भारत में वन्यजीवों की 73 प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर, वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद मनुष्य खोद रहा अपनी कब्र

अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बड़ा खतरा बन चुका है, पृथ्वी पर सभी प्रजातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है....

Update: 2022-12-26 10:44 GMT

भारत में वन्यजीवों की 73 प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर, वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद मनुष्य खोद रहा अपनी कब्र

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

As per the statement given in the Upper House of the Parliament, at least 73 animal species are facing extinction threat in the country. हाल में ही राज्यसभा में पर्यावरण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बयान दिया है कि देश में वन्यजीवों की 73 प्रजातियाँ खतरे में हैं और विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रही हैं। यह आंकड़ा इन्टरनेशनल कंजर्वेशन यूनियन फॉर नेचर की रिपोर्ट पर आधारित है, और इसमें स्तनधारियों की 9, पक्षियों की 18, सरीसृप की 26 और उभयचर की 20 प्रजातियाँ सम्मिलित हैं। पर्यावरण राज्यमंत्री ने यह भी बताया कि वर्ष 2011 में कुल 47 प्रजातियाँ ही विलुप्तीकरण की ओर बढ़ रही थीं, पर अगले 10 वर्षों के भीतर ही इसमें 26 प्रजातियाँ और बढ़ गईं।

दिसम्बर के शुरू में गोवा में आयोजित वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस में बताया गया था कि औषधियों के लिए पौधों की लगभग 900 प्रजातियों का उपयोग किया जाता है, इनमें से 10 प्रतिशत से अधिक विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं। केवल 15 प्रतिशत औषधीय वनस्पतियों की प्रजाति की खेती की जाती है, और शेष को जंगलों से लगातार निकाला जाता है। एक दूसरे अध्ययन के अनुसार देश में कुल वनस्पतियों में से 18 प्रतिशत से अधिक विलुप्तीकरण की दिशा में बढ़ रहे हैं।

संसद में मोदी सरकार के मंत्री ने जानकारी दी कि 73 प्रजातियों में 9 मेमल्स, 18 बर्ड्स, 26 रेप्टाइल्स और 20 एम्फीबियन की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। राज्यसभा में पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि सरकार सरकार अब उन प्रजातियों को उच्चतम स्तर की सुरक्षा प्रदान करने के लिए वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट 1972 के शेड्यूल-1 के तहत शामिल करने की योजना बना रही है, जो विलुप्त होने की कगार पर हैं।

गौरतलब है कि इससे पहलीे सितंबर 2011 में लोकसभा में तत्कालीन सरकार ने बताया था कि भारत में मेमल्स, बर्ड्स, रेप्टाइल्स, फिश ओर एम्फीबिनयन की 47 प्रजातियां गंभीर रूप से विलुप्त होने की कगार पर थीं। यानी अब और ज्यादा प्रजातियों पर विलुप्तीकरण का संकट मंडरा रहा है।

जुलाई 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सभी वनस्पतियों में से 11.5 प्रतिशत और सभी जंतुओं में से 6.5 प्रतिशत हमारे देश में मिलते हैं। इसी रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 1750 के बाद से वनस्पतियों की जितनी प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं हैं, उनकी संख्या विलुप्त हो चुकी स्तनधारी, पक्षियों और उभयचर प्रजातियों की सम्मिलित संख्या से लगभग दोगुनी है। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश से वनस्पतियों की 18 और जन्तुवों की 4 प्रजातियाँ – चीता, सुमात्रा गैंडा, पिंक-हेडेड डक और हिमालयन क्वेल – विलुप्त हो चुकी हैं।

देश में जैव-विविधता के सरकारी आंकड़ों पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं और सरकारी तंत्र ही समय-समय पर अलग-अलग आंकड़े प्रकाशित करता रहा है। राज्यसभा में बताया गया कि 73 प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रही हैं, पर इसी वर्ष मई में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले केरल में ही 214 प्रजातियाँ खतरे में हैं।

हाल में ही प्लोस बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार अंटार्टिका में मिलने वाले स्थानिक जंतुओं में से दो-तिहाई पर विलुप्त होने या आबादी में भारी कमी का खतरा है, और तापमान बृद्धि के कारण वर्ष 2100 तक यहाँ की स्थानिक प्रजातियों की संख्या में भारी गिरावट होगी। इस अध्ययन को 12 देशों के 28 वैज्ञानिकों ने सम्मिलित रूप से किया है। इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 2100 तक एम्परर पेंगुइन की 80 प्रतिशत से अधिक आवास स्थान विलुप्त हो जायेंगे और इसके साथ ही इनकी कुल संख्या में 90 प्रतिशत की कमी दर्ज की जायेगी।

कनाडा के आर्कटिक क्षेत्र को हिम भालुओं की राजधानी कहा जाता है, पर वहां भी इनकी संख्या लगातार तेजी से कम होती जा रही है। कनाडा सरकार हरेक पांच वर्षों के अंतराल पर वहां हिम भालुओं की गणना का काम करती है। ऐसी अंतिम गणना अगस्त-सितम्बर 2021 में की गयी थी, जिसके आंकड़े हाल में ही प्रकाशित किये गए हैं। इसके अनुसार, इस क्षेत्र में कुल 618 भालू पाए गए, जबकि वर्ष 2016 की गणना में इनकी संख्या 842 थी। 1980 के दशक में इन भालुओं की संख्या 1200 से भी अधिक थी। इस रिपोर्ट के अनुसार मादा भालुओं और शावक भालुओं की संख्या तेजी से कम होती जा रही है।

