दिल्ली-एनसीआर के कोयला संयंत्रों में उत्सर्जन नियंत्रण की विफलता से सालाना 4200 करोड़ रुपए का हो रहा है नुकसान

पर्यावरण अधिवक्ता रितविक दत्ता कहती हैं कि हमें इस बात को प्रभावी ढंग से बताने की तत्काल आवश्यकता है कि इस पूरे संकट के लिए हम कितनी गंभीर कीमत चुका रहे हैं, और इसे सबसे सरल शब्दों में समझाया जाना चाहिए....

Update: 2021-03-22 14:01 GMT

जनज्वार ब्यूरो। दिल्ली-एनसीआर के 300 किलोमीटर के दायरे में लगभग 12 ऐसे बिजली के संयंत्र हैं जिनका संचालन कोयले की मदद से किया जा रहा है। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) ने इनसे उत्सर्जित होने वाले प्रदूषण पर एक अध्ययन किया है। अध्ययन में यह बात निकल सामने आई है कि 2018 में इन 12 संयोंत्रों से उत्सर्जित होने वाले प्रदूषण को कम करने में लगभग 6700 करोड़ रुपए का बोझ सरकार के खजाने पर पड़ा है। अध्ययन की मानें तो अगर इन संयंत्रों में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से जारी निर्देशों का पालन हुआ होता और अगर प्रदूषण नियंत्रण उपकरण इन प्लांटों में स्थापित कर लिए गए होते तो इनसे उत्सर्जित होने वाले प्रदूषण कम से कम 62 फीसदी कम हो जाते। इससे उस दौरान लगभग 4,221 करोड़ बचाए जा सकते थे। खर्च का यह बोझ स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च, कम उत्पादकता और कल्याण आदि का एक मिश्रण भी है।

दिल्ली एनसीआर में निरंतर कोयला से संचालित होने वाले बिजली संयंत्र का लोगों के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव नामक शीर्षक के इस अध्ययन में दिल्ली एनसीआर के साथ देश भर में कोयला से संचालित बिजली संयंत्रों से प्रदूषण उत्सर्जन, उसका स्वास्थ्य पर असर और आर्थिक हानि का विश्लेषण किया गया है। 12 प्लांटों के अध्ययन से जो मुख्य बातें निकलकर सामने आईं इनमें प्रदूषण से आर्थिक नुकसान दिल्ली-एनसीआर से कहीं अधिक था। दिल्ली-एनसीआर में पावर प्लांट संचालन के आर्थिक प्रभावों के समकक्ष अगर राज्यवार खर्च का विवरण देखें तो सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 2301 करोड़ रुपए है। इसके बाद राजस्थान में 1125 करोड़, मध्य प्रदेश में 1100 करोड़, हरियाणा में 395 करोड़, गुजरात में 362 करोड़, दिल्ली में 292 करोड़ और पंजाब में 242 करोड़ रुपए है।

 [दिल्ली एनसीआर, उत्तर प्रदेश]

ऐसी धारणा है कि कोयला से संचालित बिजली संयंत्रों से उत्सर्जित होने वाला प्रदूषण मुख्य रूप से उसी इलाके या आसपास के इलाके को प्रभावित करता है। लेकिन सीआरईए के रिसर्च में कई हैरान करने वाले तथ्य निकल कर सामने आए हैं। इसके मुताबिक दिल्ली-एनसीआर में कोयला संचालित बिजली संयंत्रों से निकलने वाला प्रदूषण केवल दिल्ली या इसके आसपास के इलाकों के लोगों के स्वास्थ्य पर ही असर नहीं डाल रहा है बल्कि दिल्ली की सीमा को लांघ कर पड़ोसी जिलों के लोगों के स्वास्थ्य को भी यह नुकसान पहुंचा रहा है। सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2) उत्सर्जन मानकों को कम करने के लिए एवं इनके पूरा करने की समय सीमा जोकि पहले से ही काफी अधिक बढाईजा चुकी है को अब से पहले ही फिर एक बार 2022 से आगे बढ़ने के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) और ऊर्जा मंत्रालय के प्रस्ताव के बाद इस रिसर्च के द्वारा दिए गए तथ्य और भी महतवपूर्ण हो जाते हैं |

पावर प्लांट संचालकों ने 2018 और 2020 में अपनी मर्जी के दो नियमों में रियायत हासिल कर ली थी। इसके तहत जून 2018 में जहां इन्होंने पानी की खपत करने के मानदंडों को कमजोर बनाने के साथ-साथ 2020 में नाइट्रोजन ऑक्साइन के उत्सर्जन की सीमा पर लगी सख्ती को भी कमजोर करने में भी वो सफल रहे हैं। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की ओर से तैयार किए गए मानक के मुताबिक देश के ज्यादातर बिजली सयंत्रों के इलाकों में सल्फर डाई ऑक्साइड की मात्रा राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता के मानकों का उल्लंघन नहीं करता है। इनके प्रस्ताव के आधार पर इन प्लांटों में सल्फर डाइ ऑक्साइड नियंत्रण टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना जरुरी नहीं होगा।

