हरेक तमाशा के बाद
लोगों का मरना तय है
तमाशा अभी चल रहा है
तालियाँ बज रही हैं
पर
शायद उसे नहीं मालूम
तमाशा दिखाने वालों को एक दिन
बनाना ही पड़ता है तमाशबीन
मदारी की ताकत छीन जाती है
और, जमूरे बहरे हो जाते हैं
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