नए लेबर कोड मजदूरों को गुलाम बनाने की साज़िश, देश के मजदूरों, फैक्टरियों और रोजगार व्यवस्था पर पड़ेगा बड़ा असर !

मजदूरों को सबसे ज्यादा डर हड़ताल से जुड़े नियमों में बदलाव से है। अब अगर कोई संगठन हड़ताल के नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे अवैध माना जाएगा। यूनियन की मान्यता भी रद्द हो सकती है। इतना ही नहीं, हड़ताल करने वाले कर्मचारियों को जेल या भारी जुर्माने का सामना भी करना पड़ सकता है। पहले जरूरी सेवाओं से जुड़े मजदूरों के लिए हड़ताल से पहले 14 दिन का नोटिस देना होता था, लेकिन अब 60 दिन पहले नोटिस देना अनिवार्य कर दिया गया है...

Update: 2025-12-18 12:53 GMT

file photo

रामस्वरूप मंत्री की टिप्पणी

केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा वर्ष 2019 और 2020 में संसद के माध्यम से चार नए श्रम संहिताएं पारित की गईं। ये संहिताएं – जिनमें 29 मौजूदा कानूनों को समाहित किया गया है – वेतन, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वस्थ कार्य परिस्थितियों से संबंधित हैं। सरकार ने मजदूर संगठनों के विरोधक ना नजरअंदाज कर इस लेबर कोरड को लागू कर दिया है लेबर कोड (श्रम संहिता) का विरोध मुख्य रूप से इसलिए हो रहा है क्योंकि मजदूर संगठन और श्रमिक मानते हैं कि ये कोड श्रमिकों के अधिकारों, नौकरी की सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा को कमजोर करते हैं, मालिकों को अधिक शक्ति देते हैं, "हायर एंड फायर" (रखना और निकालना) को बढ़ावा देते हैं, और लंबे समय से हासिल किए गए अधिकारों को छीन लेते हैं, जिससे कामगारों का शोषण बढ़ सकता है ।

विरोध के प्रमुख कारण

नौकरी की असुरक्षा: 'फिक्स्ड-टर्म' रोजगार और 'हायर एंड फायर' की आसान प्रक्रिया से नौकरी की सुरक्षा घट जाती है और कर्मचारी आसानी से निकाले जा सकते हैं।

शोषण में वृद्धि: ट्रेड यूनियनों का मानना है कि ये कोड मालिकों के पक्ष में हैं और इससे श्रमिकों का शोषण बढ़ेगा, खासकर गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स का, जिन्हें कर्मचारी के बजाय 'कार्यकर्ता' माना जाता है।

यूनियन गतिविधियों पर असर: इन कोड्स से यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकार कमजोर हो सकते हैं, जिससे सामूहिक सौदेबाजी मुश्किल हो जाएगी।

सामाजिक सुरक्षा में कमी: गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स को 'कर्मचारी' का दर्जा न मिलने से उन्हें भविष्य निधि (PF) और ग्रेच्युटी जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिलेगा।

काम के घंटे और नाइट शिफ्ट: रात की शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं पर अतिरिक्त काम थोपा जा सकता है, भले ही वे न चाहें।

पुराने कानूनों का कमजोर होना: 29 पुराने श्रम कानूनों को खत्म कर 4 नए कोड लाने से कई मजदूरों के कानूनी अधिकार खत्म हो जाएंगे और वे सुरक्षा से बाहर हो जाएंगे।

न्यूनतम मजदूरी: न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण और उसे लागू करना कठिन हो सकता है, जिससे मजदूरों की आय कम होगी।

नियोक्ता संगठनों ने इन संहिताओं पर भले ही चुप्पी साध रखी हो, लेकिन उन्होंने निजी तौर पर अपनी निराशा व्यक्त की है। उनका कहना है कि नई संहिताओं का बाजार पर अपेक्षित उदार प्रभाव नहीं पड़ेगा।

मंत्रालय के अधिकारियों ने नियमों के कार्यान्वयन में देरी के लिए कोई विशिष्ट कारण नहीं बताया है, सिवाय इसके कि राज्य अभी भी नियम बना रहे हैं। कुछ महीने पहले जारी किए गए पिछले अपडेट में , एक आधिकारिक बयान में कहा गया था कि कुछ प्रमुख राज्यों को छोड़कर, सभी प्रमुख राज्यों ने नियम बनाने की प्रक्रिया पूरी कर ली है।

