चमोली आपदा प्राकृतिक नहीं मानवजनित, करोड़ों लोगों पर पड़ेगा इसका असर

हिमालयी क्षेत्रों में बाँध बनाना हमेशा से बहुत खतरनाक रहा है क्योंकि इससे पहाड़ियां अस्थिर हो जातीं हैं और चट्टानों के दरकने का खतरा हमेशा बना रहता है,ग्लेशियर के तेजी से पिघलने पर हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में अनेक झीलें बन जायेंगी और इनके टूटने पर नीचे के क्षेत्रों में केदारनाथ जैसी भारी आपदा आ सकती है...

Update: 2021-02-17 04:36 GMT

ऋषिगंगा नदी की आपदा ने हिमालयी नदियों का भविष्य कैसे बता दिया है जानिये वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय से

जनज्वार। उत्तराखण्ड के ऋषिगंगा नदी की त्रासदी ने हिमालय के ग्लेशियर ने निकलने वाली नदियों का भविष्य बता दिया है। ऋषिगंगा नदी ने हाल में ही एक ग्लेशियर के बड़ा टुकड़ा गिरा और फिर बाढ़ आने के कारण दो पनबिजली परियोजनाएं बह गईं। इसके बाद आनन-फानन में बताया गया कि ऋषिकेश और हरिद्वार तक इसका असर नहीं आयेगा, पर यह असर भी आया और अब तो इससे निकली नहर का पानी भी इस हद तक गन्दा हो गया है कि दिल्ली में भी पानी की किल्लत हो चली है।

वैज्ञानिक लम्बे समय से ऐसी आपदाओं की चेतावनी देते रहे हैं, और 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद तो ऐसा लगा मानो अब सरकारें सचेत हो गईं हैं और पर जल्दी ही हिमालय पर इंफ्रास्ट्रक्चर और सड़क परियोजनाओं की बाढ़ सी आ गयी।

वैज्ञानिकों के अनुसार पूरा हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र एक तरफ तो जलवायु परिवर्तन से तो दूसरी तरफ तथाकथित विकास परियोजनाओं से खतरनाक तरीके से प्रभावित है। हिन्दूकुश हिमालय लगभग 3500 किलोमीटर के दायरे में फैला है, और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेकोंग, यांग्तज़े और सिन्धु समेत अनेक बड़ी नदियाँ उत्पन्न होती हैं, इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर सीधे आश्रित हैं।

अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं, क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनियाभर में सागर तल में 2 मीटर की बृद्धि हो सकती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में वर्ष 2100 तक यदि तापमान 1।5 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ता है तब भी हिन्दूकुश हिमालय के लगभग 36 प्रतिशत ग्लेशियर हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगे। यदि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है तब लगभग 50 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे, पर यदि तापमान 5 डिग्री तक बढ़ जाता, जिसकी पूरे संभावना है, 67 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे। यहाँ ध्यान रखने वाला तथ्य यह है कि वर्ष 2018 तक तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है।

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के वैज्ञानिक फिल्लिपस वेस्टर के अनुसार यह एक ऐसी भयानक आपदा है, जिसका कारण प्रकृति नहीं बल्कि मानव है, जिसके बारे में कभी विस्तार में चर्चा नहीं की जाती, पर इससे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। इस आपदा को गंभीरता से लेने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि 1970 के दशक से अब तक हिन्दूकुश हिमालय के 15 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर ख़त्म हो चुके हैं। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने के कारण 100 वर्षों में जितनी भयंकर बाढ़ आती थी, उतनी अब 50 वर्षों में ही आ जाती है। ग्लेशियर ख़त्म होने का प्रभाव खेती के साथ-साथ पनबिजली योजनाओं पर भी पड़ेगा, क्योंकि इस क्षेत्र में अधिकतर बिजली इससे ही उत्पन्न होती है।

