संविधान के हर भाग में शांति निकेतन के कलाकारों द्वारा उकेरे चित्रों में मिलती है भारत के 5 हजार सालों के इतिहास की झांकी
जो लोग संविधान को भारत की आत्मा से कटा हुआ बताते हैं, उनके लिए भी इस अध्याय में रोचक जानकारी है कि हमारे संविधान के हर भाग पर शांति निकेतन के कलाकारों द्वारा चित्र उकेरे गये हैं, जो भारत के 5 हजार सालों के इतिहास को दर्शाते हैं। इसमें मोहनजोदड़ो से लेकर मुग़ल सम्राट अकबर के दरबार के चित्र शामिल हैं....
जावेद अनीस की टिप्पणी
भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी मिले 75 साल से ज्यादा हो चुके हैं। नये और आधुनिक भारत के वजूद का आधार लोकतंत्र, धार्मिक बहुलतावाद, शांति और सहिष्णुता जैसे उसूलों के प्रति समर्पित संविधान रहा है। दरअसल भारतीय संविधान का निर्माण एक पुरानी सभ्यता को नयी कल्पनाओं में पिरोने की तरह है क्योंकि पिछले करीब एक तिहाई सदी की यात्रा के दौरान हमने ये भी देखा है कि भारत तो एक है, लेकिन उसके विचार अनेक हैं और इन विचारों के बीच संघर्ष की स्थिति आज अपने चरम पर है। बहरहाल भविष्य के भारत की नियति क्या होने वाली है, यह इस बात पर निर्भर है कि आज और आने वाले कुछ वर्षों में संविधान के प्रति हमारा रवैया क्या होगा।
भारत का संविधान स्वतंत्रता आन्दोलन की उपज है, जो लोकतान्त्रिक, नागरिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्ष राज्य की कल्पना पर आधारित था। लेकिन संविधान निर्माण की प्रक्रिया आसान नहीं रही है जैसा की सुनील खिलनानी अपनी मशहूर पुस्तक "द आइडिया ऑफ इंडिया" में लिखते हैं, "जिस समय भारत, इतिहास के भवँर में डूब–उतर रहा था ठीक उसी समय संविधान सभा शांतिपूर्ण विचार-विमर्श के द्वीप के रूप में काम कर रही थी।"
इसी सन्दर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता और संविधान के अध्येता सचिन कुमार जैन की नयी किताब "भारत का संविधान : महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क" एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है जो बहुत करीने से दर्शाने में कामयाब होती है कि हमारे संविधान का निर्माण किन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के दौरान किया गया है। पुस्तक के पृष्ठभूमि में भी लेखक द्वारा स्पष्ट किया गया है कि "ये पुस्तक भारत के संविधान से सम्बंधित तथ्यों और तर्कों का एक संकलन है जिसे इस मकसद से तैयार किया गया है कि इसके माध्यम से भारत का समाज संविधान से जुड़ी वास्तविक जानकारियों को जान सके।"
पुस्तक की प्रस्तावना संवैधानिक विधि के मशहूर अध्येता गौरव भाटिया द्वारा लिखी गयी है जिसमें वो लिखते हैं कि "ये पुस्तक आधुनिक भारत में संविधान निर्माण का विस्तृत और व्यापक इतिहास उपलब्ध कराती ही है, साथ ही उन अहम् राजनीतिक घटनाओं पर भी नजर डालती है जिनकी अंतिम परिणिति अंग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के रूप में और भारत के संविधान सभा के गठन के रूप में सामने आई है।"
किताब के शुरुआत में भारतीय संविधान के निर्माण के समय के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हालातों की पड़ताल की गयी है। इन तथ्यों को देख कर हैरानी होती है कि कैसे हमारे संविधान निर्माता अराजकता, अभाव और उथल-पुथल भरे उस दौर में एक ऐसे दस्तावेज को बनाने में कामयाब हो सके जो आज भी हमारे लिए भविष्य के सपनों जैसा है। जब संविधान बन रहा था तो उस समय एक भारतीय की प्रतिदिन औसत आय मात्र 63 पैसा थी, देश अनेक राजवाड़ों में बंटा हुआ था और गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहा था, पूरे समाज और व्यवस्था में सामंतवाद व्याप्त था, हिन्दुस्तान सांप्रदायिकता के आग में झुलस रहा था, धर्म के नाम पर देश का विभाजन हो रहा था। ऐसे माहौल में संविधान सभा के 250 से अधिक प्रतिनिधि भविष्य के भारत के लिए एक ऐसे आईन को रच रहे थे जो आगे चलकर व्यक्ति की स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुत्व जैसे क्रांतिकारी मूल्यों के आधार पर देश और समाज बनाने की व्यवस्था का ब्लूप्रिंट होने वाला था।