तीन नए कृषि कानून श्रम कानूनों के लगभग साथ ही लागू हुए। कृषि कानूनों के कड़े और मुखर विरोध और किसानों के लंबे प्रदर्शन के बाद, सरकार ने इन्हें वापस ले लिया। हालांकि, प्रमुख ट्रेड यूनियनों के विरोध के बावजूद, श्रम कानूनों ने जमीनी स्तर के श्रमिक वर्ग में व्यापक विरोध को जन्म नहीं दिया। ट्रेड यूनियनों के विरोध प्रदर्शन धरने, कुछ आम हड़तालों और छिटपुट आंदोलनों जैसी सामान्य गतिविधियों तक ही सीमित रहे।

श्रम संबंधी मामलों पर सामान्यतः त्रिपक्षीय रूप से विचार-विमर्श किया जाता है। चार नए संहिताओं का निर्माण एक महत्वपूर्ण कानूनी गतिविधि है जिसके व्यापक सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ हैं जो हम सभी को प्रभावित करते हैं।

ट्रेड यूनियनों ने आरोप लगाया कि उनसे परामर्श तो किया गया, लेकिन आचार संहिता को अंतिम रूप देते समय उनके विचारों को ध्यान में नहीं रखा गया। उन्होंने कहा कि चारों श्रम संहिताओं को तैयार करने की पूरी प्रक्रिया 'व्यापार करने में आसानी' के सिद्धांत से प्रेरित थी, जिससे नियोक्ताओं के लिए अनुपालन का बोझ कम हो जाता है।

देश में त्रिपक्षीय परामर्श का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण मंच भारतीय श्रम सम्मेलन (आईएलसी) है। 2015 तक आईएलसी की बैठक हर दूसरे वर्ष होती थी, जिसके बाद यह पूरी तरह बंद हो गई। यह बेहद आश्चर्यजनक है कि 2015 के बाद से आईएलसी की बैठक श्रम संहिता जैसे महत्वपूर्ण प्रावधानों पर चर्चा या अनुमोदन के लिए नहीं हुई है। इसके अलावा, संसद के दोनों सदनों में इन संहिताओं पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई। ट्रेड यूनियनें भी श्रम संहिताओं के खिलाफ श्रमिक वर्ग को एकजुट करने और सरकार को इस मामले पर आईएलसी बुलाने के लिए बाध्य करने में विफल रहीं।

श्रमिक वर्ग की श्रम कानूनों के प्रति उदासीनता

लेकिन श्रमिक वर्ग ने अब तक श्रम कानूनों के खिलाफ चल रहे विरोध के साथ खुद को क्यों नहीं जोड़ा है?

इसका उत्तर शायद इस तथ्य में निहित है कि चार संहिताएँ, या यूँ कहें कि मौजूदा श्रम कानून, आम भारतीय श्रमिकों के जीवन में शायद ही कोई फर्क लाते हैं। इसका कारण यह है कि भारतीय श्रम बाजार काफी हद तक अनौपचारिक है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम जैसे अपवादों को छोड़कर, अधिकांश श्रम कानून अनौपचारिक श्रम पर लागू नहीं होते हैं।

भारत में, औपचारिकता को भविष्य निधि और कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) लाभों तक पहुंच के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है। यदि किसी श्रमिक को ईपीएफ और ईएसआई का लाभ मिलता है, तो उसे औपचारिक श्रमिक माना जाता है। बाकी सभी अनौपचारिक श्रमिक हैं। यह अनौपचारिक श्रमिकों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त परिभाषा के अनुरूप है, जिसके अनुसार अनौपचारिक श्रमिक वे होते हैं जो सामाजिक सुरक्षा के बिना काम करते हैं।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि औपचारिक क्षेत्र में भी कई अनौपचारिक श्रमिक कार्यरत हैं। यह कार्यबल के संविदाकरण और अनौपचारिकीकरण में वृद्धि के माध्यम से किया जाता है। उदाहरण के लिए, सभी निर्माण इकाइयाँ औपचारिक हैं, लेकिन उनके द्वारा नियोजित श्रमिक लगभग पूरी तरह से अनौपचारिक हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सभी कामगारों में से 52% स्वरोजगार में हैं, जिनमें अवैतनिक पारिवारिक श्रम (UFL) में लगे हुए लोग भी शामिल हैं। हाल के वर्षों में, गिग और प्लेटफॉर्म कामगारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। गिग और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था में, रोजगार संबंध की अवधारणा को जानबूझकर अस्पष्ट रखा जाता है, जिससे ये कामगार प्रभावी रूप से श्रम कानूनों के सुरक्षात्मक ढांचे से बाहर हो जाते हैं

कार्यबल के संविदाकरण और अनौपचारिकीकरण में वृद्धि के माध्यम से किया जाता है। उदाहरण के लिए, सभी निर्माण इकाइयाँ औपचारिक हैं, लेकिन उनके द्वारा नियोजित श्रमिक लगभग पूरी तरह से अनौपचारिक हैं।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सभी कामगारों में से 52% स्वरोजगार में हैं, जिनमें अवैतनिक पारिवारिक श्रम (UFL) में लगे हुए लोग भी शामिल हैं। हाल के वर्षों में, गिग और प्लेटफॉर्म कामगारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। गिग और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था में, रोजगार संबंध की अवधारणा को जानबूझकर अस्पष्ट रखा जाता है, जिससे ये कामगार प्रभावी रूप से श्रम कानूनों के सुरक्षात्मक ढांचे से बाहर हो जाते हैं।

वास्तविक आंकड़ों के संदर्भ में इसका क्या अर्थ है?

