सोनिया गांधी का सिस्टम, नरेंद्र मोदी का सिस्टम
सरकारी अस्पतालों को सरकारी स्वास्थ्य जिम्मेदारी की खाना-पूर्ति का काउंटर बना देना दशकों से सिस्टम का हिस्सा रहा है; अब, महामारी के दौर में, उसे 'विफल' कैसे कहा जा सकता है?
पूर्व आईपीएस वी.एन.राय का विश्लेष्ण
'सिस्टम विफल नहीं हुआ, मोदी सरकार विफल हुयी है।' दूसरी कोरोना लहर पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के इस हालिया कथन में हालांकि उनका दूसरे स्वतःस्पष्ट हिस्से पर जोर है, लेकिन मैं फिलहाल इसके पहले हिस्से पर केन्द्रित हूँ और उससे बेहद सहमत भी हूँ।
मोदी सरकार देश के इलीट वर्ग को पूर्णतया आश्वस्त न रख पाने के लिहाज से विफल है, अन्यथा सिस्टम विफल नहीं! इसके स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी, मरघटकर्मी पहले जैसे ही तो हैं। किसी आंकड़ेबाज को सुनिए- रोज 4 लाख मामले और 4 हजार मृत्यु यानी 1 फीसद है तो गिनाएगा- टीके की घोर कमी के बावजूद तेजी से टीका लगाने में भारत ने विश्व रिकॉर्ड बना लिया है।
इलाहबाद हाईकोर्ट ने एक कोरोना सुनवाई में अभूतपूर्व महामारी मौतों को नरसंहार तक कह डाला और एनडीटीवी के स्टार मोदी क्रिटिक एंकर रवीश कुमार ने भी कोरोना से अपनी प्रतीक्षित वापसी पर प्रशंसकों से इसे नरसंहार ही कहने की अपील की है। ये क्रमशः न्यायिक अतिरेक और मीडिया अतिरेक अभिव्यक्ति की बानगी हैं।
न उच्च न्यायालय किसी को 'नरसंहार' की सजा सुनाने जा रहा है और न रवीश कुमार किसी को 'नरसंहार' के मानक पर कस पायेंगे। लिहाजा, सोनिया का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ही ज्यादा जमीनी है। दरअसल, सहज ही परखा जा सकता है, 7 वर्ष पूर्व भारत में सोनिया शासन के उखड़ जाने और इस बीच मोदी शासन के जम जाने के अंतराल में देश का स्वास्थ्य तंत्र रत्ती भर भी नहीं बदला है।
खुदा न खास्ता, अगर कल को एक खेमे का विशिष्ट सदस्य कोरोना के चपेटे में आ गया तो दूसरे खेमे वाला उसे श्रद्धांजलि देने में कोई कोर-कसर छोड़ेगा? शक हो तो गोदी मीडिया के तालिबानी जमूरे रोहित सरदाना की असामयिक मौत पर रवीश कुमार की लम्बी भाव भरी श्रद्धांजलि पढ़ी जानी चाहिए। यह तंत्र की सफलता का ही उदाहरण हुआ।
बेशक, कोरोना की चपेट में कोई भी कहीं भी आ सकता है लेकिन कौन कहाँ मरेगा, शासन तंत्र यह पहले की तरह ही तय कर रहा है। रसूखदार और धनी तबका कॉर्पोरेट अस्पतालों की देखभाल में, मध्य वर्ग 'अच्छी' चिकित्सा सुविधा के जुगाड़ में और गरीब इनके अभाव में! शहरों में सरकारें झूठी-सच्ची तसल्ली देती रहती हैं और मीडिया में कच्ची-पक्की जवाबदेही की ख़बरें चलती रहती हैं, गाँवों में वह भी नहीं। क्या जमाने से यही सिस्टम नहीं चल रहा?