[दिल्ली एनसीआर, हरियाणा]

सीआरईए के विशेषज्ञ सुनील दहिया केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के इस प्रस्वात का विरोध करते हैं। सुनील दहिया के मुताबिक सीईए का यह प्रस्ताव पार्टिकुलेट मेटर (कण) प्रदूषण के विज्ञान पर ही आधारित नहीं है। इसमें सल्फर डाई ऑक्साइड के मानकों को कमजोर किया गया है। वे कहते हैं कि पावर प्लांटों द्वारा उत्सर्जित सल्फर डाई ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी पूर्ववर्ती पम 2.5 (पार्टिकुलेट मेटर 2.5) प्रदूषण का कारण बनती हैं। ये सैकड़ों किलोमीटर तक फैल सकता है और ये खतरनाक गैस बड़ी आबादी के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकती है।

मौजूदा अध्ययन में यह दिखाया गया है कि कोयले पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों के कारण होने वाले प्रदूषण के एक महत्वपूर्ण हिस्से में सल्फेट और नाइट्रेट्स शामिल हैं। वे बताते हैं कि उनके शोध में यह तथ्य निकल कर सामाने आया है कि दिल्ली-एनसीआर में संचालित 12 कोल आधारित बिजली संयंत्रों में खतरनाक प्रदूषण अवयवों की मात्रा 96 फीसदी तक है। वे कहते हैं अगर दिल्ली-एनसीआर की हवा को प्रदूषण मुक्त करना चाहते हैं और इसे नियंत्रिंत करना चाहते हैं तो हमें सल्फर डाइ ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्सइड का उत्सर्जन हर हाल में कम करना होगा। दहिया कहते हैं कि कोई भी वो प्रस्ताव जो सिर्फ पॉवर प्लांट के आस पास की वायु गुणवता को ही धयन में रखे और उनके द्वारा दूर के इलाकों में होने वाले प्रदूषण को न समझे, वो प्रस्ताव कभी भी हवा को साफ़ करने में मददगार नहीं हो सकता |

पर्यावरण अधिवक्ता रितविक दत्ता कहती हैं, "हमें इस बात को प्रभावी ढंग से बताने की तत्काल आवश्यकता है कि इस पूरे संकट के लिए हम कितनी गंभीर कीमत चुका रहे हैं, और इसे सबसे सरल शब्दों में समझाया जाना चाहिए। यह सीआरईए ने अपनी रिपोर्ट के माध्यम से किया है। वायु प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों के अलावा, हमें दैनिक समस्याएं भी हैं, जिनमें अवरुद्ध विकास, मधुमेह, और अन्य गंभीर स्वास्थ्य बीमारियां शामिल हैं और प्रदूषकों पर कठोर कार्रवाई करते समय इन सभी पर भी विचार किया जाना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि प्रदूषण को कम करने के हमारे सभी पिछले प्रयासों से (वाहन, निर्माण आदि जैसे अन्य स्रोतों के माध्यम से) कोई फर्क नहीं पड़ेगा अगर हम इस हिस्से पर चूक जाते हैं तो (कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों से उत्सर्जन को संबोधित करते हुए। यह सरकार ही थी जो 2015 में अपने स्वयं के मानकों के साथ आई थी, और आज इनका पालन न होने पर हमें सरकार को इसके बारे में याद दिलाने की आवश्यकता है।"  

सीआरईए के अध्ययन में एक तथ्य यह भी निकल सामने आया है कि दिल्ली एनसीआर के क्षेत्र में संचालित 12 कोयला आधारित बिजली आधारित संयंत्रों से इस दिल्ली क्षेत्र में अनुमानतः हर साल 218 लोगों की मौतें होती है और समूचे दिल्ली एनसीआर में 682 मौतों का जिम्मेदार यह प्लांट है और देशभर में यह संख्या 4800 है। हालांकि, उत्सर्जन नियंत्रण टेक्नोलॉजी की मदद से इन मौतों में 62% कम किया जा सकता है। यानी इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सालाना 2,976 से 5,084 लोगों को मरने से बचाया जा सकता है।

नए मानकों की घोषणा के पांच साल बीत जाने के बाद भी दो फीसदी से कम कोयला संचालित प्लांटों ने फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (FGD) तकनीक स्थापित की है। 2020 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दिल्ली एनसीआर में अधिकांश बिजली संयंत्रों के लिए फिर से समय सीमा बढ़ा दी, जिससे इकाइयों को 2022 तक SO2 नियंत्रण प्रणाली के बिना चलाने की अनुमति मिल गई। जबकि सीईए के नए प्रस्ताव के आधार पर इसको 2024 तक बढ़ाया जा सकता है। स्विस रिसर्च ग्रुप की ओर से जारी आईक्यूएआईआर रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन साल से लगातातार दिल्ली सबसे प्रदूषित राजधानी है। इतना ही नहीं दुनिया के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में से 35 भारत में हैं।

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