Unorganized Worker: असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की समस्याएं और त्योहार का यह सीजन
Unorganized Worker: दीपावली की असीमित खुशियों का त्योहार शुरू हो चुका है। ऐसे माहौल में हर तरफ चकाचौंध और भव्य वैभव की चर्चा है। रोशनी से लबरेज इस त्योहार पर दस्तूर के मुताबिक जब हर शख्स उजाले में कुछ तलाश रहा हो तो ऐसे में घने अंधकार में कुछ तलाशना बेशक आम रिवायत और दस्तूर के मुखालिफ समझा जाता हो, लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने ऐसी मुखालफत की राह न केवल खुद खुशी से चुनी है बल्कि अंधेरे को दूर करके वहां रोशनी करने की पहल की है।
मेघा आर्य की नजर से मजदूरों के हालात
Unorganized Worker: दीपावली की असीमित खुशियों का त्योहार शुरू हो चुका है। ऐसे माहौल में हर तरफ चकाचौंध और भव्य वैभव की चर्चा है। रोशनी से लबरेज इस त्योहार पर दस्तूर के मुताबिक जब हर शख्स उजाले में कुछ तलाश रहा हो तो ऐसे में घने अंधकार में कुछ तलाशना बेशक आम रिवायत और दस्तूर के मुखालिफ समझा जाता हो, लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने ऐसी मुखालफत की राह न केवल खुद खुशी से चुनी है बल्कि अंधेरे को दूर करके वहां रोशनी करने की पहल की है। इन नामों में एक नाम मेघा नाम की एक मासूम बच्ची का भी है, जो अपने हिस्से की इस जिम्मेदारी को निभाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी की स्टूडेंट विंग से वास्ता रखने वाली मेघा ने दीपावली की रौनक के बीच उन मजदूरों के जीवन में झांकने की कोशिश की है, जिनके श्रम से यह दुनिया गुलजार है। पेश है महज कुछ मामूली व्याकरणीय त्रुटियों को संशोधित करते हुए मेघा की वह अप्रकाशित वह रिपोर्ट जो उन्होंने अपने अपने फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट की है।
जिस तरह मजदूरों के परिश्रम की कोई इंतहा ना तो अतीत में थी और ना ही वर्तमान में है। उसी तरह मजदूरों की मेहनत को लूटने में मालिकों ने ना तो अतीत में कोई कसर छोड़ी और ना ही वर्तमान में कोई कसर छोड़ रहे हैं। एक हद तक संगठित क्षेत्र के मजदूर अपने हक-हकूकों को बचाने के लिए मौजूदा हालात में सुधार के लिए तथा हर शोषण के विरुद्ध संगठित क्षेत्र के मजदूरों की एकजुटता हमेशा बनी तो रहती है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र के वे मजदूर हैं जिनके पास अपने साथ हो रहे अन्याय को समझने व उस अन्याय से उभरने के लिए कोई वैचारिक धरातल ही उपलब्ध नहीं है। जिस कारण उनकी वर्तमान स्तिथि बद से बदतर और कोल्हू के बैल जैसी होती जा रही है। इसीलिए मालिक भी अब उन्हें इंसान समझना भी ज़रूरी नहीं समझ रहा है।
इस बात से शायद ही कोई अपरिचित होगा कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों के ना तो काम के घंटे ही तयशुदा है,और न ही कोई तयशुदा तनख्वाह। मालिकों की इस मनमानी के खिलाफ एक भी लफ्ज़ बोलने का मतलब है खुद को बेरोजगारी की गर्त में धकेलना। एक तरह से अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारना। क्योंकि बेरोजगारों की इस लंबी फेहरिस्त में आपसे कई गुना सस्ते मजदूर आपके पीछे खड़े हैं। जो कि मात्र जीने लायक तनख्वाह पर अपना दिन-रात सब कुछ बेचने के लिए तैयार खड़े हैं। एक जगह से काम छोड़ कर यदि किसी दूसरी जगह काम तलाशा भी जाए तो बेरोजगारी के इस आलम में सभी मालिकों की मनमर्जियां अपने चरम पर है। हर जगह के हालात एक जैसे ही हैं।
रामनगर, जो कि एक छोटा सा शहर है। यहां फैक्ट्री के नाम पर आईएमपीसीएल मोहान और एमआर (दवाइयों की एक छोटी फैक्ट्री) के अलावा और कोई तीसरी फैक्ट्री ही नहीं है। इस शहर के लोगों के पास असंगठित क्षेत्र में काम करने या फिर यहां से पलायन करने की सिवाय कोई और विकल्प नहीं है।
नीलम, जो कि रामनगर के मुख्य बाजार से 3 किलोमीटर दूर एक गांव में रहती है। रामनगर बाजार की एक फुटवियर शॉप में काम करने वाली नीलम सुबह आठ बजे अपने घर से पैदल निकलती है दुकान से भी रात आठ बजे पैदल घर के लिए रवाना हो जाती है। इस 12 घंटे तक लगातार काम करने के एवज में नीलम को मिलते हैं मात्र पांच हजार रुपए और साथ में सप्ताह में एक दिन शुक्रवार को आधे दिन की छुट्टी।
