11 नए प्रस्तावित अभयारण्यों से संकट, सैकड़ों परिवारों को विस्थापन का खतरा
बफर जोन में अनेक तरह के प्रतिबंधो के कारण आवागमन, निस्तार, लघुवनोपज संग्रहण, मवेशी चराई तथा खेती पर भारी संकट के कारण आदिवासी पलायन के लिए मजबूर है....
राज कुमार सिन्हा का विश्लेषण
जनज्वार। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के वन विभाग ने 11 नए अभयारण्य (Sanctuary) और रातापानी को टाईगर रिजर्व (Tiger Reserve) बनाने का प्रस्ताव राज्य शासन को भेजा है। राज्य के 9 बड़े उद्यान और 25 अभयारण्य हैं जो कि 11893 वर्ग किलोमीटर अर्थात 11 लाख 89 हजार 300 हेक्टेयर में फैले हुए हैं। 11 नए अभयारण्य से 2163 वर्ग किलोमीटर अर्थात 2 लाख 16 हजार 300 हेक्टेयर संरक्षित क्षेत्र को शामिल कर लिया जाएगा। प्रदेश में कुल 52739 गांवो में से 22600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगल की सीमा से सटे हुए हैं। इसमें 925 वन ग्राम है।
शुरूआती दौर में राष्ट्रीय पार्क और अभयारण्यों से 94 गांव के 5460 परिवारो को विस्थापित किया जा चुका है। जिनका कोई पुनर्वास नहीं हुआ। 2016 में श्योपुर जिले स्थित कूनो पालपुर अभयारण्य को कूनो को राष्ट्रीय उद्यान में बदल दिया गया। अभयारण्य के समय इसकी धारण क्षमता 345 वर्ग किलोमीटर था जिसे बढाकर 749 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। जिसके कारण 24 गांव के 1545 परिवारों को विस्थापित किया गया। विगत कुछ वर्षो से कोर एरिया बढाने के नाम पर 109 गांव के 10438 परिवारों को हटाए जाने की कार्यवाही जारी है। वन विभाग की रिपोर्ट 2021 के अनुसार 2017 से 2020 तक 28 गांव को पुर्णतः और 8 गांव को आंशिक रूप से अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और बफर जोन से विस्थापित किया जा चुका है।
वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 तथा संशोधित 2006 की धारा 38 (4) (ll) के अन्तर्गत प्रत्येक टाईगर रिजर्व में बफर क्षेत्र अधिसूचित किया जाना अनिवार्य है। 9 बडे राष्ट्रीय उद्यान में से कान्हा, पेंच, सतपुडा, बांधव गढ, पन्ना और संजय धुबरी को टाईगर रिजर्व में शामिल किया गया है। इन सभी टाईगर रिजर्व का कोर एरिया 4773.627 वर्ग किलोमीटर था। परन्तु 2010 में बफर जोन की अधिसूचना जारी कर 6318.72 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र बढा लिया गया। जिसमें कान्हा का 161 तथा पेंच का 99 गांव को बफर क्षेत्र में शामिल कर लिया गया है। वन विभाग इन गांव को विस्थापित नहीं करने कि बात तो करता है।
परन्तु बफर जोन में अनेक तरह के प्रतिबंधो के कारण आवागमन, निस्तार, लघुवनोपज संग्रहण, मवेशी चराई तथा खेती पर भारी संकट के कारण आदिवासी पलायन के लिए मजबूर है। कानूनी पहलू यह है कि कोर एरिया अथवा संरक्षित वन क्षेत्र से पहले वन अधिकार कानून 2006 की धारा 4 (2) के अनुसार राज्य सरकार राज्य स्तरीय समिति का गठन करेगी,जिसमें ग्राम सभा के लोग भी होंगे, जो यह अध्ययन करेगी कि वन्य प्राणी पर प्रभाव अपरिवर्तनीय नुकसान के लिए पर्याप्त है और उक्त प्रजाति के अस्तित्व और उनके निवास के लिए खतरा है।
अध्ययन में यह बात साबित होने के बाद ही विस्थापन की कार्यवाही नियमानुसार किये जाने का प्रावधान है। परन्तु ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं अपनाते हुए सीधे ग्रामवासियों को हटने का नोटिस जारी किया जा रहा है।अपने संसाधनो से उजड़कर आदिवासी समुदाय शहरों के झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर हैं। मंडला जिले में पुर्व से ही कान्हा राष्ट्रीय उद्यान (94000 हेक्टेयर) और फेन अभयारण्य (11074 हेक्टेयर) बनाया जा चुका है। नये प्रस्ताव में राजा दलपत शाह अभ्यारण्य (13349 हेक्टेयर) मंडला जिले के कालपी रेंज में प्रस्तावित किया गया है।