इस पुस्तक में कुल 8 अध्याय हैं। पहले अध्याय "ब्रिटिश सरकार के अधीन भारत में नियमन की शुरुवात" में बहुत ही व्यवस्थित तरीके से बताया गया है कि किस प्रकार से अंग्रेजों ने भारत को अपने हिसाब से संचालित करने के लिए 1773 से 1935 तक विभिन्न कानून और नियम बनाये जिसमें विनियमन अधिनियम 1773 से लेकर भारत शासन अधिनियम 1935 शामिल हैं।
अध्याय 2 "भारत में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलनों और राजनीतिक दलों के संघर्ष" में एक प्रकार से संविधान बनने के राजनीतिक पृष्ठभूमि की चर्चा की गयी है जिसके अंतर्गत विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए किये गए संघर्ष और भारतीयों के लिए सामाजिक, नागरिक अधिकारों की मांग शामिल है। एक प्रकार से भारत की आजादी की लड़ाई और हमारे संविधान के निर्माण की प्रक्रिया एक दूसरे से बहुत गहरे जुड़े हैं। मिसाल के तौर पर भारत का संविधान विधेयक 1895 को भारत में संविधान बनाने की प्रक्रिया का बुनियादी पहल कहा जा सकता है।
अध्याय 3 "भारत में संविधान निर्माण की जद्दोजहद" में भारतीयों द्वारा खुद के लिए संविधान निर्माण की मांग और इसको लेकर किये गए प्रयासों को बखूबी पेश किया गया है जिसमें 18 मई 1927 को कांग्रेस के बम्बई अधिवेशन में पंडित मोतीलाल नेहरु द्वारा रखे गए नेहरु रिपोर्ट से लेकर जनवरी 1946 में बी।एन।राउ द्वारा अविभाजित हिंदुस्तान के लिए प्रस्तावित किये गए नए संविधान की रुपरेखा का जिक्र किया गया है।
अध्याय 4 "संविधान सभा का गठन और कामकाज" में 1946 में संविधान सभा के गठन से लेकर 24 जनवरी 1950 तक संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया को सिलसिलेवार और तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है। इस अध्याय में कुछ रोचक जानकारियां भी दी गयी हैं जैसे सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में मार्च 1931 में हुये कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा तैयार किये गए मूलभूत अधिकारों के एक प्रस्ताव को पारित किया गया, जिसमें अल्पसंख्यकों के सुरक्षा की बात भी थी। इसके करीब ढाई दशक बाद अल्पसंख्यकों से सम्बंधित संविधान सभा की समिति के अध्यक्षता की जिम्मेदारी भी सरदार वल्लभभाई पटेल के समक्ष आई।
इसी प्रकार से संविधान निर्माण को लेकर चली 165 दिनों की बैठकों में से 46 दिन तो इस बात पर ही चर्चा हुई कि हम किस तरह का संविधान बनाना चाहते हैं। जो लोग संविधान को भारत की आत्मा से कटा हुआ बताते हैं, उनके लिए भी इस अध्याय में रोचक जानकारी है कि हमारे संविधान के हर भाग पर शांति निकेतन के कलाकारों द्वारा चित्र उकेरे गये हैं, जो भारत के 5 हजार सालों के इतिहास को दर्शाते हैं। इसमें मोहनजोदड़ो से लेकर मुग़ल सम्राट अकबर के दरबार के चित्र शामिल हैं।
अध्याय 5 "भारत में रियासतें" में बताया गया है कि किस प्रकार से स्वाधीनता से पहले भारत में लगभग 600 रियासतें थी और हमारे राष्ट्र निर्माताओं को इन्हें स्वतंत्र भारत में शामिल करने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इस स्थिति को लेकर दिसंबर 1946 को संविधान सभा द्वारा एक समिति का गठन किया गया था जिसे जिम्मेदारी दी गयी थी कि वो विभिन्न रियासतों से बात करके उनके प्रतिनिधियों को संविधान सभा में शामिल होने के लिए राजी करें।