नीलम अपनी इस मामूली नौकरी के साथ ही स्थानीय पीएनजीपीजी कॉलेज से बीए कर रही थी। कितना बड़ा विद्रूप हो की आपको पता चला कि रोजगार के चक्कर में नीलम का बीए ही धरा रह गया। लेकिन यह निर्मम सच्चाई है। नीलम बीए नहीं कर पाई।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां विनय के साथ भी है। विनय एक स्टेशनरी की दुकान में काम करता है। कक्षा 10 का छात्र विनय बारह बजे स्कूल से घर आकर दोपहर एक बजे से रात ग्यारह या बारह बजे तक स्टेशनरी की दुकान में काम करता है। जिसके लिए उसे महीने के तीन हजार दिए जाते हैं। यह रुपए मालिक की बड़ी कृपा इसलिए हैं कि इससे पहले उसे ढाई हजार रुपए ही दिए जा रहे थे।
उसी तरह रामनगर के एक निवासी विकास है। जो कि एक कॉस्मेटिक की दुकान में काम करते हैं। जिनकी मासिक तनख्वाह सात हजार है। 17 साल के विकास की दिनचर्या की बात करें तो वह ठीक सुबह नौ बजे दुकान पर पहुंच जाता है। पूरे दिन भर काम करने वाला विकास अपने लंच के लिए 15 से 20 मिनट का समय भी बमुश्किल ही काम के मुताबिक खुद निकालता है। रात को छुट्टी के वक्त विकास कभी साढ़े नौ तो कभी दस या कभी साढ़े दस बजे तक ही काम से छूट पाता है। किसी को यह बात शायद नोटिस लेने लायक भी न लगती हो कि विकास के खून पसीने के लथपथ यह अतिरिक्त घंटे कहीं किसी गिनती में नहीं है। यह बात दीगर है कि काम की बात करते वक्त काम का समय मात्र 12 घंटे तय हुआ था। और इसी बीच खाना खाने के लिए 1 घंटे का समय तय हुआ था। क्योंकि यह सीजन (दिवाली या त्योहारों का समय) चल रहा है, और काम बहुत ज्यादा है तो विकास का मालिक विकास और बाकी मजदूरों को रात के बारह या एक या कभी कभार दो बजे तक भी रोकता है। इसमें भी इस अतिरिक्त समय (जो कि रात नौ बजे से रात के बारह तक ही था। लेकिन मजदूरों से रात एक या दो बजे तक भी काम लिया जाता है) में काम करने के बदले में मजदूरों को डेढ़ सौ रुपए अतिरिक्त दिए जाते हैं। अंदाजा लगाना शायद ही किसी के लिए मुश्किल भरा हो कि 16 से 17 घंटे लगातार काम करने के बाद इंसान तो क्या किसी जानवर का शरीर भी किस तरह टूट जाता है।
अब बात करें कुंदन की तो वह भी इसी अमानवीय परिस्थितियों से गुजरता एक नवयुवक है। कुंदन एक थोक विक्रेता की दुकान में काम करता है। एक और युवा लड़का अंकुर है। अंकुर एक जनरल स्टोर में काम करता है। जिसकी मासिक तनख्वाह नौ हजार रुपए है। ड्यूटी टाइम सुबह दस से शाम दस बजे तक का है। हालांकि ग्यारह या बारह बजे से पहले अंकुर का मालिक उसे कभी नहीं छोड़ता है। लेकिन क्योंकि आजकल सीजन चल रहा है इसलिए अंकुर का मालिक उससे रात एक बजे तक काम लेता है। इस अतिरिक्त मेहनत का अंकुर को कोई अतिरिक्त मूल्य नहीं दिया जाता है। देर रात तक अंकुर के घर ना आने पर जब अंकुर के पिता फोन पर अंकुर के मालिक से बात करते हैं। और बोलते हैं कि आपने तो हमारे बच्चे को बंधुआ मजदूर ही समझ लिया है। तो उधर से सुरीली आवाज में यही जवाब मिलता है कि भई, ये तो सीजन चल रहा है।
रामनगर के नीलम, कुंदन, विनय और अंकुर ऐसी जगहों पर काम करते हैं ,जहां उन्हें एक पल के लिए बैठने तक की भी फुर्सत नहीं मिलती है। विनय, कुंदन और अंकुर की माएं अपने लाडलों के इंतजार में रात को दो बजे तक अपने बेटों की राह तांकती हैं। दरवाजे के बाहर की हर एक आहट पर वह दरवाजा खोलकर दूर-दूर तक नजर दौड़ाती हैं। लेकिन कुछ ही पल बाद वह उस दरवाजे को बंद कर देती हैं, अगली किसी ऐसी ही आहट की प्रतिक्षा में।
कितनी अजीब लगता है यह सोचना कि त्योहारों का यह सीजन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ऐसा इंसान ही नहीं समझता जो अपने घर में भी अपने परिवार के साथ खुशियां बांटने के हकदार होंगे। ऐसी कई बेहिसाब कहानियां हैं जिन्हें लिखना और पढ़ना बहुत आसान है। लेकिन इन कहानियों को जीना तिल तिल कर मरने के अलावा और कुछ नहीं।