पानी की किल्लत से जूझती दुनिया में 2050 तक अरबों लोग भूख व कुपोषण की चपेट में जा जाएंगे
पानी का संकट लगातार बढ रहा है। विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय संकट के साथ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि परंपरागत खेती और सिंचाई के तरीके पर्यावरण व पानी के लिए अधिक बेहतर थे। पानी की कमी से आने वाले दिनों भयावह हालात के आसार हैं। पढिए उस पर केंद्रित यह विशेष आलेख...
महेंद्र पाण्डेय का आलेख
संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन द्वारा हाल में प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट स्टेट ऑफ़ फ़ूड एंड एग्रीकल्चर 2020 के अनुसार दुनिया की तीन अरब आबादी पानी की समस्या से जूझ रही है। दो दशक पहले दुनिया में प्रतिव्यक्ति जितना पानी उपलब्ध था, उसकी तुलना में वर्तमान में इसकी उपलब्धता 20 प्रतिशत रह गई है। इस दौर में लगभग डेढ़ अरब आबादी पानी की भीषण कमी और सूखे की चपेट में है, जिसका कारण जलवायु परिवर्तन, पानी की लगातार बढ़ती मांग और जल स्त्रोतों का कुप्रबंधन है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, जिस तरह की लापरवाही दुनियाभर में पानी के संदर्भ में की जा रही है, उससे अरबों लोग भविष्य में भूख और कुपोषण की चपेट में होंगे।
फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन के डायरेक्टर जनरल क्यू दौग्यं के अनुसार हमें पानी की समस्या के प्रति गंभीर होना पड़ेगा क्योंकि अब यह काल्पनिक नहीं बल्कि हकीकत है, जिससे हमें जूझना पड़ रहा है। पानी खेती का मुख्य आधार है और पानी में कमी का मतलब है हमें भूखा रहना पड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में दुनिया से भूख को मिटाना और सबके लिए साफ़ पानी उपलब्ध कराना, दोनों ही सम्मिलित किये गए हैं। यह लक्ष्य अभी भी पहुँच से बाहर नहीं है बशर्ते दुनिया गंभीरता से ऐसा करने के लिए तत्पर हो। इसके लिए खेती के तरीकों में बदलाव भी बहुत जरूरी है जिससे पानी की बचत हो सके।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट स्टेट ऑफ़ वाटर डेवलपमेंट के अनुसार वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 9.4 से 10.2 अरब के बीच होगी और तब लगभग 5 अरब लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे होंगे। इसका कारण जलवायु परिवर्तन, मांग में बढ़ोत्तरी और जल स्रोतों का प्रदूषित होना है। अनुमान है कि पूरी दुनिया प्रतिवर्ष 4600 घन किलोमीटर पानी का उपयोग करती है, जिसमें से 70 प्रतिशत का उपयोग कृषिं में, 20 प्रतिशत का उपयोग उद्योगों में और शेष 10 प्रतिशत का उपयोग घरेलू कार्यों में किया जाता है, पिछले 100 वर्षों के दौरान पानी की मांग में 6 गुना वृद्धि आंकी गई है और अब यह वृद्धि प्रतिवर्ष एक प्रतिशत है।
लगभग दो दशक पहले से यह आशंका जताई जा रही है कि अगला विश्वयुद्ध पानी की कमी के कारण होगा। विश्वयुद्ध तो अबतक नहीं हुआ पर पिछले वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पानी के कारण हिंसा पिछले दशक 2010 से 2019 में इसके पीछे के दशक की तुलना में दुगुने से अधिक हो चुकी हैं। इस रिपोर्ट को अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में स्थित पैसिफ़िक इंस्टिट्यूट ने प्रकाशित किया है जो दुनियाभर में पानी से संबंधित प्रकाशित विवादों का लेखा जोखा रखता है। इस रिपोर्ट में भारत में साल दर साल बढ़ते पानी से संबंधित विवादों और हिंसा का विशेष तौर पर जिक्र है।
मृदु पानी की घटती उपलब्धता, बेतहाशा बढ़ती जनसँख्या, जल संसाधनों का अवैज्ञानिक उपयोग और बदलते जलवायु और तापमान वृद्धि से जल संसाधनों पर प्रभाव के कारण पानी के प्रबंधन पर असर पड़ रहा है। पैसिफिक इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष पीटर ग्लिक के अनुसार, पानी सबके लिए जरूरी है पर धीरे-धीरे इसकी उपलब्धता कम होती जा रही है इसलिए लोग अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। पैसिफिक इंस्टिट्यूट 1980 के दशक से पानी से संबंधित हिंसा के प्रकाशित आंकड़े को एकत्रित कर रहा है। इस दशक के आंकड़ों के बारे में यह भी कहा गया कि आज के दौर में सोशल मीडिया के प्रभाव से ऐसे मामले अधिक संख्या में प्रकाशित किये जा रहे हैं, इसलिए इस दशक में पानी से संबंधित हिंसा के आंकड़े अधिक हैं। इसके जवाब में पीटर ग्लिक कहते हैं किए 1990 से 1999 के दशक की तुलना में 2000 से 2009 के दशक में ऐसी हिंसा के मामले कम प्रकाशित किये गए और वह दौर सोशल मीडिया का नहीं था।