अधिवेशनों के नतीजे कुछ भी हों, पर तथ्य तो यह है कि मनुष्य की गतिविधियों के कारण जैव-विविधता लगातार नष्ट होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के साथ ही भू-उपयोग में अंतर – दोनों ही मनुष्यों की गतिविधियों का परिणाम हैं – और जैव-विविधता के विनाश में इनका सबसे बड़ा योगदान है।

हाल में ही साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार अनियंत्रित तापमान वृद्धि के कारण इस शताब्दी के अंत तक दुनिया की 10 प्रतिशत से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो जायेंगीं। इस अध्ययन के अनुसार यदि दुनिया इसी तरह गर्म होती रही, जिसके पूरे आसार भी हैं, तब वर्ष 2050 तक 6 प्रतिशत और वर्ष 2100 तक 13 प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी होंगीं। यदि पृथ्वी का तापमान इससे भी तेजी से बढ़ा तो संभव है इस शताब्दी के अंत तक 27 प्रतिशत प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँ। इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर के अनुसार उनकी सूचि में कुल 150388 प्रजातियाँ हैं, जिनमें से 42000 विलुप्तीकरण के कगार पर हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की वर्ष 2020 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग दस लाख प्रजातियाँ विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ रहीं हैं, और आज के दौर में प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर पृथ्वी पर जीवन पनपने के बाद के किसी भी दौर की तुलना में 1000 गुना से भी अधिक है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के प्रभाव से दुनिया की जैव विविधता दो-तिहाई ही रह जायेगी और एक-तिहाई विविधता विलुप्त हो चुकी होगी।

यह अपने तरह का सबसे बृहत् और विस्तृत अध्ययन है, और इसमें कई ऐसे पैमाने को शामिल किया गया था, जिसे इस तरह के अध्ययन में अबतक अनदेखा किया जाता रहा है। इसमें पिछले कुछ वर्षों में विलुप्तीकरण की दर, प्रजातियों के नए स्थान पर प्रसार की दर, जलवायु परिवर्तन के विभिन्न अनुमानों और अनेक वनस्पतियों और जन्तुओं पर अध्ययन को शामिल किया गया है। इस अध्ययन को प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज में प्रकाशित किया गया था और इसे यूनिवर्सिटी ऑफ़ एरिज़ोना के डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोलॉजी एंड ईवोल्युशनरी बायोलॉजी विभाग के क्रिस्चियन रोमन पलासिओस और जॉन जे वेंस ने किया था।

इस अध्ययन के लिए दुनिया के 581 स्थानों पर वनस्पतियों और जंतुओं की कुल 538 प्रजातियों का विस्तृत अध्ययन किया गया है। ये सभी ऐसी प्रजातियाँ थीं जिनका अध्ययन वैज्ञानिकों ने दस वर्ष या इससे भी पहले किया था। इसमें से 44 प्रतिशत प्रजातियाँ वर्तमान में ही एक या अनेक स्थानों पर विलुप्त हो चुकी हैं। इन सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के आकलन के लिए 19 पैमाने का सहारा लिया गया, इस दृष्टि से यह जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में प्रजातियों पर प्रभाव से सम्बंधित सबसे विस्तृत और सटीक आकलन है।

वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो अगले 50 वर्षों में पृथ्वी से वनस्पतियों और जंतुओं की एक-तिहाई जैव-विविधता हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी।

हाल में ही वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ लन्दन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट, लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट, के अनुसार दुनियाभर में जंतुओं की संख्या पिछले 48 वर्षों के दौरान औसतन 69 प्रतिशत कम हो गयी है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं। रिपोर्ट के अनुसार पक्षियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृप वर्ग के जंतुओं में वर्ष 1970 से 2018 के बीच दो-तिहाई की कमी आ गयी है। यह कमी महासागरों से लेकर अमेज़न के उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों तक – हरेक जगह देखी जा रही है।

इस रिपोर्ट को हरेक दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित किया जाता है। नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जंतुओं की संख्या में 69 प्रतिशत की कमी आ गयी गई, पिछले रिपोर्ट में यह कमी 68 प्रतिशत थी, जबकि 4 वर्ष पहले जंतुओं की संख्या में महज 60 प्रतिशत कमी ही आंकी गयी थी। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89 वन्यजीव विशेषज्ञों ने तैयार किया है, और बताया है कि यह दौर पृथ्वी पर जैव-विविधता के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण का है। इस विलुप्तीकरण और पहले के 5 विलुप्तीकरण के दौर में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले के विलुप्तीकरण की घटनाएं प्राकृतिक कारणों से हुईं, जबकि इस दौर में प्रजातियाँ मनुष्यों की गतिविधियों के कारण संकट में हैं।

अधिकतर वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण आज मानव जाति के लिए जलवायु परिवर्तन से भी बढ़ा खतरा बन चुका है। पृथ्वी पर सभी प्रजातियाँ एक-दूसरे पर निर्भर करती हैं, इसलिए प्रजातियों का विलुप्तीकरण पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लिए भी खतरा है। आश्चर्य यह है कि तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद भी मनुष्य अपनी कब्र खोदता ही जा रहा है।

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