गांधी के नाम पर स्थापित MGCUB जैसे विश्वविद्यालयों में रोज हो रहा है उनके मूल्यों का मान-मर्दन
गांधी और अंबेडकर दोनों हाशिये के समाजों से आने वाले लोगों के लिए विशेष रियायत देने, उन पर विशेष ध्यान देने की बात करते थे, लेकिन Mahatma Gandhi Central University के इन तमाम शुल्कों में दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कोई छूट नहीं है...
नवीन कुमार की टिप्पणी
Gandhi Jayanti Special, जनज्वार। आज 2 अक्टूबर को गांधी जयंती (Gandhi jayanti) पर जब सारा देश गांधी जी के जन्मोत्सव पर उन्हें याद कर रहा है, उस वक्त यह देखना जरूरी हो जाता है कि गांधी के नाम पर बने विभिन्न संस्थानों में खुद गांधी के विचारों और मूल्यों को कितनी तवज्जो दी जाती है। और अगर यह संस्थान कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय हो, तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि वहाँ की कथनी और करनी को गांधी के संदर्भ में परखा जाए।
गांधी के नाम पर कोई शैक्षणिक संस्थान खोल देना और गांधी जयंती के अवसर पर उनकी मूर्ति को झाड़-पोंछ कर उस पर फूल माला चढ़ा देना किसी संस्थान को गांधीवादी नहीं बना देता। वास्तव में भरतमुनी द्वारा बताए गए अभिनय के जो चार प्रकार हैं, उनमें से आंगिक और वाचिक का अभिनय तो ऐसे संस्थानों के प्रशासक गांधी के नाम पर खूब करते हैं किंतु आहार्यता और सात्विकता के स्तरों पर उनकी मूल गांधी विरोधी आत्मा का छद्म नंगा होता दिखाई देता है। ऐसा ही एक विश्वविद्यालय गांधी की कर्मभूमि चंपारण के मोतिहारी में खोला गया था- महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय (mahatma gandhi central university)।
विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर डाली गई सूचना के अनुसार यह विश्वविद्यालय 3 फरवरी 2016 को जमीनी धरातल पर अस्तित्व में आया था। अपने पाँच साल आठ माह के इस छोटे से कार्यकाल में यह विश्वविद्यालय तीन-तीन कुलपति (दो स्थायी और एक कार्यकारी) देख चुका है और चौथे कुलपति की भी शीघ्र ही नियुक्ति होने जा रही है। जिस तरह के कुलपति इस विश्वविद्यालय को अभी तक मिले हैं, उनका दूर-दूर तक गांधीवाद से कोई संबंध नहीं रहा है।
गांधी जी जिस सत्य पर इतना बल देते थे, जिस सत्याग्रह के लिए उन्हें जाना गया, वह सत्य इन कुलपतियों के व्यवहार में आपको कहीं नज़र न आएगा। पहले कुलपति जहाँ अपनी फर्जी डिग्री के चलते हटाए गए, वहीं उनके बाद जिन्हें कार्यवाहक कुलपति बनाकर भेजा गया, वे अकादमिक चोरी के लिए कुख्यात रहे। और फिर जो तीसरे कुलपति वर्तमान में सत्तासीन हैं, उनके ऊपर भी भ्रष्टाचार और आपराधिक साजिशों के गंभीर आरोप रहे हैं। कहा जाता है कि एक शिक्षक के रूप में इनकी पहली नियुक्ति से लेकर प्रोफेसर के रूप में इनकी पदोन्नति तक जालसाजी की कालिमा लगी हुई है। इनके कार्यकाल में हुई नियुक्तियों से लेकर पीएच.डी. प्रवेश तक में इन पर धांधलियों के आरोप लगातार लगते रहे हैं। खरीद-फरोख़्त आदि से जुड़े भ्रष्टाचार और विश्वविद्यालय के लिए भवन आदि किराए पर लेने में हुई लेन-देन के चर्चे भी आम हैं।
गांधी जी ने व्यक्तिगत सदाचार को बहुत महत्वपूर्ण माना था, लेकिन यहाँ के कुलपतियों विशेषत: वर्तमान कुलपति का चाल-चरित्र बहुत ही संदेहास्पद है। विश्वविद्यालय के चांसलर तक का सार्वजनिक वक्तव्य है कि ये कुलपति महोदय सुरा और सौंदर्य (गलत कामों) में लिप्त रहते हैं।
