GDP का 6 फीसदी शिक्षा में खर्च की घोषणा तो ठीक लगी, लेकिन सरकार लाएगी कहां से वह रोडमैप भी बताती
यह शिक्षा नीति बिना कानूनी अधिकार के 3-18 वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लोकव्यापी बनाने की बात करती है, इसलिए इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए किसी अनिवार्य दिशा-निर्देश या व्यवस्थागत ढांचे की बात भी नहीं है...
नई दिल्ली। राइट टू एजुकेशन फोरम ने विगत छह सालों की कवायद के बाद कल बुधवार को घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 द्वारा शिक्षा में सार्वजनिक निवेश को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6 फीसदी तक यथा शीघ्र बढ़ाने की सिफ़ारिश का स्वागत किया है लेकिन इसके लिए किसी स्पष्ट रूपरेखा के न होने पर चिंता जाहिर की है। न्यूनतम 6 फीसदी बजट की अनुशंसा मशहूर शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में गठित देश के प्रथम शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) ने तकरीबन छह दशक पहले 1964-66 में ही अपनी रपट में की थी लेकिन हम उसे कभी हासिल नहीं कर पाये। अब जबकि, विगत सालों में शिक्षा के बजट में लगातार कटौती होती रही है और अभी भी यह जीडीपी के 3 फीसदी के ही करीब है तो यह समझना जरूरी है कि अपने इस नीतिगत फैसले को सरकार अमली जामा कैसे पहनाएगी।
एक और अहम बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा 3-18 वर्ष के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण की अनुशंसा है। इस सिफ़ारिश पर आरटीई फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय ने संतोष व्यक्त करने के बावजूद गहरी आशंका व्यक्त करते हुए कहा कि पूर्व-प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षा अधिकार कानून का विस्तार किए बगैर यह कैसे संभव होगा? उन्होंने कहा कि मौजूदा शिक्षा नीति बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के लिए हासिल मौलिक अधिकार के क्रियान्वयन के लिए जवाबदेह शिक्षा अधिकार कानून, 2009 और उसके दायरे में विस्तार को लेकर आश्चर्यजनक रूप से मौन है। यह चुप्पी स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण के अहम मसले पर शिक्षा नीति की मंशा को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है।
गौरतलब है कि कस्तूरीरंगन समिति द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपे गए और बाद में सार्वजनिक सुझावों के लिए जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के मसौदे ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 का विस्तार करते हुए पूर्व-प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को अधिनियम के दायरे में शामिल करने का वादा किया था। उस वक़्त नागरिक सामाजिक संगठनों समेत समाज के व्यापक हिस्से ने इसका स्वागत किया था क्योंकि यह स्कूली शिक्षा के लोकव्यापीकरण की दिशा में निश्चय ही एक बड़ा कदम साबित होता। लेकिन, ये बड़ी निराशा की बात है कि अंतिम तौर पर घोषित शिक्षा नीति में पूर्व-प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को कानूनी अधिकार बनाने का कोई उल्लेख नहीं है।
चूंकि यह शिक्षा नीति बिना कानूनी अधिकार के 3-18 वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लोकव्यापी बनाने की बात करती है, इसलिए इस संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए किसी अनिवार्य दिशा-निर्देश या व्यवस्थागत ढांचे की बात भी नहीं है। शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर ड्रॉप–आउट की संख्या काफी ज्यादा है और उसके कारण लड़कियों, दलित-आदिवासी समेत सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों एवं शारीरिक-मानसिक अक्षमताओं से जूझ रहे बच्चों के व्यापक हिस्से पर शिक्षा के दायरे से बाहर होने का खतरा मँडराता रहता है। शिक्षा नीति को इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत थी कि मौजूदा शिक्षा अधिकार कानून, 2009 सैकड़ों सालों के संघर्ष के बाद हासिल एक कानून है जो शिक्षा नीतियों द्वारा घोषित प्रतिबद्धताओं का उच्चतम स्तर था और अब आम जनता के हक में और शिक्षा के दायरे से बाहर करोड़ों बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाने की जरूरत थी।
अंबरीष राय ने एक और महत्वपूर्ण विसंगति की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि शिक्षा नीति में कक्षा 6 से छात्रों का व्यावसायिक प्रशिक्षण शुरू करने की बात है जिसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह बच्चों को श्रम बाजार में धकेलने की तैयारी है। जो कमजोर और वंचित वर्ग के बच्चे हैं वे कौशल उन्नयन के नाम पर कुछ अक्षर-ज्ञान सीख कर शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों से दूर हो जाएंगे।
हालांकि, आरटीई फोरम ने लड़कियों की भागीदारी को बढ़ावा देने और स्कूली शिक्षा को पूरा करने के लिए "जेंडर इंक्लूजन फंड" के निर्माण की सराहना की है। नीति में उल्लिखित रट्टामार पढ़ाई की बजाय वैचारिक समझ पर जोर देने और रचनात्मकता एवं समालोचनात्मक चिंतन-प्रक्रिया (क्रिटिकल थिंकिंग) को प्रोत्साहन की बात भी ठीक लगती है लेकिन मुकम्मल तौर पर देखें तो इस बहुप्रतीक्षित शिक्षा नीति के भीतर इन आयामों को बढ़ावा देने के व्यापक संकेतों का अभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
इस शिक्षा नीति ने डिजिटल शिक्षा पर खूब जोर दिया गया है। इस संदर्भ में आरटीई फोरम ने आशंका जताई कि ऐसा कोई भी कदम समाज में पहले से ही मौजूद विभेदीकृत और बहुपरती शिक्षा की कड़ी में इजाफा करते हुए असमानताओं को और बढ़ावा देगा। फिलहाल देश में डिजिटल शिक्षा से व्यापक आबादी समूहों को जोड़ने के लिए पर्याप्त बुनियादी संरचना नहीं है। कोविड-19 महामारी के इस भयावह दौर ने तो स्पष्ट दिखा दिया है कि हाशिए पर मौजूद 70% से अधिक बच्चे किस तरह से डिजिटल दुनिया की ऑनलाइन कक्षाओं और शिक्षा-बाजार से बाहर हैं।
यह शिक्षा नीति कल्याणकारी स्कूलों और सार्वजनिक-निजी साझेदारी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) की वकालत करती है जो दरअसल, शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानों, कॉर्पोरेट घरानों के प्रवेश की मुनादी करता है। सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के लिए ये संकेत चिंताजनक हैं जो समावेशी और हर बच्चे तक शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करने के बरक्स शिक्षा और इस प्रकार समाज में मौजूद असमानताओं को और तेजी से आगे बढ़ाने के रास्ते खोलता है।
आरटीई फोरम ने याद दिलाया कि यह नीति समान स्कूल प्रणाली (कॉमन स्कूल सिस्टम) पर बिलकुल मौन है, जिसे पहली बार कोठारी आयोग (1964-66) द्वारा अनुशंसित किया गया था और जिसकी पुष्टि 1968 एवं 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों एवं 1992 की संशोधित नीति में की गई थी। इस संदर्भ में अंबरीष राय ने ज़ोर देकर कहा, "मौजूदा स्कूली व्यवस्था के भीतर रचे-बसे भेदभाव को दूर करने का एकमात्र तरीका यही है कि देश में एक कॉमन स्कूल सिस्टम (सीएसएस) की शुरूआत हो, जो देश के सभी बच्चों के लिए समान गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करेगा। 34 साल के लंबे अरसे के बाद आए इस अहम शिक्षा दस्तावेज़ से इस शब्दावली तक का गायब हो जाना वाकई आश्चर्यजनक है।"