जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती भुखमरी, मलेरिया, डायरिया और चरम गर्मी : 2030-2050 के बीच हर साल होंगी 250000 अतिरिक्त असामयिक मौतें
जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाये तब वर्ष 2100 तक हरेक एक लाख मौतों में से 53 अतिरिक्त मौतें केवल जलवायु परिवर्तन के कारण होंगी....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Climate change is deadlier than COVID 19 or cancer, it is single biggest health threat. वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य के सन्दर्भ में कोविड 19 या फिर कैंसर से भी अधिक खतरनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल में ही कहा है कि जलवायु परिवर्तन वर्तमान में मानव के लिए स्वास्थ्य से सम्बंधित सबसे बड़ा खतरा है और ईजिप्ट में चल रहे कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज में प्राथमिकता के आधार पर इस विषय पर चर्चा की जानी चाहिए।
जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर प्रभाव का आकलन एक जटिल काम है, क्योंकि इसके प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष के साथ ही अल्पकालीन और दीर्घकालीन हैं। अल्पकालीन प्रभाव में बढ़ती गर्मी का प्रभाव, असामान्य ठण्ड का प्रभाव और चरम प्राकृतिक आपदाएं शामिल हैं, जबकि दीर्घकालीन प्रभाव वायु प्रदूषण, रोगों का विस्तार, खाद्य संकट, जल संकट और सूखे से जुड़े हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भुखमरी, मलेरिया, डायरिया और चरम गर्मी की मार का प्रकोप बढ़ता जा रहा है – और यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन ऐसे ही होता रहा तो इन प्रभावों से वर्ष 2030 से 2050 के बीच प्रतिवर्ष 250000 अतिरिक्त असामयिक मौतें होंगी। विशेषज्ञों के अनुसार इन प्रभावों का यह न्यूनतम आकलन है और असामयिक मौतों की संख्या विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन की तुलना में बहुत अधिक होंगी।
ग्लोबल क्लाइमेट एंड हेल्थ अलायन्स की निदेशक जेस बागली के अनुसार जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव तो है ही, पर समस्या यह है कि इससे वर्तमान स्वास्थ्य खतरे भी कई गुना बढ़ जाते हैं। इन्टरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में कुल मौतों में से 70 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार कारक जलवायु परिवर्तन के कारण पहले से अधिक मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करेंगे।
प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नल, लांसेट, में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन वैश्विक स्तर पर खाद्य-असुरक्षा को बढ़ा रहा है और अब यह एक गंभीर समस्या है। वर्ष 1981 से 2010 तक की तुलना में वर्ष 2020 में 10 करोड़ से अधिक व्यक्ति खाद्य असुरक्षा के दायरे में पहुँच गए। पिछले 50 वर्षों के दौरान भयानक सूखे का दायरा एक-तिहाई से अधिक बढ़ गया है। दूसरी तरफ साफ़ पानी के अभाव को करोड़ों लोग झेल रहे हैं। पानी की कमी से फसल उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ रहा है।
पिछले कुछ महीनों से दुनिया में खाद्य संकट और भुखमरी पर जब भी चर्चा की गयी, उसे हमेशा रूस-यूक्रेन युद्ध से जोड़ा गया और चरम पर्यावरणीय आपदाओं पर कम ही चर्चा की गयी। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट, "हंगर इन अ हीटिंग वर्ल्ड" के अनुसार बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में भूखमरी बढ़ रही है और इसका सबसे अधिक असर उन देशों पर पड़ रहा है जो जलवायु परिवर्तन की मार से पिछले दशक से लगातार सबसे अधिक प्रभावित हैं।
रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक प्रभावित 10 देशों – सोमालिया, हैती, जिबूती, केन्या, नाइजर, अफ़ग़ानिस्तान, ग्वाटेमाला, मेडागास्कर, बुर्किना फासो और ज़िम्बाब्वे - में पिछले 6 वर्षों के दौरान अत्यधिक भूखे लोगों की संख्या 123 प्रतिशत बढ़ गयी है। इन सभी देशों पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सूखे का संकट है। इन देशों में अत्यधिक भूख की चपेट में आबादी तेजी से बढ़ रही है – वर्ष 2016 में ऐसी आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी थी, अब यह आबादी लगभग 5 करोड़ तक पहुँच गयी है और लगभग 2 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं।
संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 में पिछले वर्ष की तुलना में 19.3 करोड़ अधिक लोग भुखमरी की चपेट में आ गए – इसका कारण गृह युद्ध और अराजकता, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक संकट है। गृहयुद्ध और अराजकता के कारण 24 देशों में लगभग 14 करोड़ आबादी, आर्थिक कारणों से 21 देशों में 3 करोड़ आबादी और चरम पर्यावरणीय आपदाओं के कारण अफ्रीका के 8 देशों में 2 करोड़ से अधिक आबादी भुखमरी की श्रेणी में शामिल हो गयी। वर्ष 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की एक-तिहाई से अधिक आबादी आर्थिक तौर पर इतनी कमजोर है कि पर्याप्त भोजन खरीद नहीं सकती।
वायु प्रदूषण के कारण ही जलवायु परिवर्तन होता है, और वायु प्रदूषण का दायरा और प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2020 में दुनिया में वायु प्रदूषण के प्रभाव से 33 लाख से अधिक असामयिक मौतें हुईं और इनमें से 12 लाख से अधिक मौतों का सीधा सम्बन्ध जीवाश्म इंधनों का दहन है।
अप्रैल 2022 में सतत विकास पर काम करने वाली अमेरिका के बोस्टन स्थित एक गैर-सरकारी संस्था, केयर्स, ने दो वर्षों के अध्ययन के बाद पानी से सम्बंधित एक रिपोर्ट को प्रकाशित किया। इस रिपोर्ट का आधार प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित शोधपत्र, सरकारी दस्तावेज और कुछ देशों द्वारा प्रकाशित पानी से सम्बंधित व्हाईट पेपर हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार पानी को अभी तक हम एक असीमित संसाधन मानते हैं और यह भी मानते हैं कि पानी में कितने भी प्रदूषणकारी पदार्थों को मिलाया जाए, पानी साफ़ ही रहेगा।
निश्चित तौर पर अब इन विचारों का कोई आधार नहीं है क्योंकि बढ़ती आबादी और पानी के कुप्रबंधन के बाद जल संसाधनों की क्षमता सीमित रह गयी है। जल संसाधनों का सबसे अधिक अवमूल्यन उद्योग जगत ने किया है, जिसमें कृषि भी शामिल है। अकेले कृषि क्षेत्र में दुनिया के कुल पानी की खपत में से 70 प्रतिशत का उपयोग किया जाता है, जबकि प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में यह खपत 19 प्रतिशत से भी अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार पानी के संकट के सन्दर्भ में पृथ्वी गंभीर खतरे में है।
भूजल का स्तर दुनिया में हरेक जगह पहले से अधिक नीचे जा रहा है, महासागर माइक्रोप्लास्टिक से भरे हैं, झीलें सूख रही हैं या फिर शैवाल से भरी हैं, हरेक नदी प्रदूषित है, नदियों का बहाव बाधित किया जा रहा है और रेत-खनन के कारण नदियों का मार्ग बदलने लगा है। दुनिया की आधी से अधिक नदियों पर बाँध बना कर नहरों के माध्यम से पानी कहीं और भेजा जा रहा है, इससे नदियों के मूल-मार्ग में पानी की भयानक कमी हो जाती है। एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका की आधी से अधिक झीलें अब शैवाल की चपेट में हैं।
भारत में पानी की कमी के कारण अनुमान है कि अगले दशक तक गेहूं, चावल और मक्के के उत्पादन में 68 प्रतिशत तक की कमी आयेगी। चीन और चिली में लिथियम के खनन के दौरान पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। सामान्य बैटरी की तुलना में लिथियम बैटरी के उत्पादन में पानी की खपत 56 प्रतिशत तक अधिक रहती है। सामान्य लेड एसिड बैटरी के पुनः-चक्रण का कारोबार दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, मध्य अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में बड़े पैमाने पर किया जाता है।
इस प्रक्रिया से लेड उत्पन्न होता है जिससे हवा और पानी दोनों विषाक्त होते हैं, और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाते हैं। वर्ष 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में जहां भी भूजल का व्यापक उपयोग किया जा रहा है वहां वर्ष 2050 तक पानी की उपलब्धता में 42 से 79 प्रतिशत तक कमी हो जायेगी। इस रिपोर्ट के अनुसार जल प्रदूषण के अधिकतर मामलों में स्थानीय गतिविधियाँ जिम्मेदार होती हैं पर अब जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि का भी इसमें योगदान है।
जलवायु परिवर्तन के कारण नए रोग पनप रहे हैं और पुराने रोगों का दायरा और अवधि बढ़ती जा रही है। लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षों के दौरान डेंगू के मामलों में 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी है और मलेरिया के संक्रमण की अवधि में 14 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गयी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के अनुसार यदि दुनिया ने जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाये तो वर्ष 2100 तक हरेक एक लाख मौतों में से 53 अतिरिक्त मौतें केवल जलवायु परिवर्तन के कारण होंगी, यानि दुनिया में 42 लाख से अधिक अतिरिक्त मौतें होंगी।