अफ्रीका के सहारा क्षेत्र की लगभग 5 करोड़ आबादी हरेक तीसरे वर्ष भयानक सूखे की चपेट में आ जाती है। दुनिया में कुल कृषि भूमि में से 80 प्रतिशत भूमि पर जो कृषि की जाती है वह वर्षा पर आधारित है और दुनिया की कुल उपज में इस वर्षा.आश्रित भूमि का योगदान 60 प्रतिशत है। वर्षा आश्रित कृषि भूमि में से 10 प्रतिशत भूमि लगातार सूखे की चपेट में रहती है। दुनिया के कुल चारागाहों में से 14 प्रतिशत से अधिक भयानक सूखे का सामना करते हैं। कुल कृषि भूमि में से महज 20 प्रतिशत पर सिंचाई की सुविधा है, पर इनकी अपनी समस्याएं हैं। दुनिया में सिंचाई की सुविधा वाली कुल कृषि भूमि में से 60 प्रतिशत पानी की कमी की चपेट में है।
प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नल नेचर के 2018 के एक अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुनिया में जितनी भी बड़ी नदियाँ हैं, उनमें से लगभग दो तिहाई अब स्वच्छंद तौर पर नहीं बहतीं। इसके प्रभाव से नदियों में सेडीमेंट का परिवहन, मछलियों और दूसरे जीवों का जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र में नदियों का महत्व कम होता जा रहा है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और मोंट्रियल स्थित मैकगिल यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने दुनिया की नदियों पर विस्तृत अध्ययन का यह बताया है कि दुनिया में 1000 किलोमीटर से लंबी 246 नदियों में से महज 90 ही स्वच्छंद तौर पर बहती हैं और ये सभी आर्कटिक, अमेज़न और कांगो के क्षेत्र में स्थित हैं। ये सभी क्षेत्र ऐसे हैं, जहां अभी तक हमारे विकास का दौर बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ है। इस दल ने दुनियाभर में फ़ैली नदियों के 1.2 करोड़ किलोमीटर लंबे मार्ग का बारीकी से अध्ययन किया है और इसके लिए नदियों के उपग्रह से खींचे गए या फिर वायुयानों से खींचे गए चित्रों का सहारा लिया। दुनिया में बड़ी नदियों पर 60000 से अधिक बाँध हैं और 3700 से अधिक बांधों का निर्माण कार्य चल रहा है। इसका मतलब है कि और अधिक नदियाँ अब बांधी जा रही हैं।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हिमालय के 2000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थित 650 ग्लेशियर का बारीकी से अध्ययन किया है। इनके अनुसार, सभी ग्लेशियर तापमान वृद्धि के कारण खतरे में हैं और पिछले 15 वर्षों के दौरान इनके पिघलने और सिकुड़ने की दर पहले से दुगुनी हो गयी है। वर्ष 1975 से 2000 के बीच ग्लेशियर की औसत ऊंचाई लगभग 25 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही थी जबकि 2000 के बाद यह दर औसतन 46 सेंटीमीटर तक पहुँच गयी है। इस बढी दर के कारण हिमालय के ग्लेशियर से प्रतिवर्ष 8 अरब टन पानी नदियों में बहने लगा है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार इसका कारण तापमान वृद्धि है।
हिंदूकुश हिमालय लगभग 3500 किलोमीटर के दायरे में फैला है और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और म्यानमार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु समेत अनेक बड़ी नदियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर सीधे आश्रित हैं। अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर, तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा हैं। हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनियाभर में सागर तल में 2 मीटर की वृद्धि हो सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, परंपरागत खेती और सिंचाई के तरीके पर्यावरण और पानी की दृष्टि से बेहतर थे, पर अब दुनिया की कृषिभूमि पर मालिकाना हक़ चंद लोगों का हो गया है। दुनिया की 70 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि का स्वामित्व केवल एक प्रतिशत किसानों के पास है। खेती अब जीवन यापन नहीं बल्कि उद्योग हो चला है। सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं से पानी की बर्बादी अधिक होती है, खेतों का गंदा पानी जल संसाधनों को प्रदूषित करता है और भूजल का विनाशकारी दोहन करता है। जाहिर है, पानी के उपयोग के बारे में दुनिया को नए सिरे से सोचना पड़ेगा, तभी भविष्य में पानी बचेगा।