वायनाड भूस्खलन पर पूर्व चेतावनी का दावा करते अमित शाह बतायें जोशीमठ धंसान और उत्तराखंड में लगातार होते भूस्खलन की वार्निंग कितनी बार की जारी !

ओछी राजनीति के इस दौर में सामान्य जनता तो असमय मरने के लिए ही जिन्दा है। कभी भगदड़, कभी बाढ़, कभी दंगे, कभी पुलिसिया अत्याचार, कभी गर्मी, कभी रेल दुर्घटना, कभी सड़क दुर्घटना, कभी भूख तो कभी आत्महत्या – यही जनता के नसीब में है। जनता को मारने वाली सरकारें मुवावजा देकर किसी दूसरे हादसे का इंतज़ार करने लगती हैं – यही अमृत काल का विकसित भारत है...

Update: 2024-08-02 07:38 GMT

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

The killer disaster in Kerala is mainly man-made : अब आपदाएं प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित हो चली हैं। और हमारे देश में हरेक आपदा का प्रबंधन केन्द्रीय सत्ता के साथी और सत्ता के विरोधी के तौर पर किया जाता है। केरल के वायनाड में भूस्खलन की घटना के एक दिन बाद गृहमंत्री अमित शाह को याद आता है कि इसकी चेतावनी केरल सरकार को पहले ही दी गयी थी, पर केरल सरकार ने कुछ नहीं किया।

अमित शाह को यह जरूर बताना चाहिए कि जोशीमठ के धंसने के समय या फिर उत्तराखंड में लगातार हो रहे भूस्खलन की पूर्व-चेतावनी कितने बार जारी की गयी, और उस पर क्या कार्य किये गए। लखनऊ में बारिश में विधानसभा और नगर निगम के कार्यालय में पानी भरने की भी पूर्व चेतावनी दी गयी होगी? तमाम स्मार्ट शहर का तमगा उठाये शहर भी डूबते जा रहे हैं, अमित शाह जी, पूर्व चेतावनी तो वहां भी दी गयी होगी।

ओछी राजनीति के इस दौर में सामान्य जनता तो असमय मरने के लिए ही जिन्दा है। कभी भगदड़, कभी बाढ़, कभी दंगे, कभी पुलिसिया अत्याचार, कभी गर्मी, कभी रेल दुर्घटना, कभी सड़क दुर्घटना, कभी भूख तो कभी आत्महत्या – यही जनता के नसीब में है। जनता को मारने वाली सरकारें मुवावजा देकर किसी दूसरे हादसे का इंतज़ार करने लगती हैं – यही अमृत काल का विकसित भारत है।

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दार्शनिक फ्रेडरिक एंगेल्स ने लगभग 150 वर्ष पहले ही कहा था, प्रकृति पर अपनी मानवीय विजय से हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं होना चाहिए क्यों कि प्रकृति हरेक पराजय का हमसे प्रतिशोध लेती है। पिछले चार दशकों से वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति का हम बहुत दोहन कर चुके हैं और इसके भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे, पर हरेक सरकारें विकास के नाम पर बस प्रकृति और पर्यावरण का विनाश करने में जुटी हैं। पर्यावरण को बचाने से अधिक आसान मरे हुए लोगों को मुवावजा देना है, ऐसा सरकारें मानती है। केरल की बाढ़ के प्रकोप और इससे हुए नुकसान को भी प्राकृतिक कम और मानव निर्मित कहना ज्यादा उचित है।

केरल में ठीक 100 वर्ष पहले, यानी 1924 में भी भयानक बाढ़ आई थी, जिसे वहाँ के लोग 99 की बाढ़ के नाम से जानते है। दरअसल वर्ष 1924 में मलयाली वर्ष 1099 चल रहा था। वर्ष 1924 में केरल में कुल 3368 मिलीमीटर वर्षा हुई थी, जबकि वहाँ की सामान्य वर्षा 1606 मिलीमीटर है। उस वर्ष तीन सप्ताह तक लगातार तेज बारिश होती रही थी और बाढ़ से 1000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी। सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह भी है कि उस बाढ़ में कासिंथिरी मलाई नामक एक पहाडी पूरी तरह से बह गयी। केरल की सबसे बड़ी, पेरियार नदी में भी भयानक बाढ़ आयी थी।

ठीक पांच वर्ष पहले, वर्ष 2019 में भी केरल की बाढ़ ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की थी। केरल के तत्कालीन चीफ सेक्रेट्री ने 23 अगस्त 2019 को कहा था कि सन 1924 की बाढ़ के बाद राज्य के इतिहास में यह अभूतपूर्व बाढ़ है। बाढ़ के कारण 19,500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था, 373 लोगों की मौत हो गई और कई लापता हैं।

केरल की आबादी 3.48 करोड़ है और जलप्रलय ने आबादी के छठे हिस्से, 54 लाख से अधिक लोगों प्रभावित किया था। इस त्रासदी के बीच बाढ़ के मामले में केरल के चीफ सेक्रेट्री ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था, जिसमें बाढ़ के लिए तमिलनाडु पर आरोप लगाया गया था. कहा गया था कि मुल्लापेरियार बांध से केरल में अचानक अतिरिक्त जल निकासी बाढ़ के कारणों में से एक है।

केरल में वर्ष 2019 की बाढ़, या वर्ष 2024 का भूस्खलन - जिसमें लगभग पूरा भू-भाग डूब गया और पूरी आबादी प्रभावित हुई, वह सरकारी लापरवाही और तमाम वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी का नतीजा है। वर्ष 2011 में ही प्रसिद्ध पर्यावरणविद माधव गाडगिल ने इस तरह के बाढ़ की चेतावनी जारी की थी। वर्ष 2019 के जून के अंत में केंद्रीय सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि सभी दक्षिणी राज्यों में जल संसाधनों के प्रबंधन के मामले में केरल की हालत सबसे खराब है। तब इस रिपोर्ट को नकार दिया गया था।