गांधी जी समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति के साथ खड़े दिखाई देते थे, वे पंक्ति के सबसे अंतिम व्यक्ति को साथ लेने पर जोर देते थे। वे पूँजीवाद का इसीलिए विरोध करते थे क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था में हाशिये के तबकों के लिए कोई स्थान नहीं होता। वहाँ शिक्षा तक को एक उपभोग वस्तु बना दिया जाता है। जिस तरह हमारी सरकारों द्वारा स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का निजीकरण किया जा रहा है, उस दृष्टि से देखने पर तो केंद्र सरकार से लेकर विभिन्न राज्य सरकारें तक गांधीवाद के रास्ते को छोड़ चुकी प्रमाणित होती हैं।
गांधी के नाम पर बना यह विश्वविद्यालय भी कोई अपवाद नहीं है। "वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड पराई जाणे रे" के दर्शन से कोसों दूर यहाँ के किसी भी पाठ्यक्रम का शुल्क गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले विद्यार्थियों के साथ-साथ निम्न मध्यवर्गीय विद्यार्थियों की पहुँच से बहुत दूर है। यहाँ संचालित पाठ्यक्रमों का प्रति सेमेस्टर शुल्क दस हजार से लेकर तीस हजार तक है। कोरोना काल में विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए भौतिक रूप से लगभग बंद रहने पर भी शुल्क में कहीं किसी किस्म की छूट तक नहीं दी गई। अगर छात्रावास शुल्क को और जोड़ लिया जाए तो प्रति विद्यार्थी को प्रति सेमेस्टर नौ हजार रुपए अतिरिक्त अदा करने होते हैं। अगर विद्यार्थी विश्वविद्यालय की बस सेवा का लाभ उठाता है, तो उसका शुल्क अलग लिया जाता है।
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गांधी और अंबेडकर दोनों हाशिये के समाजों से आने वाले लोगों के लिए विशेष रियायत देने, उन पर विशेष ध्यान देने की बात करते थे, लेकिन इस विश्वविद्यालय के इन तमाम शुल्कों में दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कोई छूट नहीं है। देश की आधी आबादी के लिए भी कोई रियायत नहीं दी गई है।
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए समुचित शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना करना, कार्य स्थल पर महिला कर्मचारियों के लिए निजी कक्ष उपलब्ध कराना, उनके छोटे बच्चों के लिए डे केयर सेंटर जैसी आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना स्त्री की गरिमा की रक्षा के लिए अपेक्षित होता है। यहाँ दिखावे के तौर पर महिला उत्पीड़न विषयक शिकायतों के निपटान के लिए आंतरिक शिकायत समिति बना तो दी गई है, लेकिन इस प्रकार की दूसरी समितियों की जैसे ही यह समिति भी हाथी के दिखावटी दाँतों सरीखी है। कितनी शिकायतें इस समिति के पास आई, इन शिकायतों का क्या निपटान इस समिति ने किया, यह सब कुछ कभी किसी को पता ही नहीं चल पाता है। जहाँ तक महिला कर्मचारियों के लिए निजी कक्ष और डे केयर सेंटर की बात है, तो उनकी तो आज तक यहाँ बात तक नहीं की गई है।
जिस प्रकार महिला कर्मचारियों के लिए एक दिखावटी आंतरिक शिकायत समिति है, ठीक वैसे ही अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मचारियों के लिए एक एस.टी-एस.सी. प्रकोष्ठ भी शिक्षक संघ के बहुत दबाव डालने के बाद बनाया गया है। "हरिजन आंदोलन" चलाने वाले गांधी के इस विश्वविद्यालय में इस प्रकोष्ठ से कुलपति और उनके प्रशासन को कितनी चिढ़ है, इसका पता इसी से लगता है कि इस प्रकोष्ठ की बैठकें तक साल-साल भर तक नहीं होती हैं।