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार, 2024 में भारतीय श्रम बल 610 मिलियन था। यदि उनमें से 93% अनौपचारिक श्रमिक हैं, तो भारत में अनौपचारिक श्रम का आकार 567 मिलियन है।

इन 567 मिलियन लोगों में से 58% स्वरोजगार में लगे हुए हैं, जिसका अर्थ है कि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध न होने के कारण वे श्रम संरक्षण कानूनों के दायरे से पूरी तरह बाहर हैं। इनकी संख्या 354 मिलियन है। शेष 266 मिलियन अनौपचारिक श्रमिक वेतनभोगी हैं और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के अंतर्गत आते हैं।

नए श्रम कानूनों में से केवल वेतन संहिता और सामाजिक सुरक्षा संहिता के कुछ भाग ही अनौपचारिक श्रमिकों पर लागू होते हैं। शेष कानून मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र पर लागू होते हैं, जिसमें लगभग 610 मिलियन श्रमिकों में से 50 मिलियन से भी कम श्रमिक शामिल हैं। संक्षेप में, नए श्रम कानून 29 मौजूदा कानूनों को समेकित करते हैं, जिनमें से अधिकांश पहले से ही औपचारिक क्षेत्र तक सीमित थे। इसका अर्थ यह है कि स्वतंत्रता के बाद से, श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रहा है। परिणामस्वरूप, अनौपचारिक श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग नए श्रम कानूनों के लागू होने से अप्रभावित रहा है।

सरकार के मुताबिक़, “यह हमारे कामगारों को बहुत ताक़तवर बनाता है. इससे कम्प्लायंस भी काफ़ी आसान हो जाएगा और यह ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस’ को बढ़ावा देने वाला है.”हालाँकि कई मज़दूर संगठनों का मानना है कि इससे कामगारों का शोषण बढ़ेगा और इसे पूंजीपतियों के दबाव में तैयार किया गया है.

लेबर कोड के ख़िलाफ़ इंटक, एटक, एचएमएस, सीआईटीयू, एआईयूटीयूसी, टीयूसीसी, एईडब्लूए, एआईसीसीटीयू, एलपीएफ़ और यूटीयूसी जैसे मज़दूर संगठनों ने 26 नवंबर को देशभर में विरोध प्रदर्शन भी किया है. क्या ये कोड भारत के मज़दूरों की न्याय के लिए इन 5 ज़रूरी मांगों को हक़ीक़त बना पाएंगे?

—मनरेगा समेत पूरे देश में हर किसी के लिए 400 रुपये की न्यूनतम मज़दूरी

—‘राइट टू हेल्थ’ क़ानून जो 25 लाख रुपये का हेल्थ कवरेज देगा

—शहरी इलाक़ों के लिए एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट

—सभी असंगठित श्रेत्र के मज़दूरों के लिए पूरी सोशल सिक्योरिटी, जिसमें लाइफ़ इंश्योरेंस और एक्सीडेंट इंश्योरेंस शामिल है

—प्रमुख सरकारी क्षेत्रों में कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरी पर रोक

मोदी सरकार को कर्नाटक सरकार और राजस्थान की पिछली सरकार से सीखना चाहिए, जिन्होंने नए कोड से पहले अपने ज़बरदस्त गिग वर्कर क़ानूनों के साथ 21वीं सदी के लिए लेबर रिफ़ॉर्म की शुरुआत की थी.”

नए लेबर कोड में क्या है और इसके लागू होने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा.केंद्र सरकार ने ‘कोड ऑन वेज’ यानी पगार या मज़दूरी से जुड़ा कोड साल 2019 में ही संसद से पारित करा लिया था. इसके बाद साल 2020 में संसद के दोनों सदनों से तीन लेबर कोड को पारित कराया गया.

इनमें ऑक्यूपेशनल सेफ़्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड (ओएसएच), कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी और इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड शामिल हैं.हालांकि कई लोगों का मानना है कि किसानों से जुड़े क़ानून का विरोध शुरू होने के बाद सरकार ने लेबर कोड को लागू करने में सावधानी बरती है.