अध्याय 6 "संविधान सभा के सोच का सन्दर्भ" एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें हमारे संविधान निर्माताओं के मानस को पकड़ने की कोशिश की गयी है। यह अध्याय इस बात पर जोर देता है कि भारत के संविधान और इसमें दर्ज प्रावधानों के पीछे चली तर्क, बहसों और सन्दर्भों को समझना जरुरी है। ये ध्यान रखना भी जरुरी है कि हमारे संविधान निर्मातों के अलग अलग पृष्ठभूमि के होने और उनके बीच चली लम्बी बहस मुहावसों के बावजूद भी भारत का संविधान सर्वसम्मति से पारित हुआ था।
इस अध्याय में हमारे राष्ट्रीय ध्वज के पीछे की सोच को बताने के लिए जवाहरलाल नेहरु के कथन का उपयोग किया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'मुझे विश्वास है कि ये झंडा साम्राज्य का, साम्राज्यवाद का, या किसी व्यक्ति पर अधिपत्य जमाने का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह स्वतंत्रता का झंडा है और केवल हमारी स्वतंत्रता का नही बल्कि समस्त मनुष्यों का जो भी इसे देखें।'
इसी प्रकार से इस अध्याय में बताया गया है कि कैसे संविधान का अनुछेद 32 महत्वपूर्ण है जो मूलभूत अधिकारों को लागू करने और संरक्षण की व्यवस्था करता है जिसको लेकर डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा था कि ये प्रावधान संविधान की आत्मा और ह्रदय है। आज कल संविधान की उद्देशिका को लेकर बहुत बहस हो रही है लेकिन दरअसल ये एक लक्ष्य है जिसे एक राष्ट्र और समाज के तौर पर आज भी हासिल किया जाना बाकी है। इस अध्याय में समान नागरिक संहिता को लेकर चली बहसों को भी बहुत करीने से समेटा गया है।
सातवें अध्याय "संविधान की उद्देशिका से परिचय" में ये समझने की कोशिश की गयी है कि हमारे संविधान के मूल्य क्या हैं। दरअसल उद्देशिका ही हमारे संविधान के बुनियादी मूल्य हैं। ये एक तरह से आधुनिक भारत का विजन और संविधान का मूल विचार है।
जैसा की अध्याय 8 के नाम "उद्द्देशिका के 11शब्द और उनके अर्थ" से ही स्पष्ट है कि इसमें उद्देशिका में दर्ज 11 शब्दों जो अपने आप में सम्पूर्ण सिद्धांत हैं, की सरल शब्दों में व्याख्या की गयी है। साथ ही इसमें इन शब्दों से सम्बंधित मौजूदा समय के आंकड़ों और तथ्यों को भी प्रस्तुत किया गया है। मिसाल के तौर पर "बंधुता" की व्याख्या करते हुये कहा गया है कि "बंधुता का भाव एक सभ्य और मानवीय समाज की मूल शर्त है।" अंत में ये अध्याय पाठक के सामने ये सवाल छोड़ जाती है कि क्या हम बंधुता के बिना एक अच्छा देश और समाज बन सकते हैं?
पुस्तक के अंत में संविधान सुधारों पर डॉक्टर अम्बेडकर के विचारों को प्रस्तुत किया गया है। कुल मिलकर यह किताब संविधान की पृष्ठभूमि और इसके निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए हिंदी में एक जरूरी दस्तावेज की तरह हैं जो महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ-साथ संविधान के वजूद में आने के तर्कों को बहुत ही सटीकता के साथ प्रस्तुत करती है। जैसा कि गौतम भाटिया ने अपनी प्रस्तावना में लिखा है कि "कुल मिलाकर ये पुस्तक संविधान निर्माण और हमारे देश में संविधान के शासन के इतिहास और वर्तमान के बारे में एक शानदार और व्यापक निर्देशिका का काम करती है तथा इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण संसाधन है।"
सचिन कुमार जैन एक सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक नागरिक संस्था विकास संवाद के संस्थापक सचिव हैं। वे लम्बे समय से विकास के मुद्दों को संचार और संवाद से जोड़ने का काम करते आ रहे हैं। पिछले कुछ सालों से वो संविधान पर निरंतर लिखते रहे हैं, इसी कड़ी में इससे पूर्व उनकी तीन पुस्तकें "भारतीय संविधान की विकास गाथा," "संविधान और हम" तथा "जीवन में संविधान" नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन विकास संवाद प्रकाशन, भोपाल द्वारा किया गया है।