केन्द्रीय सरकार ने वर्ष 2010 में पश्चिमी घाट, जिसका हिस्सा केरल में भी है, के पारिस्थितिकी तंत्र के अध्ययन के लिए माधव गाडगिल के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने वर्ष 2011 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें पूरे पश्चिमी घाट को संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने का सुझाव दिया था। इसके अनुसार, इस पूरे क्षेत्र में नए उद्योग, खनन और विकास कार्यों पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए। यदि विकास कार्यों की बहुत आवश्यकता हो तब, सुझाव था कि ऐसे कार्य सम्बंधित स्थानीय लोगों या ग्राम पंचायतों से सुझाव लेकर ही किये जाएँ।

रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद जैसी उम्मीद थी, सभी 6 राज्यों जिनमे पश्चिमी घाट का क्षेत्र था, की सरकारों ने रिपोर्ट का पुरजोर विरोध किया। इस विरोध को देखते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आनन-फानन में एक दूसरी कमेटी का गठन के. कस्तूरिरंगन के नतृत्व में कर दिया। के. कस्तूरिरंगन कोई पर्यावरणविद नहीं थे, बल्कि जानेमाने अंतरिक्ष वैज्ञानिक थे। केंद्र सरकार के निर्देशों के अनुसार इस कमेटी ने गाडगिल रिपोर्ट को पूरी तरह से उद्योगों और विकास कार्यों के अनुरूप बना दिया। इसमें पश्चिमी घाट के महज एक-तिहाई हिस्से को, यानि 57000 वर्ग किलोमीटर को, संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने और इसमें खनन, बड़े निर्माण कार्यों, ताप बिजली घरों और प्रदूषणकारी उद्योगों पर पाबंदियों की बात कही गयी। इसके बाद भी राज्य सरकारें रिपोर्ट का विरोध करती रहीं।

केरल राज्य सरकार के विरोध के बाद, कस्तूरिरंगन रिपोर्ट में सुझाए गए 13108 वर्ग किलोमीटर के बदले 9993.7 वर्ग किलोमीटर को ही संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया। केरल में बड़ी कोई नदी नहीं है पर छोटी 44 नदियाँ हैं। इनमें से अधिकतर पूर्वी घाट से ही आरंभ होती हैं और फिर समुद्र में मिल जाती हैं। इन छोटी नदियों पर भी 80 से अधिक बाँध बनाए गए हैं जिनसे पन-बिजली संयंत्र चलाये जाते है। बांधों से जो पानी छोड़ा जाता है, वह निचले भागों के पानी की आवश्यकताओं के अनुसान नहीं, बल्कि पन-बिजली संयंत्रों के हिसाब से छोड़ा जाता है। इस कारण यहाँ की अधिकतर नदियों में पानी का बहाव लगातार बदलता रहता है।

देश के अन्य राज्यों की तरह केरल की नदियों से भी रेत के अवैध खनन का कारोबार बड़े पैमाने पर किया जाता है। बड़े पैमाने पर अवैध खनन नदियों में पानी के बहाव को प्रभावित करता है और आस-पास के वनस्पतियों को भी नष्ट करता है। इसी तरह पिछले कुछ वर्षों से केरल में पहाड़ों से पत्थर के खनन का भी कारोबार बढ़ा है। इसके कारण पहाड़ों पर वनस्पतियों की कटाई भी निर्बाध गति से चल रही है और बाढ़ के दौरान भू-स्खलन और चट्टानों के गिरने की बहुत सारी घटनाएँ दर्ज की जाती हैं।

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सरकारी उपेक्षा का आलम यह था कि जब पूरा केरल बाढ़ से डूब रहा होता है उसी समय सभी बाँध खोल दिए जाते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार राज्य के कम से कम 30 बांधों से पानी कम बारिश वाले दौर में छोड़ा जाना चाहिए, पर सम्बंधित विभाग ऐसा करने के बदले इंतज़ार करते रहते हैं कि जब जलाशय पूरा भरने के बाद ही बाँध खोले जाएँ। इतना जरूर है कि बारिश सामान्य से अधिक हो गयी, पर इससे बड़ा सत्य यह भी है कि इतना बड़ा नुकसान सरकारी लापरवाही के कारण ही हुआ है। गाडगिल कमेटी ने 2011 में ही चेता दिया था, लगभग सभी जलाशय गाद भरने के कारण अपनी क्षमता खो चुके है। गाद भरने का कारण भी बताया गया था, ऊपर के क्षेत्रों में अतिक्रमण और जंगलों का विनाश। सबसे बड़े बाँध, इदुक्की बाँध, का तो पूरा क्षेत्र ही सघन अतिक्रमण की चपेट में है।

स्पष्ट है कि केरल के बाढ़ और भूस्खलन की भयावहता में सबसे बड़ा योगदान सरकारों का है जो वैज्ञानिक चेतावनियों के बाद भी लगातार पर्यावरण विनाश को अनदेखा करती रही। चेतावनी देने वाले रिपोर्ट का विरोध करती रहीं। पर्यावरण के विनाश पर तथाकथित विकास का यही हश्र होता है, यह विकास कभी भूकंप से तबाह होता है तो कभी पानी में बह जाता है और कभी चट्टानों के नीचे मलबे में तब्दील हो जाता है। केरल ही नहीं, बल्कि पूरा हिमालय भी ऐसी ही त्रासदी झेल रहा है, वैज्ञानिक लगाता चेतावनियाँ दे रहे हैं – पर क्या ऐसी त्रासदियों से हम कभी सबक लेंगें?

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