सरकारी अस्पतालों को सरकारी स्वास्थ्य जिम्मेदारी की खाना-पूर्ति का काउंटर बना देना दशकों से सिस्टम का हिस्सा रहा है; अब, महामारी के दौर में, उसे 'विफल' कैसे कहा जा सकता है? हाँ, इन पर ज्यादा खर्च दिखा कर ज्यादा बड़ी खाना-पूर्ति का ज्यादा बड़ा ढोंग जरूर किया जा सकता है। बेशक, प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कोरोना प्रबंधन को लेकर भारत की राष्ट्रीय शर्म का प्रतिरूप बना दिए गए हों, सिस्टम के ठीक होने को लेकर सोनिया का भी दावा इससे अधिक कुछ नहीं।
सोचिये, अस्पताल के नाम पर, प्रशासनिक कमीशन तंत्र के चलते, बिल्डिंग और उपकरण पर फिर भी खर्च होना सदा से रहा है लेकिन, जैसे कोई अलिखित नियम हो, आपात कालीन वार्ड के लिए भी ऑक्सीजन संयत्र एकदम नहीं बनाए जाते। क्यों? क्योंकि, शुरू से ही, किसी भी अन्य सप्लाई की तरह ऑक्सीजन सप्लाई भी व्यापक कमीशन तंत्र का हिस्सा रही है। अगर कोरोना दौर के वर्तमान शोर-शराबे में अस्पतालों के लिए अपने ऑक्सीजन संयंत्र बनाने पड़ भी गए तो यकीनन वे हमेशा खर्चीले रख-रखाव के शिकार बने रहेंगे।
क्या कोरोना से जुड़ी हर आवश्यक चीज की कालाबाजारी नहीं चल रही? और क़ानूनी कार्यवाही बिचौलियों, जमाखोरों और मुनाफाखोरों को लेकर आंकड़ेबाजी तक सीमित नहीं? क्या हर तरह के विशेषज्ञ और हर तरह के सुविधा-संपन्न अस्पताल देश में नहीं हैं? क्या किसी ने कभी भूले से भी यह कहा है कि इनमें जरूरतमंद को ही प्राथमिकता दी जाए? यही वह जाना-पहचाना सिस्टम है जिसकी बात सोनिया ने की है और जिसमें तनिक भी खरोंच नहीं आने पायी है।
मसलन, नॉएडा से गुरुग्राम के प्रसिद्ध मेदांता अस्पताल में मरीज लाने के लिए 50,000 रुपये लेने पर एक एम्बुलेंस वाले को अवश्य धूम-धड़ाके से पकड़ा गया होगा जबकि उसी मेदांता में रोज मरीजों से धड़ल्ले से कई गुना ओवर-चार्जिंग होती रही है। एक तरह से यह उनकी विशिष्टता की पहचान की ग्राहक-सम्मत प्रणाली बन चुकी है।
इसी मेदांता के सर्वे-सर्वा को सर्वोच्च न्यायालय ने हाई-पावर्ड ऑक्सीजन समिति में भी नामित किया है। इसी तरह, दिल्ली एम्स के दरवाजे शक्तिमानों के लिए ही खुलते हैं जबकि उसके डायरेक्टर सर्वसाधारण में कोरोना ज्ञान बांटने के सबसे बड़े मीडिया चहेते बने हुए हैं।
अगर आज एक कोरोना हीरो को चिह्नित करना हो तो आपके जेहन में किसका नाम आएगा? बॉलीवुड के सितारे सोनू सूद का ही न! मीडिया में उन्हें उनके मुंह पर ही एक 'मसीहा' बताया जा रहा है और वे प्रायः मंद मुस्कराहट के साथ इसे स्वीकार करते देखे जा सकते हैं।
ठहरिये, सभी को कैसे पता चल जाता है कि क्रिकेटर सुरेश रैना के किसी करीबी को ऑक्सीजन इमरजेंसी में सोनू सूद काम आये! वे कुछ भी करें, तुरंत चर्चित हो जाता है। यह भी कि मदद की जितनी गुहार उनके पास आई हैं, वे 2035 तक निपटा पायेंगे। क्या सिस्टम यही नहीं है? क्या इसे सिस्टम की विफलता कहेंगे?
क्या जेल मैन्युअल अपना काम ही नहीं कर रहे कि दम तोड़ते महावीर नरवाल की महीनों से अमित शाह की जेल में बंद बेटी नताशा से बात/मुलाकात नहीं हो सकी? एक्टर-यूट्यूबर राहुल वोहरा ने अस्पताल में मरते समय कहा, "मुझे भी अच्छा इलाज मिलता तो शायद मैं भी बच जाता।" लेकिन, यही तो सिस्टम है! मैं कांग्रेस अध्यक्ष से सहमत हूँ।