इस राजा दलपत शाह अभ्यारण्य का प्रस्ताव आने पर 2019 में स्थानीय विधायक डाक्टर अशोक मर्सकोले और आदिवासियों का समाजिक संगठन ने तीखा विरोध किया था। उस समय की कमलनाथ सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था। सागर जिले की प्रस्तावित डाक्टर भीमराव अम्बेडकर अभ्यारण्य को राज्य वन्य प्राणी बोर्ड ने सैद्धांतिक मंजूरी प्रदान कर दी है। 25864 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले इस अभयारण्य के 5 किलोमीटर की परिधि में 88 गांव आते हैं। जिनकी निस्तार व्यवस्था वनों पर आश्रित है।वन्य प्राणियों के लिए इतनी सारी व्यवस्था के बावजूद वन विभाग के रिपोर्ट 2021 के अनुसार 2017 से 2020 तक वन्य जीव द्वारा 140 जनहानि, 3539 जन घायल और 26205 पशुओं का हानि कर चुका है।
संरक्षित वन स्थानिय समुदाय के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन है जो जंगल में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं। इस संरक्षित वन में लोगों के अधिकारों का दस्तावेज़िकरण किया जाना है और अधिग्रहण नहीं किया जाना है।वर्तमान में प्रदेश के विभिन्न जिलों में 6520 वनखंडो में प्रस्तावित लगभग 30 लाख 4 हजार 624 हेक्टेयर भूमि के सबंध में वन व्यवस्थापन की कार्यवाही वर्ष 1988 से लंबित है।
भारतीय वन अधिनियम 1927 के प्रावधानों के तहत वन व्यवस्थापन अधिकारियों को धारा 5 से 19 तक कार्यवाही कर धारा 20 में आरक्षित वन बनाने की प्रारूप अधिसूचना मय प्रतिवेदन प्रस्तुत करनी थी। परन्तु आज तक कोई प्रगति नहीं हुई है।जबकि वन विभाग द्वारा 22 वन मंडलो में लगभग 27039 हेक्टेयर निजी भूमि अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया है।
भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 के अन्तर्गत उक्त भूमि वन विभाग के पास निराकरण के लिए प्रतिवेदित है। दूसरी ओर राज्य सरकार द्वारा अधिनियम 1927 की धारा 34(ए) के तहत जारी अधिसूचना के अनुसार राजस्व और वन विभाग के अभिलेख को अपडेट नहीं किया गया है। इसको लेकर भूमि की सही कानूनी स्थिति को दर्शाने के लिए राजस्व और वन अभिलेखो को अधतन किया जाना आवश्यक है।उपरोक्त मामले के निराकरण किये बिना 2 लाख 16 हजार 300 हेक्टेयर भूमि को अभयारण्य में शामिल करना उचित नहीं है।
राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा द्वारा संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में 26 जुलाई 2021 को बताया गया है कि मध्य प्रदेश में अभिलेखित वन क्षेत्र 94689 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें 61886 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन 31098 वर्ग किलोमीटर संरक्षित वन और 1705 वर्ग किलोमीटर अवर्गीकृत वन है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2019 के अनुसार मध्यप्रदेश में 77482.49 वर्ग किलोमीटर वनावरण है जो प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 25.14 प्रतिशत है। मध्यप्रदेश देश का सर्वाधिक वन आच्छादित राज्य है। एक यह भी वास्तविकता है कि जहां आदिवासी क्षेत्र है वहीं जंगल बचा है। क्या जंगल बचाना आदिवासी समुदाय के लिए अभिशाप बनता जा रहा है ?
2016 में क्षतिपूर्ति वनीकरण निधि कानून (कैम्पा कानून) के जरिए आदिवासियों की जमीन पर लोगों को या ग्राम सभा से पुछे बिना उनकी जमीन पर पौधारोपण कार्यक्रम को बङे पैमाने पर शुरू कर दिया है, जिसके कारण आदिवासी बेघर हो रहे हैं।वन विभाग को केंद्र की कैम्पा फंड से अभी तक 5196.69 करोङ की राशि मिल चुका है। अप्रैल 2017 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा एक कानूनी आदेश (अभयारण्य क्षेत्र में वन अधिकार कानून लागू नहीं होगी) जारी कर वन भूमि पर काबिज आदिवासियों को बेदखल करने की कार्यवाही शुरू कर दिया गया।
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट के नाम पर वन विभाग इस तरह का प्रोजेक्ट तैयार कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी लाता है और स्थानिय समुदाय को उनके संसाधनों से बेदखल करता है।विकास एवं वन संरक्षण परियोजनाओ से त्रस्त आदिवासी कहने लगे हैं कि "हम अपना गांव कहां उठाकर ले जाएं?"
( लेखक बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं। )