आरक्षण विषयक नियमों के क्रियान्वयन में इस प्रकोष्ठ को यथासंभव दूर रखा जाता है। जो शिक्षक और कर्मचारी अनुसूचित जाति और जनजाति के मसलों को लेकर मुखर रहते हैं, उन्हें एक साजिश के तहत इस प्रकोष्ठ का सदस्य नहीं बनाया जाता। इसकी स्थापना से लेकर आज तक इसे यथासंभव पंगु बनाए रखने का षड्यंत्र चलता आया है। आरक्षित श्रेणी के पदों को योग्य उम्मीदवार होने पर भी एनएफएस करके खाली रखने की कहानी भी यहाँ लगातार दोहराई जा रही है। पीएच.डी. प्रवेश में भी आरक्षण का ईमानदारी से पालन नहीं किया जा रहा है।
स्वच्छ भारत अभियान चलाने वाली सरकार के दूसरे सरकारी कार्यालयों और संस्थानों की जैसे इस विश्वविद्यालय में भी सफाई कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन पर रखा गया है। उनके लिए कोई सुरक्षा उपकरण नहीं खरीदे गए हैं। बात-बात पर उन्हें अपमानित करना और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना आम है। अपनी अस्थायी नौकरी से निकाले जाने की आशंका में ये कर्मचारी कहीं शिकायत भी नहीं करते हैं। गांधी जी इन सफाई कर्मचारियों के साथ मानवीय व्यवहार करने और उन्हें सम्मान देने की बात करते थे, लेकिन गांधी की कर्मस्थली में उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने की गाहे-बगाहे दुहाई देने वाला यह विश्वविद्यालय अपने सफाई कर्मचारियों को उनके वाज़िब अधिकार तक देने को तैयार नहीं है।
हमारे देश के विश्वविद्यालयों में हाशिये के तबकों के साथ पाठ्यक्रम में होने वाला भेदभाव जग-जाहिर है। गांधी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय में कहने के लिए तो गांधी अध्ययन और स्त्री अध्ययन के लिए केंद्र खोल दिए गए हैं, लेकिन जब कोई विभाग दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और तृतीय लिंगी विमर्श को अपने पाठ्यक्रमों में स्थान देता है, तो कुलपति के इशारे पर बोर्ड ऑफ स्टडीज और स्कूल बोर्ड से पारित इनके विभिन्न पाठ्यक्रमों को हटा दिया जाता है।
यहाँ तक कि कोई विभागाध्यक्ष इस तानाशाही का विरोध करता है, तो उसे ही नियमों को ताक पर रखकर पद से हटा दिया जाता है। पाठ्यक्रम समितियों के अंदर ऐसे-ऐसे बाह्य सदस्य रखे जाते हैं जो खुले आम दलितों और आदिवासियों को गाली देते हैं और विरोध करने वाले सदस्यों को नौकरी से निकलवाने की धमकी देते हैं। हाशिये के इन विमर्शों से जुड़े पाठ्यक्रमों की बात तो छोड़िए, गांधी तक को पढ़ने-पढ़ाने से रोका जाता है। विडंबना देखिए कि लाखों रुपए फालतू के गैर शैक्षणिक कार्यक्रमों में खर्च कर देने वाला यह विश्वविद्यालय आज तक गांधी रचनावली और अंबेडकर रचनावली तक की खरीद नहीं हो पायी है, जबकि बार-बार विभागों द्वारा इनका आग्रह किया जाता रहा है।
गांधी जी लोकतंत्र को जिस अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाना चाहते थे, वह अंतिम व्यक्ति न यहाँ पाठ्यक्रम में है और न शुल्कगत ढांचे में ही है। शुल्क और पाठ्यक्रम के नाम पर मची अंधेरगर्दी का ही एक दूसरा नमूना देखिए कि यह विश्वविद्यालय अपने अस्तित्व में आने से लेकर अब तक प्राय: बिना शैक्षणिक कैलेंडर के ही चलता आ रहा है। अव्वल तो शैक्षणिक कैलेंडर बनाया ही नहीं जाता और बनाया भी जाता है, तो सत्र बीत जाने पर बनाया जाता है और प्राय: उसकी अधिसूचना सार्वजनिक नहीं की जाती। स्पष्ट है कि जिस विश्वविद्यालय का शैक्षणिक कैलेंडर तक गोपनीय हो, वहाँ पढ़ाई के हालात कैसे होंगे और क्या-क्या छिपाया जा रहा होगा!