ग्लेशियर के तेजी से पिघलने के कारण वर्ष 2050 से 2060 के बीच यहाँ से उत्पन्न होने वाली नदियों में पानी का बहाव अधिक हो जाएगा, पर वर्ष 2060 के बाद बहाव कम होने लगेगा और पानी की किल्लत शुरू हो जायेगी।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल के प्रोफ़ेसर जेम्मा वधम के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है वह पूरी तरह से विज्ञान पर आधारित है और इससे तापमान वृद्धि के प्रभाव से किस क्षेत्र को बचाने की सबसे अधिक आवश्यकता है, उसका भी पता चलता है। वर्ष 2006 में ब्रिटिश भूवैज्ञानिक रेन द्वारा प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार भी हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की दर पिछले कुछ दशकों के दौरान तेजी से बढ़ी है।

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड के एक प्रेजेंटेशन के अनुसार पिछले तीन दशकों के दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर तेज हो गयी है, पर पिछले दशक के दौरान यह पहले से अधिक थी। भूटान में ग्लेशियर 30 से 40 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। भारत का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर, गंगोत्री जिससे गंगा नदी उत्पन्न होती है, 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई 28।5 किलोमीटर है।

एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में 198000 ग्लेशियर हैं और इसमें से लगभग 9000 हमारे देश में हैं। हिमालय का लगभग 30000 वर्ग किलोमीटर हिस्सा ग्लेशियर से ढका है, जिससे यहाँ से उत्पन्न नदियों में लगभग 90 लाख घनमीटर पानी प्रतिवर्ष बहता है।

फरवरी 2013 में मार्क डब्लू विलियम्स के सम्पादन में एक पुस्तक प्रकाशित की गयी थी, द स्टेटस ऑफ़ ग्लेशियर्स इन द हिन्दू कुश – हिमालयन रीजन। इस पुस्तक के अनुसार इस पूरे क्षेत्र का विस्तार 4192000 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 1।4 प्रतिशत क्षेत्र में ग्लेशियर स्थित हैं। लगभग 60000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थित 54000 ग्लेशियर की जानकारी इस पुस्तक में है, जिसमें 6000 घन किलोमीटर बर्फ जमा है। इन बर्फों में जमा पानी की मात्रा का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्लेशियर में जमा पानी की मात्रा पूरे क्षेत्र में होने वाली वार्षिक बारिश से तीन गुना अधिक है।

साउथ एशियाई नेटवर्क ऑन डैम रिवर्स एंड पीपल नामक संस्था के निदेशक हिमांशु ठक्कर के अनुसार हिमालय की नदियाँ विकास परियोजनाओं, नदियों के किनारे मलबा डालने, मलजल, रेत और पत्थर खनन के कारण खतरे में हैं। जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है पर दुखद यह है कि अब इसका व्यापक असर दिखने लगा है इसलिए नदियाँ गहरे दबाव में हैं।

जल-विद्युत् परियोजनाएं नदियों के उद्गम के पास ही तीव्रता वाले भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों में बिना किसी गंभीर अध्ययन के स्थापित किये जा रहे हैं और पर्यावरण स्वीकृति के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है। कनाडा के पर्यावरण समूह, प्रोब इंटरनेशनल की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर पैट्रिशिया अदम्स के अनुसार ऐसे क्षेत्रों में बाँध बनाना हमेशा से बहुत खतरनाक रहा है क्योंकि इससे पहाड़ियां अस्थिर हो जातीं हैं और चट्टानों के दरकने का खतरा हमेशा बना रहता है।

ग्लेशियर के तेजी से पिघलने पर हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में अनेक झीलें बन जायेंगी और इनके टूटने पर नीचे के क्षेत्रों में केदारनाथ जैसी भारी आपदा आ सकती है। जर्नल ऑफ़ हाइड्रोलोजिकल प्रोसेसेज में प्रकाशित एक शोध के अनुसार वर्ष 1976 से 2010 के बीच हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में ग्लेशियर के पानी से बनी झीलों का क्षेत्र 122 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और इस तरह के 20000 से अधिक झीलों की पहचान की जा चुकी है।

लगभग सभी हिमालयी नदियाँ जिन क्षेत्रों से बहती हैं, वहां की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। यदि ग्लेशियर नष्ट हो जायेंगे तो नदियाँ भी नहीं रहेंगी और सम्भवतः संस्कृति भी बदल जायेगी। 

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