नया लेबर कोड क्यों हो रहा विवाद?

बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि कई बड़े मजदूर संगठन-जैसे इंटक, एटक और सीआईटीयू-नए लेबर कोड का भारी विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इन नियमों की वजह से कर्मचारियों की नौकरी की सुरक्षा कमजोर हो जाएगी और मालिकों को मनमानी करने का ज्यादा अधिकार मिल जाएगा। संगठनों का सबसे बड़ा आरोप ‘फिक्स्ड टर्म जॉब’ मॉडल पर है। उनके मुताबिक कर्मचारी को स्थायी नौकरी का कोई भरोसा नहीं होगा। इससे नौकरी की अनिश्चितता बढ़ेगी और मजदूर हर समय असुरक्षा में रहेंगे। “मज़दूरों से जुड़े 29 मौजूदा क़ानूनों को 4 कोड में री-पैकेज किया गया है. इसका किसी क्रांतिकारी सुधार के तौर पर प्रचार किया जा रहा है, जबकि इसके नियम अभी तक नोटिफ़ाई भी नहीं हुए हैं.”

मजदूरों को सबसे ज्यादा डर हड़ताल से जुड़े नियमों में बदलाव से है। अब अगर कोई संगठन हड़ताल के नियमों का उल्लंघन करता है तो उसे अवैध माना जाएगा। यूनियन की मान्यता भी रद्द हो सकती है। इतना ही नहीं, हड़ताल करने वाले कर्मचारियों को जेल या भारी जुर्माने का सामना भी करना पड़ सकता है। पहले जरूरी सेवाओं से जुड़े मजदूरों के लिए हड़ताल से पहले 14 दिन का नोटिस देना होता था, लेकिन अब 60 दिन पहले नोटिस देना अनिवार्य कर दिया गया है।

मजदूर संगठन कहते हैं कि हड़ताल मजदूरों का सबसे बड़ा हथियार होता है और अगर इसे कमजोर कर दिया जाएगा तो मालिकों की मनमानी और बढ़ जाएगी। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में मजदूरों, रोजगार, ट्रेड यूनियनों और श्रमिक कल्याण जैसे विषय समवर्ती सूचीमें आते हैं। इसका मतलब यह है कि इन पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र और राज्य दोनों के पास है। नए लेबर कोड पूरे देश पर लागू होंगे, लेकिन राज्यों को भी अपने-अपने नियम बनाने होंगे।

भारत में मजदूरों ने लंबे संघर्ष के बाद कुल 44 कानून बनवाए थे। इन कानूनों ने कर्मचारियों को कई अधिकार दिए थे-जैसे निर्धारित काम के घंटे, यूनियन बनाने का अधिकार, सामूहिक बातचीत और कामगारों की सुरक्षा के नियम जैसे प्रावधान शामिल थे। लेकिन नए कोड लागू होने के बाद मजदूर संगठनों का आरोप है कि 15 पुराने कानून खत्म कर दिए गए और जो बचे उन्हें मिलाकर ऐसा कानून बनाया गया है जो मजदूरों की जगह मालिकों के हित में ज्यादा दिखता है।

पहले किसी भी फैक्टरी में अगर 100 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे और मालिक उसे बंद करना चाहता था तो उसे सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती थी। नए कोड में यह संख्या बढ़ाकर 300 कर दी गई है। यानी अगर किसी फैक्टरी में 300 से कम लोग काम करते हैं तो मालिक बिना किसी सरकारी मंजूरी के उसे बंद कर सकता है। इसके बारे में विशेषज्ञ कहते हैं कि आज मशीनों की वजह से फैक्टरियों में कर्मचारियों की संख्या पहले से ही कम हो गई है। ऐसे में बड़े शहरों में जहां जमीन की कीमत बहुत ज्यादा है, वहां मालिक फैक्टरी बंद करके जमीन बेचकर भारी मुनाफा कमा सकते हैं।

नया लेबर कोड को सरकार सुधार बता रही है। सरकार का कहना है कि इससे उद्योग बढ़ेगा, रोजगार आएगा और कर्मचारियों को भी नई सुविधाएँ मिलेंगी। लेकिन मजदूर संगठन इसे मालिकों के हित में उठाया गया कदम मानते हैं। उन्हें लगता है कि इससे नौकरी की सुरक्षा खत्म होगी, यूनियन कमजोर होंगी और मजदूरों की आवाज़ दब जाएगी। इतना तय है कि नया लेबर कोड भारत के मजदूरों, फैक्टरियों और रोजगार व्यवस्था पर बड़ा असर डालने वाला है।

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार तथा समाजवादी पार्टी मध्य प्रदेश के महासचिव हैं।)

Tags:    

Similar News