गांधी जी धर्म के नाम पर बरती जाने वाली संकीर्णता के विरोधी थे, वे हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र के असली समर्थक थे। उनसे बड़ा कोई हिंदू इस देश में नहीं हुआ है और उनका हिंदू धर्म किसी भी गैर हिंदू के साथ भेदभाव और नफरत नहीं करता, किंतु एक ओर जहाँ अल्पसंख्यक त्योहारों पर घोषित सार्वजनिक अवकाशों पर परीक्षा से लेकर विभिन्न तरह के आयोजन इस विश्वविद्यालय में किए जाते हैं, ताकि अल्पसंख्यकों को उनके त्योहार तक मनाने से वंचित किया जा सके।
वहीं हिंदुत्व (Hindutva) का ढोंग करने वाले इस विश्वविद्यालय के कुलपतियों और प्रशासनिक तंत्र के हिंदू प्रेम की कलई तब खुल जाती है, जब इनके द्वारा बड़े त्योहारों पर आने वाली छुट्टियों से लेकर शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन अवकाशों तक की सूचना दो-चार दिन पहले दी जाती है, ताकि आम शिक्षक और विद्यार्थी इन छुट्टियों और अवकाशों का लाभ न उठा पाए। जिस देश में महीनों तक रेलवे के टिकट आरक्षित श्रेणी में न मिलते हों, जहाँ हवाई यात्रा के नाम पर लूट मची हो, वहाँ नियोक्ता द्वारा कर्मचारियों को अघोषित रूप से अवकाश से वंचित रखना उसकी भेदभावपूर्ण क्रूरता और अमानवीयता ही कही जाएगी। इतना ही नहीं सार्वजनिक अवकाशों पर शिक्षकों की उपस्थिति विश्वविद्यालय के कार्यकमों में अनिवार्य करके अवकाश के उनके अधिकार छीने जाते हैं।
इस देश में एक बहुत बड़ी संख्या उन असली गांधीवादियों की है, जो लोकतंत्र बचाने के लिए जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों को बेचे जाने के खिलाफ आंदोलनरत हैं। मनुष्यता की रक्षा के लिए संघर्षरत इन गांधीवादी आंदोलनकारियों को यहाँ खुलेआम नक्सली, राष्ट्रविरोधी तो कहा ही जाता है और अगर कोई शिक्षक लोकतांत्रिक गांधीवादी मूल्यों की बात करता है, तो उसे हर तरह से प्रताड़ित किया जाता है।
अभिव्यक्ति की जिस आज़ादी के लिए गांधी विदेशी सत्ता से लड़े थे, उसी आज़ादी को यहाँ कदम-कदम पर कुचला जा रहा है। ध्यातव्य हो कि इस विश्वविद्यालय के एक शिक्षक को अपनी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए जलाकर मारने की कोशिश तक की जा चुकी है। जिस स्वायत्ता की बात गांधी किया करते थे, उसको घोषित-अघोषित प्रशासनिक पूर्व अनुमति के चक्रव्यूह में जकड़ दिया गया है। यहाँ कुलपति की बिना इजाजत के आप न कोई व्याख्यान आयोजित कर सकते हैं और न कोई सेमिनार आदि।
व्याख्यानों और सेमिनारों के नाम पर कुलपति द्वारा राजनीतिक सत्ता समीकरण साधने का खुला खेल यहाँ खेला जाता है। किसी दूसरे विश्वविद्यालय के कुलपति बनने की जुगाड़ में और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में अंधे हो चुके यहाँ के वर्तमान कुलपति जिस तरह करदाताओं के गाढ़े पैसों को इन स्तरहीन सेमिनारों और व्याख्यानों के नाम पर लुटा रहे हैं, वह गांधी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय की अकादमिक प्रतिष्ठा को बट्टा लगाने वाला तो है ही, सरकारी खजाने पर डाला जाने वाला डाका भी है।
गांधी जी सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करते थे, लेकिन यहाँ पूरी सत्ता कुलपतियों की मुट्ठियों में में कैद है। विश्वविद्यालय के तमाम उच्च पदों को जानबूझकर खाली रखा गया है, ताकि कुलपति बेरोकटोक अपनी मनमर्जी चला सके। अपनी स्थापना के बाद से ही कुलसचिव और वित्त अधिकारी के पद यहाँ खाली रखे गए हैं। परीक्षा नियंत्रक तक का पद लंबे वक्त तक इसी कारण से खाली रखा गया था।
महत्वपूर्ण पदों को खाली रखने का कारण यह है कि तकनीकी रूप से प्रथम कुलपति होने के कारण वर्तमान कुलपति भी पिछले कुलपतियों की जैसे इन पदों की नियुक्तियों में खुलकर अपनी दखल नहीं दे सकते थे। गैर शैक्षणिक कर्मचारियों के भी लगभग सभी पद खाली पड़े हैं। इन पदों को खाली रखकर इन पर अस्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति का गोरखधंधा क्यों चलाया जाता है, यह छिपी बात नहीं है। यहाँ भ्रष्टाचार का खेला साफ देखा जा सकता है। इसके साथ-साथ इस प्रकार के अस्थायी पदों पर आरक्षण को भी लागू नहीं किया जा रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि गांधी के नाम पर स्थापित इस प्रकार के विश्वविद्यालयों में रोज गांधी के मूल्यों के साथ बलात्कार किया जाता है। जिस राष्ट्रवाद का यहाँ ढिंढोरा पीटा जाता है, उस राष्ट्र के राष्ट्रपिता की गांधी जयंती पर तामझाम के साथ बार-बार हत्या की जाती है। आज़ादी की लड़ाई के तमाम आदर्श यहाँ रौंदे जा रहे हैं। एक विश्वविद्यालय जिन चीजों से विश्वविद्यालय बनता है, उनका यहाँ सिर्फ दिखावा ही आपको मिलता है। यह खेद की बात है कि व्यवस्था में सेंध लगाकर यहाँ पहुँचे खोटे सिक्के असली सिक्कों को ही चलन से बाहर करने में लगे हैं।